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अध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए करें चैत्र नवरात्र: Chaitra Navratri 2024

12:00 PM Apr 10, 2024 IST | Srishti Mishra
अध्यात्मिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए करें चैत्र नवरात्र  chaitra navratri 2024
Chaitra Navratri 2024
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Chaitra Navratri 2024: नवरात्र या फिर कहें शक्तिपर्व में उपासना की जाती है सम्पूर्ण सृष्टि की चेतनारूपी त्रिशक्तियोँ महासरस्वती,महालक्ष्मी एवं महाकाली की इस सम्पूर्ण सँसार का संचालन,पालन और सँहार यूँ तो त्रिदेवों ब्रह्माजी ,विष्णुजी एवं शिवजी द्वारा किया जाता है। पर जैसे कोई शक्तिशाली यन्त्र बिना उसकी बैटरी अर्थात ऊर्जा के बिना अधूरा, बेकार होता है, उसी प्रकार ये त्रिदेव भी अपनी शक्तियों के बिना अपूर्ण हैं। कहते हैं कि शक्ति के बिना शिव भी शव के समान कहे गये हैं,इनकी उपासना होती है विशेष ऊर्जा से ओत प्रोत रात्रियोँ में जिन्हें नवरात्र कहा गया है। नवरात्र या नवरात्रि संस्कृत का शब्द है, जिसे नव अहोरात्रों (विशेष) का बोध होता है। रात्रि को सिद्धि भी कहा गया है।

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नवरात्र अर्थात विशिष्ट ऊर्जा से ओतप्रोत यह उत्सव अमावस्या से लेकर नौ रात्रि एवं दस दिनों का वह समूह है जो मानव मात्र के लिये हर प्रकार से पूर्ण कल्याणकारी है। चाहे वह आध्यात्मिक हो या वैज्ञानिक मानसिक हो या मनोवैज्ञानिक रूप से चारों ओर प्रसन्नता ही दिखाई देती है। कौन हैं देवी दुर्गा-:दुर्गा सप्तशती और मार्कण्डेय पुराण में वर्णन है कि जब महिषासुर के अत्याचारों से त्रिलोक में हाहाकार मच गया। तब सभी देवता ब्रह्मा जी को आगे कर विष्णु जी और शिव जी के पास गये। उनके शरीर से एक तेज प्रकट हुआ और साथ साथ अन्य सभी देवताओं के शरीर से भी उनकी शक्ति का एक तेजपुंज निकला जो एक स्थान पर एकत्रित हो गया। उसने एक स्त्री का रूप ले लिया उन्होंने इनका उपहारों और स्तुतियों से सम्मान किया और उसे मारने की प्रार्थना की। दुर्गम सँसार से तारने वाली ये भगवती दुर्गा कहलायीं।
महाकाली-: भगवान विष्णु की योगनिद्रा हैं,ये ही सँसार को मोह में डालती है,और ये ही मुक्त करती हैं,इन्हें ही
कालरात्रि ,प्रकृति कहा गया है। शत्रु नाश के लिये इनकी ही स्तुति की जाती है।
रोगों को भी शत्रु ही कहा गया है,हम सभी जानते है,कि नींद में हम भले सो रहे हों उस समय भी हमारे शरीर मे
जो टूटी फूटी कोशिकाओं को खत्म कर नईं कोशिकाओं का जन्म होता है यह सँहारिणी शक्ति इनके आधीन है।
इसके बिना स्वस्थ सृष्टि का सृजन हो ही नहीं सकता।
महालक्ष्मी-:महालक्ष्मी सँसार की पालनकर्ता हैं,हम मनुष्यों को जीविका में लगाती हैं,जिससे हमें धन की प्राप्ति
होती है,सँसार में हम धन के बिना असहाय हो जाते हैं।
महासरस्वती-:महासरस्वती को ब्रह्माण्ड की महाविद्या कहा गया है बिना इनकी कृपा के न हमें ज्ञान मिलेगा,और न ही आजीविका,ये सँसार को चलाने वाली सम्पूर्ण कलाओं की अधिष्ठात्री कही गयी हैं।

