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दूध का दाम - मुंशी प्रेमचंद

07:00 PM Apr 26, 2024 IST | Reena Yadav
दूध का दाम   मुंशी प्रेमचंद
doodh ka daam by munshi premchand
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अब बड़े-बड़े शहरों में दाइयाँ, नर्सें और लेडी डाक्टर, सभी पैदा हो गयी हैं; लेकिन देहातों में जच्चेखानों पर अभी तक भंगिनों का ही प्रभुत्व है और निकट भविष्य में इसमें कोई तब्दीली होने की आशा नहीं। बाबू महेशनाथ अपने गाँव के जमींदार थे, शिक्षित थे और जच्चेखानों में सुधार की आवश्यकता को मानते थे, लेकिन इसमें जो बाधाएँ थीं, उन पर कैसे विजय पाते ? कोई नर्स देहात में जाने पर राजी न हुई और बहुत कहने-सुनने से राजी भी हुई, तो इतनी लम्बी-चौड़ी फीस माँगी कि बाबू साहब को सिर झुकाकर चले आने के सिवा और कुछ न सूझा। लेडी डाक्टर के पास जाने की उन्हें हिम्मत न पड़ी। उसकी फीस पूरी करने के लिए तो शायद बाबू साहब को अपनी आधी जायदाद बेचनी पड़ती; इसलिए जब तीन कन्याओं के बाद वह चौथा लड़का पैदा हुआ, तो फिर वही गूदड़ था और वही गूदड़ की बहू। बच्चे अक्सर रात ही को पैदा होते हैं। एक दिन आधी रात को चपरासी ने गूदड़ के द्वार पर ऐसी हाँक लगायी कि पास-पड़ोस में भी जाग पड़ गयी। लड़की न थी कि मरी आवाज से पुकारता।

गूदड़ के घर में इस शुभ अवसर के लिए महीनों से तैयारी हो रही थी । भय था तो यही कि फिर बेटी न हो जाए, नहीं तो वही बँधा हुआ एक रुपया और एक साड़ी मिलकर रह जाएगी । इस विषय में स्त्री-पुरुष में कितनी ही बार झगड़ा हो चुका था, शर्त लग चुकी थी । स्त्री कहती थी-अगर अबकी बेटा न हो तो मुँह न दिखाऊँ; हाँ-हाँ, मुँह न दिखाऊँ, सारे लच्छन बेटे के हैं और गूदड़ कहता था-देख लेना, बेटी होगी । बेटा निकले तो मूँछें मुड़ा लूँ, हाँ-हाँ, मूँछें मुंडा लूँ ।

भूँगी बोली-अब मूँछ मुंडा ले । कहती थी, बेटा होगा । सुनता ही न था । अपनी ही रट लगाए जाता था । मैं आज तेरी मूँछें मूँडूँगी लूँ,खूंटी तक तो रखूँगी ही नहीं ।

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गूदड़ ने कहा-अच्छा मूंड़ लेना भलीमानस । मूँछें क्या फिर निकलेंगी ही नहीं? तीसरे दिन फिर ज्यों-कीं-त्यों होंगी मगर जो कुछ मिलेगा उसमें से आधा रख लूँगा कहे देता हूँ ।

भूँगी ने अँगूठा दिखाया और अपने तीन महीने के बालक को फूहड़ के सुपुर्द कर सिपाही के साथ चल खड़ी हुई ।

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गूदड़ ने पुकारा-अरी! सुन तो कहाँ भागी जाती है? मुझे भी बधाई बजाने जाना पड़ेगा । इसे कौन संभालेगा?

