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मिलन यामिनी

02:59 PM Aug 03, 2017 IST | Reena Yadav
मिलन यामिनी
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यामिनी एकाएक असहज हो उठी। वजह भी वाजिब थी- अभी मिले पत्र का अटपटा शुरूआती मजमून और बेतरतीब भाषा। हालांकि पत्र के अंत तक पहुंचते वह नाॅर्मल हो गई थी और चेहरे पर मुस्कान थिरकने लगी थी।

‘‘पतंग-डोर की भांति हम परस्पर जुड़े थे, असंगत हालात ने हमारे बीच दूरियां बढ़ा दीं। तेज हवा के झोके से हमारी जमीनें अलग होती गई, हमारा आसमान यहां तक कि अंतरिक्ष भी……. धीरे-धीरे सब कुछ टुकड़ों में विभक्त होता गया। हमारे बीच जो अंतर गहरा गया था, क्या उसे किसी पैमाने से मापा जा सकता था? क्या वह समुन्द्र की गहराई नापने सा दुष्कर नहीं था?

मंगलसूत्र धारण कर तुमने वैध सामाजिक सुरक्षा हासिल कर ली। यानि एक कदम आगे बढ़कर कक्कड़ से अंबानी बन गई और मैं यथावत उसी मोड़ पर खड़ा रहा दिन- मान देराश्री बना। नितांत अकेला, सूने समुद्र सा, मानो किसी की राह जोहता। दिन में लहरों को अपने सीने पर झेलता। शाम को विश्राम के मूड में आ गया हो। पर अंतर में सुलगता तूफान अनचीन्हा रहा। शायद यही हश्र होता है इस प्रकार के विकसित होते रिश्तों का।

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स्मरण करो वह लम्हा.. जब पहले पहल हमारी संवेदना ने हमारे दिलों को झकझोरा था। तुम्हारे अंदर की स्त्री ने अतिशय रोमांटिक अंदाज में अपनी भावुकता उजागर की थी – मत निहारो दिन मुझे इन निगाहों से कुछ होने लगता है, कहीं मन का तटबंध न दरक जाए। मुझे सहारा दो। 

यामिनी तुम्हें स्मरण है वह पहला पल, रिश्तों के षडयंत्र की बनावट का पहला तानाबाना। तुम अनमने भाव से निद्रा फाजली की गजलों के शेरों को तोड़ते मरोड़ते दोहराते रही और मैं अनसुनी करने का भ्रम पैदा करता रहा। सुबह तुम्हारा रक्तिम चेहरा क्रोध का पर्यायवाची बन रहा था। अतः तुमसे नजरें बचाने में खैर अपने ड्रामाई अंदाज की सफलता तुम्हारे मुख से उगलवा ली जब तुमने कहा – चलो खत्म करो, तुम भी क्या याद करोगे। एक विजेता की मुस्कान से मैं सुकून से भर उठा था।

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सिटी बस पकड़कर हम एक मल्टीनेशनल कंपनी के दफ्तर जा पहुंचे जहां हमने नौकरी के लिए आवेदन दिया था। जैसी कि आशंका थी मेरा चयन नहीं हुआ तुम्हारा भी नहीं, बिना किसी तैयारी के वह मुमकिन भी नहीं था। मुझे अपने न चुने जाने का इतना अफसोस नहीं हुआ, जितना तुम्हारे न चुने जाने का। खिसियाते भावों को संतुलित करता हुआ और तुम्हें तसल्ली देता हुआ मैं तुम्हारे साथ आ गया और पलंग पर जाकर अधलेटा पसर गया। आंखों में नींद बेशुमार थी जो पलक झपकते ही प्रकट हो गई।

यकायक मुझे तुम्हारी निकटता का बोध हुआ। नींद कच्ची थी इसलिए चालाकी पूर्वक मैंने कनखियों से देख लिया कि तुम्हारी आंखों में प्यार का संमदर लहरा रहा था। मुझे सलीके से विश्राम दिलाने के उपक्रम में तुमने धीमे से मेरे पैरों में चादर डाल दी। शरारतपूर्वक मैंने आंखें खोल बाहें फैला दी। तुमने सकुचाते नजरें झुकाते हुए झिड़क दिया। बदमाश ………. मैं खामोशीपूर्वक मुस्कराने लगा और तुमने वहीं से अपनी बहन को आवाज लगा दी – दीदी चाय- नाश्ता लगाओ……और यामिनी जेहन में है वह लम्हा जब मैं सारी चालाकी विस्मृत कर तुम्हारे  स्नेहभाव के प्रति नतमस्तक हो गया था। द्वार खोलकर मैंने अंदर प्रवेश किया था और उधर दूर निजी कक्ष से तुमने पता नहीं कैसे अनुमान लगाया और हाथ में खुली कलम पकड़े बाहर निकल आई थी….. शायद तुम कुछ लिख रही थी।

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मुझे देखते ही पुष्प सी मुकुलित हो गई थी  और मैं अविश्वसनीय नजरों से तुम्हारी आंखों में कुछ खोजने लगा था शायद स्वयं को। तुम्हारा संपूर्ण आल्हाद तुम्हारी वाणी में सिमट आया था। ‘घर पर कोई नहीं है। ” मैं तुम्हारी बातों का गूढ़ार्थ समझने की चेष्टा कर रहा था और तुम्हारे हाथ मेरे हाथों स्पर्श करने लगे थे। गुस्सा हो रही हो न यामिनी पत्र में यह सब पढ़कर। सोचती होगी क्या अावश्यकता है अब बीता दोहराने की? नहीं यामिनी, यह इसलिए आवश्यक है कि क्योंकि मन को और बोझिल नहीं करना चाहता। तुम्हें उस वास्तविकता ने रूबरू कराना चाहता हूं जो शायद तुम्हारे लिए अकल्पनीय, अविश्वसनीय है। 