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हम सभी को ज्ञात है कि देवी सिंहवाहिनी है,और उनके सभी हाथों में अस्त्र है। इसका अर्थ यह हैं कि जीवन रूपी संग्राम में विभिन्न चुनौतियों से सामना होता है। उन पर विजय पाने के लिये हमें अपनी पाशविक प्रवृत्ति को नियंत्रण में रखने चाहिये। अस्त्र शस्त्र हमें आत्मरक्षा सिखाते हैं तो उनके हाथों में धारण अन्य चीजें अपने प्रतीक रूप से हमें प्रेरणा प्रदान करती हैं। कि हमें अपनी चेतना का सदा स्मरण रखना चाहिये।

इस सँसार में मनुष्य को जो कि सबसे चैतन्य है उसे जीवन भर सभी चीजों की आवश्यकता होती है,जिनमेँ प्रमुख हैं ,ज्ञान ,धन और स्वास्थ्य। जीवन इन तीनों के बिना सुचारू रूप से चलना असम्भव है, ये मिल जाएं तो इनकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा भी करनी चाहिये।

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हमारे शरीर को नौ द्वारों वाला दुर्ग कहा गया है,और इसमें निवास करने वाली चेतना रूपी अधिष्ठात्री शक्ति को दुर्गा। हमें हर प्रतिक्रिया के लिए शक्ति की ही आवश्यकता होती है, शक्ति अर्थात ऊर्जा के बिना शिव भी शव के समान होते हैं। इसलिये इस समय हर प्रकार की शक्ति प्राप्त करने के लिये सँसार की सर्वोच्च त्रिशक्ति महासरस्वती, महालक्ष्मी व महाकाली की उपासना अनिवार्य रूप से की जाती है।

पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा करते समय एक वर्ष में चार ऋतु सन्धियाँ पड़ती हैं। एक ऋतु के आगमन और दूसरी ऋतु की विदाई के बीच ,हर सन्धि के समय में रोगाणुओं के प्रकोप में तेजी आ जाती है। उस समय रोग अपने चरम पर होते है,जिन्हें दूर करने और शरीर को स्वस्थ रखने के लिये रखने के लिये ,जो ,निर्मल
शुद्ध और सात्विक प्रक्रिया ही नवरात्र है।

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नवरात्र प्रति वर्ष चार संधिकाल में चार ही पड़ती है। उनमें मार्च में पड़ने वाली चैत्र व सितंबर में पड़ने वाली गोल सन्धियोँ को प्रकट नवरात्र कहा गया है,और माघ और आषाढ़ में पड़ने वाली नवरात्रि को गुप्त नवरात्र कहा गया है। अमावस्या की रात से अष्टमी या नवमी तक चलने वाले नौ रात्रि दस दिन के समूह के व्रत संयम और नियम को ही नवरात्रि कहा गया है।

इस समय देवी के तीनों रूप महासरस्वती,महालक्ष्मी एवं महाकाली की आराधना की जाती है। इसको सांसारिक पक्ष से देखें तो जीवन मे पहले हमें विद्या उसके बाद धन की आवश्यकता होती है।उसके उपरांत हमें शत्रुओं से अभय की भी जरूरत पड़ती है। ये तीनों देवियाँ महासरस्वती,महालक्ष्मी एवं महाकाली क्रमशः सतोगुण, रजोगुण और तमोगुण का प्रतिनिधित्व करती हैं। सतोगुण धर्म का और रजोगुण काम अर्थात इच्छाओं का प्रतीक है। और धर्म और काम के बिना हमें तमोगुण अर्थात मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती ।

हमारे मनीषियों ने दिन की अपेक्षा रात्रि को अधिक महत्व दिया है,क्योंकि दिन जहाँ
व्रत और आजीविका को समर्पित हैं वहीं रात आधात्मिक उन्नति को। हमारे सारे प्रमुख पर्व
होली,दीपावली,शिवरात्रि,नवरात्रि आदि रात में ही मनाये जाते हैं। रात में बहुत सारे प्राकृतिक और सामाजिक अवरोध समाप्त हो जाते हैं और आध्यात्मिक ऊर्जा की प्राप्ति निर्विघ्न होती है अन्यथा इनका नाम नव रात्र नहीं नव दिन न होता ।