भूंगी ने दूर ही से कहा-इसे वहीं धरती पर सुला देना । मैं आके दूध पिला जाऊँगी ।

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महेशनाथ के यहाँ अब भूंगी की खूब खातिरदारियाँ होने लगीं । सवेरे हरीरा मिलता, दोपहर को पूरियाँ और हलवा, तीसरे पहर को फिर और सत को फिर । गूदड़ को भी भरपूर परोसा मिलता था । भूँगी अपने बच्चे को दिन-रात में एक-दो बार से ज्यादा दूध न पिला सकती थी । उसके लिए ऊपर के दूध का प्रबंध था । भूँगी का दूध बाबूसाहब का भाग्यवान बालक पीता था और यह सिलसिला बारहवें दिन भी बंद न हुआ । मालकिन मोटी-ताजी देवी थी; पर अब की कुछ ऐसा संयोग कि उन्हें दूध हुआ ही नहीं । दूंगी दाई भी थी और दूध-पिलाई भी ।

मालकिन कहतीं-भूँगी, हमारे बच्चे को पाल दे फिर जब तक तू जिए, बैठी खाती रहना । पाँच बीघे माफी दिलवा दूँगी । नाती-पोते तक चैन करेंगे ।

और भूँगी का लाडला ऊपर का दूध हजम न कर पाता और बार-बार उलटी करता और दिन-दिन दुबला होता जाता था ।

भूँगी कहती-बहूजी, मुंडन में चूड़े लूँगी, कहे देती हूँ।

बहूजी उत्तर देती-हाँ-हाँ, लेना भाई धमकाती क्यों है? चाँदी के लेगी या सोने के?

‘वाह बहूजी । चाँदी के पहन के किसे मुँह दिखाऊंगी और किसकी हँसी होगी?'

‘अच्छा सोने के लेना भाई, कह तो दिया ।'

‘और ब्याह में कंठा लूंगी और चौधरी (गूदड़) के लिए हाथों के तोड़े ।'

‘वह भी लेना, भगवान वह दिन तो दिखावे ।'

घर में मालकिन के बाद भूँगी का राज्य था । महरियाँ, महाराजिन, नौकर-चाकर सब उसका रोब मानते थे । यहाँ तक कि खुद बहूजी भी उससे दब जाती थीं । एक बार तो उसने महेशनाथ को भी डाँटा था । वह हँसकर टाल गए । बात चली थी भंगियों की और महेशनाथ ने कहा था-दुनिया में और चाहे जो कुछ हो जाए, भंगी, भंगी ही रहेंगे । इन्हें आदमी बनाना कठिन है ।

इस पर भूंगी ने कहा था-मालिक, भंगी तो बड़ों-बड़ों को आदमी बनाते हैं, उन्हें कोई क्या आदमी बनाए ।

यह गुस्ताखी करके किसी दूसरे अवसर पर भला भूंगी के सिर के बाल बच सकते थे? लेकिन आज बाबूसाहब ठठाकर हंसे और बोले-भूंगी बात बड़े पते की कहती है ।

भूंगी का शासनकाल सालभर से आगे न चल सका । देवताओं ने बालक के भंगिन का दूध पीने पर आपत्ति की । मोटेराम शास्त्री तो प्रायश्चित का प्रस्ताव कर बैठे । दूध तो छुड़ा दिया गया; लेकिन प्रायश्चित की बात हँसी में उड़ गई । महेशनाथ ने फटकारकर कहा-प्रायश्चित की खूब कही, शासत्रीजी, कल तक उसी भंगिन का खून पीकर पला, अब उसमें छूत घुस गई । वाह रे आपका धर्म ।

शास्त्रीजी शिखा फटकारकर बोले-यह सत्य है, वह कल तक भंगिन का रक्त पीकर पला । मांस खाकर पला, यह भी सत्य है; लेकिन कल की बात कल थी, आज की बात आज । जगन्नाथपुरी में छूत-अछूत सब एक पंगत में खाते हैं । पर यहाँ तो नहीं खा सकते । बीमारी में तो हम भी कपड़े पहने खा लेते हैं । खिचड़ी तक खा लेते हैं, बाबूजी; लेकिन अच्छे हो जाने पर तो नेम का पालन करना ही पड़ता है । आपद्धर्म की बात न्यारी है ।

‘तो इसका यह अर्थ है कि धर्म बदलता रहता है-कभी कुछ, कभी कुछ?'