आज मैं सारा संचित गुबार निकालकर बोझमुक्त होना चाहता हूं। आदर्श के आवरण में मैंने तुम्हें कितना भ्रमित किया। नाखुश किया….उन लम्हों की कसक आज मुझे तनावग्रस्त कर रही है, हो जाने दो हल्का। 

मै। बेवक्त, बेवजह रूठ जाया करता था और तुम घंटों व्यथित होकर मुझे मनाने की कोशिश करती।

आम मध्यमवर्गीय परिवार को सौगात में मिलनेवाली विपरीत परिस्थितियां मुझे हरदम संघर्षरत बनाए रहीं लेकिन मैं उनसे भिड़ने के बजाय बचाव की मुद्रा बनाए रहा। पारिवारिक सौहार्द्र और लगाव के मायने पेट भर खाना और भरपूर रात्रि विश्राम को मानता रहा। यह सब यांत्रिकी तौर तरीके से सपंन्न होता रहा। क्या जिंदगी के मायने यही होते हैं। भूख लगती है तो दीगर प्राणी तो पेटभर लेते हैं। बिना संवेदना और मूल्यों के रिश्तों की अहमियत समझे बगैर।

उस दिन बड़ी हसरत से तुम्हारे दरवाजे दस्तक दी। अगले ही पल भूल का एहसास हो गया, वहां फिजाओं में तुम्हारी उपस्थिति की खूशबू नहीं थी। मगर घुसने की गलती कर बैठा था इसलिए उलटे पैर लौटना अशिष्टता होती। तुम्हारी मम्मी से औपचारिकता की संक्षिप्त रस्म अदायगी के पश्चात भाग निकलना चाहता था कि तुम्हारी मम्मी के तरकश से व्यंग्य बाण छूट गए – बैठो बेटे दिनमान, क्या यामिनी होती, तब भी इतना कम रुकते? नश्तर सी चुभन महसूस हुई उनके पूछने से, अतः खिसियाते हुए मैंने पूछ लिया – ‘‘क्या बोलना चाहती है आंटी?”

उन्होंने सचमुच खरी- खोटी सुना दी- ‘‘तुम लोगों की शिक्षा पूरी हुई अब यामिनी से मिलने का क्या अर्थ?” मुझे समझने- संभलने का अवसर दिए बगैर वे इकतरफा बोले चली जा रही थी। शायद सारा संचित आक्रोश उगलने का फिर मौका मिले न मिले?

तुम्हारी मम्मी की गंभीर, कटुतापूर्ण बातों से मेरा सिर भारी होने लगा। सप्ताह भर को सर्दी-खांसी को रुखसत करता हुआ मैं तुम्हारे दर पर पहुंचा था। वापस लौटा तो सिर पूर्ववत् भन्ना रहा था। तुम्हारे मम्मी से इस दुर्व्यवहार की आशंका कतई नहीं थी, तभी कठोर निर्णय ले लिया…….तुम्हारी मम्मी की मंशा के मुताबिक अब कभी……

तीन वर्ष गुजर गए जैसे तीन युग। अपने फैसले पर बड़ी मुश्किल से अडिग रहा। कैसे अपने पर नियंत्रण बनाए रखा विश्वास नहीं होता? पता नहीं कैसे तुम्हारी मम्मी ने किस स्त्रोत से मालूम कर लिया कि मेरी इस शहर में पुनः आमद हो गई और मैं फलां कंपनी में सुपरवाइजर लग गया हूं। उन्होंने संदेश, प्रेषित कर तुरंत मिलने को कहा है। कठोर नियंत्रण पल भर में तिनके-सा बह गया। वह निर्णय हवा हो गया और मैं मिलने को……

तुम्हारी मम्मी से मिलने के स्थान पर तुम्हें खत लिख रहा हूं यामिनी। शत प्रतिशत सही अनुमान लगा रहा हूं…..तुम्हारी मम्मी तुम्हारा हाथ मुझे सौंपना चाहती हैं, गेंद मेरे पाले में है लेकिन तुम्हारी मम्मी की सकारात्मक पहल से मेरा निर्णय विचलित हो गया। मेरे अंतर्मन ने उसे फौरन समर्थन प्रदान कर दिया।न…न…तह में नहीं जाना चाहूंगा कि तुम्हारा अपने पति से अलगाव कैसे, किन परिस्थितियों में हुआ? पहल तुम्हारी तरफ से हुई या उनकी तरफ से। मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। 

हकीकत यह है कि बसंत का उत्सव दस्तक देने वाला है प्रणय का महोत्सव। स्वीकार लो कि एक विस्मृत ख्बाव फिर हमारी उदास आंखों का श्रृंगार बनने जा रहा है। पतझड़ के पश्चात दरख्तों पर वापस लौटते परिंदों के मानिंद तुम्हें अधिक, प्रतीक्षा नहीं कराऊंगा, शायद मैं स्वयं भी नहीं कर सकता। 

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