हमारे ऋषि मुनि यह जान चुके थे कि मन्त्रजाप और साधनाएँ रात में तेजी से सिद्ध होती हैं, क्योंकि बहुत सारे अवरोध रात में स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं। उदाहरण के लिये दिन में दी जाने वाली आवाज़ दूर तक नहीं जाती वहीँ रात में वह बहुत दूर तक निर्विघ्न चली जाती है। दिन में सूर्य की किरणें आवाज की तरंगों और रेडियो तरंगों को आगे बढ़ने से रोक देती हैं। कम शक्ति के रेडियो स्टेशनों को दिन में पकड़ना अर्थात सुनना मुश्किल होता है, जबकि सूर्यास्त के बाद छोटे से छोटा रेडियो स्टेशन भी आसानी से सुना जा सकता है। हमारा मन्त्र विज्ञान ,ध्वनि के सिद्धांतों पर ही आधारित है,रात में मन्त्र और उसकी ध्वनि से उत्पन्न हुई ऊर्जा की पहुँच बढ़ जाती है,जो बड़ी सिद्धिप्रद होती है।

दुर्गा कवच में वर्णित है कि देवी दुर्गा की शक्ति इन विशिष्ट नौ औषधियों में भी विराजमान है ।इनका उपयोग हमें बहुत सी बीमारियों से बचाये रखता है। जिनके नाम इस प्रकार है- शैलपुत्री (हरड़ ) , ब्रह्मचारिणी(ब्राह्मी),चन्द्रघण्टा ( चंदुसुर ),कूष्मांडा ( कुष्माण्ड कुम्हड़ा या पेठा), स्कंदमाता(
अलसी) ,कात्यायनी( मोइया) कालरात्रि ( नागदौन ),महागौरी( तुलसी) सिद्धिदात्री( शतावरी) आदि ये सभी औषधि हमारे शरीर के त्रिदोष कफ़ पित्त वात को दूर कर उन्हें संतुलित करती हैं। हम सभी ने पढ़ा है देवी ने स्वयं ,और बढ़े हुए गणों ने रक्तबीज से उत्पन्न असुरों को मारा। इसे हम ऐसे समझ सकते हैं कि हमारे शरीर मे भी बीमारियों से लड़ने के लिये जीवनी शक्ति की सेना होती है।जो रोगाणुओं का सँहार करती है।

इस समय सभी लोग शारीरिक शक्ति के संचय के लिए भी,रत उपवास,
नियम संयम करते हैं । अमावस्या से दशमी तिथि तक का यह नवरात्रि का समय हल्के भोजन के लिये उपयुक्त होता है। आध्यात्मिक चेतना के संग्रह के लिये हमारा जागना अनिवार्य है। घर-घर होने वाले हवन-पूजन और शंखनाद से वातावरण में चारों ओर रोगाणुओं का नाश हो जाता है और पवित्र ऊर्जा का संचार होता है। जाड़े में गरिष्ठ भोजन करने से आई विकृतियों को हल्का भोजन और नियम ,संयम करने के कारण, हमारे शरीर को गर्मी की ऋतु के लिये स्वाभाविक रूप से तैयार कर देता है। जो प्रसन्नता, ऊर्जा, हल्कापन हमे सात्विक भोजन ग्रहण करके प्राप्त होती है,उसे गरिष्ठ भोजन में हम महसूस नहीं करते। इस तरह जहाँ हम अपने शरीर की बाहरी सफ़ाई अन्य साधनों से करते हैं, वहीं उपवास शरीर की आंतरिक सफाई का सबसे अच्छा माध्यम है।

दिन में जहाँ हम व्यस्त होते हैं तो पूजा में एकाग्रता का अभाव हो जाता है। वहीँ रात में कोई भी ध्यान ,भजन ,पूजन अनुष्ठान बिना किसी चिन्ता विघ्न-बाधा के पूरा हो जाता है। बहुत से लोग शक्ति पीठों के दर्शन हेतु जाते हैं जो नहीं जा पाते। वे घर पर रहकर ही इन विशिष्ट ऊर्जावान रात्रियों पर ऊर्जा ग्रहण करते हैं। जहाँ चैत्र मास की नवरात्र आध्यात्मिक ऊर्जा को बढ़ाती है वहीं आश्विन मास की आराधना सांसारिक कामनाओं की पूर्ति करती है। शक्ति की उपासना की उपयोगिता को देवताओं, मानवों ,ऋषि मुनियों के अतिरिक्त राक्षसों,असुरों ने भी समान रूप से स्वीकार किया है।