‘और क्या । राजा का धर्म अलग, प्रजा का धर्म अलग, अमीर का धर्म अलग, गरीब का धर्म अलग, राजे-महाराजे, जो चाहें खाएं, जिसके साथ चाहें खाएं, जिसके साथ चाहें शादी-ब्याह करें, उनके लिए कोई बंधन नहीं । समर्थ पुरुष हैं । बंधन तो मध्यवालों के लिए है।'

प्रायश्चित तो न हुआ; लेकिन भूँगी को गद्दी से उतरना पड़ा । हाँ, दान-दक्षिणा इतनी मिली कि वह अकेले ले न जा सकी और सोने के चूड़े भी मिले । एक की जगह दो नई, सुंदर साड़ियाँ-मामूली नहीं जैसी लड़कियों की बार मिली थीं ।

इसी साल प्लेग ने जोर बाँधा और गूदड़ चपेट में आ गया । भूँगी अकेली रह गई; पर गृहस्थी ज्यों-की-त्यों चलती रही । पाँच साल बीत गए और उसका बालक मंगल, दुर्बल और सदा रोगी रहने पर भी दौड़ने लगा । सुरेश के सामने पिद्दी-सा लगता था ।

एक दिन भूँगी महेशनाथ के घर का परनाला साफ कर रही थी । महीनों से गलीज जमा हो रहा था । आँगन में पानी भरा रहने लगा । परनाले में एक लंबा मोटा बाँस डालकर जोर से हिला रही थी । पूरा दाहिना हाथ परनाले के अंदर था कि एकाएक उसने चिल्लाकर हाथ बाहर निकाल लिया और उसी वक्त एक काला साँप परनाले से निकलकर भागा । लोगों ने दौड़कर उसे मार तो डाला; लेकिन भूँगी को बचा न सके । लोग समझे पानी का साँप है, विषैला न होगा, इसलिए पहले कुछ गफ़लत की गई । जब विष देह में फैल गया और लहरें आने लगीं तब पता चला कि वह पानी का साँप नहीं, गेहूँवन था ।

मंगल अब अनाथ था । दिनभर महेशबाबू के द्वार पर मंडराया करता । घर में जूठन इतना बचता था कि ऐसे-ऐसे दस-पाँच बालक पल सकते थे । खाने की कोई कमी न थी । हाँ उसे तब बुरा जरूर लगता था, जब मिट्टी के कसोरों में उसे ऊपर से खाना दिया जाता था । सब लोग अच्छे-अच्छे बरतनों में खाते हैं, उसके लिए मिट्टी के कसोरे!

यों उसे इस भेदभाव का बिलकुल ज्ञान न होता था, लेकिन गाँव के लड़के चिढ़ा-चिढ़ाकर उसका अपमान करते रहते थे । कोई उसे अपने साथ खेलाता भी न था । यहाँ तक कि जिस टाट पर वह सोता था, वह भी अछूत था । मकान के सामने एक नीम का पेड़ था । इसी के नीचे मंगल का डेरा था । एक फटा-सा टाट का टुकड़ा, दो मिट्टी के कसोरे और एक धोती, जो सुरेश बाबू की उतारन थी । जाड़ा गरमी बरसात हरेक मौसम में वह जगह एक-सी आरामदेह थी और भाग्य का बली मंगल झुलसाती हुई लू, गलते हुए जाड़े और मूसलाधार वर्षा में जिंदा और पहले से कहीं स्वस्थ था । बस, उसका कोई अपना था तो गाँव का एक कुत्ता, जो अपने सहकर्मियों के जुल्म से दुःख. होकर मंगल की शरण आ पड़ा था । दोनों एक ही खाना खाते, एक ही टाट पर सोते, तबीयत भी दोनों की एक-सी थी और दोनों एक-दूसरे के स्वभाव को जान गए थे । कभी आपस में झगड़ा न होता ।

गाँव के धर्मात्मा लोग बाबूसाहब की इस उदारता पर आश्चर्य करते । ठीक द्वार के सामने पचास हाथ भी न होगा-मंगल का पड़ा रहना उन्हें सोलहों आने धर्म-विरुद्ध जान पड़ता । छिः! यही हाल रहा तो थोड़े ही दिनों में धर्म का अंत ही समझो । भंगी को भी भगवान ने ही रचा है, यह हम भी जानते हैं । उसके साथ हमें किसी तरह का अन्याय न करना चाहिए, यह किसे नहीं मालूम? भगवान का तो नाम ही पतित-पावन है; लेकिन समाज की मर्यादा भी कोई वस्तु है । उस द्वार पर जाते हुए संकोच होता है । गाँव के मालिक हैं, जाना तो पड़ता है; लेकिन बस यही समझ लो कि घृणा होती है ।

मंगल और टामी में गहरी बनती थी । मंगल कहता-देखो भाई टामी, जरा और खिसककर सोओ । आखिर मैं कहाँ लेटूँ? सारा टाट तो तुमने घेर लिया ।

टामी कूँ-कूँ करता, दुम हिलाता और खिसक जाने के बदले और ऊपर चढ़ आता एवं मंगल का मुँह चाटने लगता ।

शाम को वह एक बार रोज अपना घर देखने और थोड़ी देर सोने जाता । पहले साल फूस का छप्पर गिर पड़ा, दूसरे साल एक दीवार गिरी और अब केवल आधी-आधी दीवारें खड़ी थीं । यही उसे स्नेह की संपत्ति मिली थी । वही स्मृति, वही आकर्षण, वही प्यार उसे एक बार उस उजाड़ में खींच ले जाती थी और टामी सदैव उसके साथ होता था । मंगल दीवार पर बैठ जाता और जीवन के बीते और आनेवाले स्वप्न देखने लगता । टामी बार-बार उछलकर उसकी गोद में बैठने की असफल चेष्टा करता ।

एक दिन कुछ लड़के खेल रहे थे । मंगल भी वहाँ जाकर दूर खड़ा हो गया । या तो सुरेश को उस पर दया आई या खेलनेवालों की जोड़ी पूरी न पड़ती थी, कह नहीं सकते । जो कुछ भी हो, फैसला हुआ कि आज मंगल को भी खेल में शरीक कर लिया लाए । यहाँ कौन देखने आता है । क्यों । मंगल खेलेगा?

मंगल बोला-ना भैया, कहीं मालिक देख लें, तो मेरी चमड़ी उधेड़ दी जाएगी । तुम्हें क्या तुम तो अलग हो जाओगे ।

सुरेश ने कहा-तो यहाँ कौन आता है देखने बे? चल हम लोग सवार-सवार खेलेंगे । तू घोड़ा बनेगा हम लोग तेरे ऊपर सवारी करके दौड़ाएंगे ।

मंगल ने शंका प्रकट की-मैं बराबर घोड़ा ही बना रहूँगा कि सवारी भी करूँगा? यह बता दो । ।

यह प्रश्न टेढ़ा था । किसी ने इस पर विचार न किया था । सुरेश ने एक क्षण विचार करके कहा, ‘तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठाएगा, सोच? आखिर तू भंगी है कि नहीं?

मंगल भी कड़ा हो । बोला-मैं कब कहता हूँ कि मैं भंगी नहीं हूँ, लेकिन तुम्हें मेरी ही माँ ने अपना दूध पिलाया पाला है । मुझे भी सवारी करने दो, नहीं तो मैं घोड़ा न बनूँगा । ।

सुरेश ने डाँटकर कहा-तुझे घोड़ा बनना पड़ेगा और मंगल को पकड़ने दौड़ा । मंगल भागा । सुरेश ने दौड़ाया । मंगल ने कदम और तेज किया । सुरेश ने भी जोर लगाया; मगर वह बहुत खा-खाकर धुल-धुला हो गया था और दौड़ने में उसकी साँस फूलने लगती थी । आखिर उसने रुककर कहा-आकर घोड़ा बनो मंगल न तो कभी पा जाऊँगा तो बुरी तरह पीटूँगा ।

‘तुम्हें भी घोड़ा बनना पड़ेगा ।'

‘अच्छा हम भी? बन जाएँगे ।'

‘तुम पीछे से निकल जाओगे । पहले तुम घोड़ा बन जाओ मैं सवारी कर लूँ, फिर मैं बनूँगा ।'

सुरेश ने सचमुच चकमा देना चाहा था । मंगल की बात साथियों से बोला-देखो इसकी बदमाशी, भंगी है न!