हमें प्राचीनकाल से लेकर रामायण में भी श्री राम की शक्ति पूजा के साथ साथ रावण ,मेघनाद और अहिरावण के द्वारा भी देवी की पूजा का उल्लेख मिलता है। अगस्त्य ऋषि को ज्ञात था कि राक्षस मायावी हैं उन्हें सरलता से
जीत पाना असंभव है, तथा उन्हें तन्त्र और अभिचार में निपुणता प्राप्त थी। उन्होंने भगवान राम को भावी युद्ध का अनुमान करके शिव और विष्णु की संयुक्त विनाशकारी शक्ति प्रत्यंगिरा साधना का ज्ञान दिया था ।ये
महाकाली की ही शक्ति हैं। प्रति का अर्थ है 'उलटना' और अंगिरस का अर्थ है आक्रमण ';ये देवी शत्रु के अभिचार को उसी पर दोगुने वेग से लौटा देती हैं। यह भी तन्त्र का ही एक भाग है सज्जन इसे लोकहित मे प्रयोग करते हैं व स्वार्थी निजी हितों के लिये। तान्त्रिक पूजा का अर्थ होता है कि प्रत्येक चरण का पालन बहुत सावधानी के साथ किया जाता है,और सम्बंधित देवी साधक की किसी भी प्रकार परीक्षा ले सकती है,असफलता का परिणाम कभी कभी मृत्यु भी होता है। लँका विजय के समय श्रीराम ने भी यह साधना सम्पन्न की। साधना के अंतिम दिन उन्हें देवी को एक सौ आठ कमल पुष्प अर्पण करने थे।देवी ने उनकी परीक्षा लेने को उनका एक कमल गायब कर दिया। मुहूर्त बीत रहा था साधना की सफलता और कमल के अभाव में, श्रीराम ने सोचा कि मेरी माँ मुझे राजीवनयन कहा करती थीं। क्योँ न मैं अपना नयन ही माँ को अर्पण कर दूँ,यह विचार कर उन्होंने अपने नेत्र पर ही तीर का सन्धान कर लिया। भगवान तीर चलाने वाले ही थे कि देवी ने प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया और उन्हें विजय का आशीर्वाद प्रदान दिया। इस प्रकार भगवान राम को भी अपने संकल्प में ईश्वर होते हुए भी,सफल होने के लिये शक्ति की उपासना करनी पड़ी। इसके मूल में जहाँ उनकी अपनी इष्टदेवी को समर्पण की भावना निहित थी। वहीँ रावण का उद्देश्य अहंकार था।

इंद्रजित मेघनाद को जब यह ज्ञात हुआ कि वह राम लक्ष्मण को सरलता से पराजित नहीं कर पायेगा। तो वह गुप्त रूप से अपनी कुलदेवी निकुम्भला के सामने प्रत्यंगिरा साधना सम्पन्न करने लगा,पर हनुमानजी ने उसे खंडित कर दिया और उसका वध हो गया। रावण की शक्ति पूजा और हनुमानजी -:सभी योद्धाओं के मारे जाने पर रावण ने स्वयँ युद्ध मे विजय के लिये यज्ञ आरम्भ किया। यज्ञ आरम्भ हो गया,हनुमानजी ने ब्राह्मण का रूप बनाकर सभी यज्ञ में सम्मिलित ब्राह्मणों की निःस्वार्थ बहुत सेवा की। जब उन्होंने प्रसन्न होकर वरदान माँगने को कहा तो उन्होंने मनाकर दिया। उनके बहुत कहने पर उन्होंने बार बार किये जाने वाले मन्त्र में भूतार्तिहारिणि के स्थान पर बस एक अक्षर 'ह 'की जगह ' क' का परिवर्तन माँग लिया।उसके कारण मन्त्र अर्थ से अनर्थकारी में बदल गया। वह मन्त्र था जय त्वं देवि चामुण्डे, जय भूतार्तिहारिणि। जय सर्वगते देवि कालरात्रि नमोsस्तुते ।। इससे भूतार्तिहारिणि अर्थ पीड़ा हरने वाली से भूतार्तिकारिणि होने पर पीड़ित करने वाली में बदल गया।
यहाँ हनुमानजी ने बड़ी चतुराई से ध्वनि विज्ञान का प्रयोग कर युद्ध का परिणाम बदल दिया। इस समय घर घर हवन किये जाते है,। सबके लिये है माता की कृपा साधारण जनमानस भी कामनाओं की पूर्ति सिद्धि और मोक्ष की प्राप्ति के लिए माता की प्रसन्नता को उनकी उपासना करता है। सप्तशती के पाठ, दिव्य औषधियों के हवन कर दसवें दिन हवन,कन्या पूजन के बाद देवी की विदाई करता है। ताकि मातारानी की अनवरत कृपा बनी रहे।

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