तीनों ने मंगल को घेर लिया और जबरदस्ती घोड़ा बना । सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया और टिकटिक करके बोला-चल, घोड़े चल ।

मंगल कुछ देर तक तो चला, लेकिन उस बोझ से उसकी कमर टूटी जाती थी । उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान के नीचे से सरक गया सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे ।

माँ से सुना, सुरेश कहीं रो रहा है । सुरेश कहीं रोए, तो तेज कानों में जरूर भनक पड़ जाती थी और उसका रोना भी बिलकुल निराला होता था, जैसे छोटी लाइन के इंजन की आवाज ।!

महरी से बोली-देख तो, सुरेश कहीं रो रहा है, पूछ तो किसने मारा है?

इतने में सुरेश खुद आँख मलता हुआ आया । उसे जब रोने का अवसर मिलता था, तो माँ के पास फरियाद लेकर जरूर आता था । माँ मिठाई या मेवे देकर आँसू पोंछ देती थी । आप थे तो आठ साल के, मगर थे बिलकुल गावदी । हद से ज्यादा प्यार ने उसकी बुद्धि के साथ वही किया था, जो हद से ज्यादा भोजन ने उसकी देह के साथ ।

माँ ने पूछा-क्यों रोता है सुरेश किसने मारा? ।

सुरेश ने रोकर कहा-मंगल ने छू दिया । ।

माँ को विश्वास न आया । मंगल इतना निरीह था कि उससे किसी शरारत की शंका न होती थी; लेकिन जब सुरेश कसमें खाने लगा तो विश्वास करना स्वाभाविक था । मंगल को बुलाकर डाँटा-क्यों रे मंगल, अब तुझे बदमाशी सूझने लगी । मैंने तुझसे कहा था, सुरेश को कभी मत छूना, याद कि नहीं, बोल ।

मंगल ने दबी आवाज में कहा-याद क्यों नहीं है ।

‘तो फिर तूने उसे क्यों छुआ?'

‘मैंने नहीं छुआ ।'

‘तूने नहीं छुआ, तो वह रोता क्यों था?'

‘गिर पड़े इससे रोने लगे ।'

चोरी और सीनाजोरी! देवीजी दाँत पीसकर रह गईं । मारती, तो उसी दम स्नान करना पड़ता । छड़ी तो हाथ में लेना ही पड़ती और छूत का विद्युत-प्रवाह इस छड़ी के उनकी देह में पैवस्त हो जाता, इसीलिए जहाँ तक गालियाँ दे सकीं, दीं और हुक्म कि अभी-अभी यहाँ से निकल जा । फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आई, तो खून ही पी जाऊँगी । मुफ्त की रोटियाँ खा-खाकर शरारत सूझती है, आदि ।

मंगल में गैरत तो क्या थी, हाँ, डर था । चुपके से टाट का टुकड़ा बगल में दबाया, धोती कंधे पर रखी और रोता हुआ वहाँ से चल पड़ा । क्या हर्ज है? इस तरह जीने फायदा ही क्या? गाँव में उसके और कहाँ ठिकाना था?

भंगी को कौन पनाह देता? उसी खंडहर की ओर चला, जहाँ भले दिनों स्मृतियाँ उसके आँसू पोंछ सकती थी और खूब फूट-फूटकर रोया ।

उसी क्षण टामी भी उसे ढूंढ़ता हुआ पहुँचा और दोनों फिर अपनी व्यथा भूल गए ।

लेकिन ज्यों-ज्यों दिन का प्रकाश क्षीण होता मंगल की ग्लानि भी क्षीण होती थी । बचपन को बेचैन करने वाली भूख देह का रक्त पी-पीकर और भी बलवान होती थी । कहाँ अब तक सुरेश की जूठी मिठाइयाँ मिल गई होती । यहाँ क्या धूल फाँकें?

उसने टामी से सलाह की-खाओगे क्या कमी? मैं तो भूखा लेटा रहूँगा ।

टामी ने हूं-हूं करके शायद कहा-इस तरह का अपमान तो जिंदगी-भर सहना है । यों हिम्मत हारोगे, तो कैसे काम चलेगा? मुझे देखो न, कभी किसी ने डंडा मारा, चिल्ला उठा । फिर जरा देर बाद दुम हिलाता हुआ उसके पास जा पहुँचा । हम-तुम दोनों इसीलिए बने हैं भाई ।

मंगल ने कहा-तो तुम जाओ, जो कुछ मिले खा लो, मेरी परवाह न करो ।

टामी ने अपनी भाषा में कहा-अकेला नहीं जाता, तुम्हें साथ लेकर चलूँगा ।

‘मैं नहीं जाता ।'

‘भूखा मर जाओगे ।'

‘तो क्या तुम जीते रहोगे?'

‘मेरा कौन बैठा है, जो रोएगा?'

एक क्षण के बाद भूख ने एक दूसरी युक्ति सोच निकाली ।

‘मालकिन हमें खोज रही होंगी, क्या टामी

‘और क्या? बाबूजी और सुरेश खा चुके होंगे । कहार उनकी थाली से जूठन निकालकर हमें पुकार रहा होगा ।'

‘बाबूजी और सुरेश दोनों की थालियों में घी खूब रहता है और वह मीठी-मीठी चीज-हाँ मलाई ।'

‘सब-का-सब घूरे पर डाल दिया जाएगा ।'

‘देखें हमें खोजने कोई आता है?'

‘खोजने कौन आएगा, क्या कोई पुरोहित हो? एक बार मंगल-मंगल होगा और बस, थाली परनाले में उड़ेल दी जाएगी ।'

‘अच्छा, चलो । मगर मैं छिपा रहूँगा, अगर किसी ने मेरा नाम लेकर न पुकारा तो मैं लौट आऊँगा । यह समझ लो ।'

दोनों वहाँ से निकले और आकर महेशनाथ के द्वार पर अँधेरे में दुबककर खड़े हो गए, मगर टामी को सब्र कहाँ? वह धीरे से अंदर घुस गया । देखा, महेशनाथ और सुरेश थाली पर बैठ गए हैं । मंगल बरोठे में धीरे से बैठ गया, मगर डर रहा था कि कोई डंडा न मार दे । एक नौकर ने कहा-आज मंगल नहीं दिखा । मालकिन ने डाँटा था, इससे भागा है शायद ।

दूसरे ने जवाब दिया-अच्छा हुआ, निकाल दिया गया । सबेरे-सबेरे भंगी का मुँह देखना पड़ता था ।

मंगल और अँधेरे में खिसक गया । उसकी आशा गहरे जल में डूब गई ।

महेशनाथ थाली से उठ गए । नौकर हाथ बुला रहा था । अब हुक्का पीएंगे और सोएंगे । सुरेश अपनी माँ के पास बैठा कोई कहानी सुनता-सुनता सो जाएगा । गरीब मंगल की किसे चिंता? इतनी देर हो गई, किसी ने भूल से भी न पुकारा।

कुछ देर तक वह निराश-सा खड़ा रहा, फिर एक लंबी साँस खींचकर जाना ही चाहता था कि कहार पत्तल में थाली का लूठन ले जाता नजर आया । मंगल अँधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गया । अब मन को कैसे रोके?

कहार ने कहा-अरे, तू यहाँ था? हमने समझा कि कहीं चला गया । ले, खा ले, मैं फेंकने जा रहा था ।

मंगल ने दीनता से कहा-मैं तो कब से यहाँ खड़ा था!

‘तो बोला क्यों नहीं?'

‘मारे डर के ।'

‘अच्छा ले खा ले ।'

उसने पत्तल को ऊपर उठाकर मंगल के फैले हुए हाथों में डाल दिया । मंगल ने उसकी ओर ऐसी आंखों से देखा, जिसमें दीन कृतज्ञता भरी हुई थी । टामी भी अंदर से निकल आया था । दोनों वहीं नीम के नीचे पत्तल में खाने लगे ।

मंगल ने एक हाथ से टामी का सिर सहलाकर कहा-देखा, पेट की आग ऐसी होती है । यह लात की मारी हुई रोटियाँ भी न मिलतीं, तो क्या करते?

टामी ने दुम हिला दी ।

‘सुरेश को अम्मा ने पाला था ।'

‘लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है ।'

टामी ने फिर दुम हिलाई ।


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