पापा ने मुझे माफ कर दिया-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Father and Daughter Story: मैं यमुना विहार में खड़ी मेट्रो का इंतजार कर रही थी ,तभी सामने से मेट्रो आती दिखाई दी।
जब मेट्रो आती है तो भीड़ वैसे ही आ जाती है।
भीड़ के साथ मैं भी अंदर घुस गई बगैर सोचे समझे।
आज मेरी गाड़ी खराब हो गई !शांतनु के पास समय नहीं था।
वह किसी सर्जरी में व्यस्त थे तो मैं समय ना खराब कर सीधे मेट्रो से सफर करने की सोची थी।
अंदर घुसने के दो सेकंड में मेट्रो अपने अगले स्टेशन के लिए निकल चुकी थी।
कई स्टेशन आते गए भीड़ छंटती गई। अचानक मेरी नजर सामने पड़ी।
मेरी मां और बड़ी दी रिचा दोनों ही बैठे हुए थे। संभवत उन्होंने मुझे देख लिया था पर मैं खड़ी थी मेरी नजर उनपर नहीं पड़ी थी।
उन्होंने मुझे देखते ही नजर फेर लिया।
मैं आत्मग्लानि से भर उठी।
मैं तेजी से उनके पास पहुंची और मां से गले लग कर रोने लगी।
मां के दिल में ममता भरी पड़ी थी। उनकी आंखें छलक उठी।
"कैसी है माँ…!,"
" बस ठीक हैं।"मां की आँखें शून्य में थीं।"
रिचा दी.. आप कैसी हैं.?"
कुछ देर तक दोनों चुप रहे।
फिर रिचा दीदी ने कहा
" केतकी पापा अस्पताल में हैं?"
" अरे क्या हुआ… कब… कैसे…???
"मेरे पास प्रश्नों का हुजूम था लेकिन उनके पास समय नहीं था।
अगले स्टेशन में उन दोनों उतरना था।
रिचा दी ने अपना नंबर देते हुए कहा
"केतकी, पापा बहुत बीमार हैं… पता नहीं तुम से मिलना चाहेंगे भी या नहीं… यह लो मेरा फोन नंबर और फोन कर लेना …
पर याद रखना आ जाना जरूर! चाहे पापा नाराज हो या नहीं!"
मेरी आंखें भर उठी।
मैंने रिचा दी से नंबर ले लिया और कातर निगाहों से माँ की तरफ देखा।
वे दोनों अगले स्टेशन पर उतर गए।
दिल्ली जैसा शहर अनजान लोगों के लिए कितना डरावना है…!
एक अनजाना सा डर मेरे अंदर भर गया!
क्या मैं इतनी पराई हो चुकी हूँ कि कुछ बताना भी गवारा नहीं समझा !
मैं और शांतनु दोनों यहां एक अच्छे अस्पताल में काम करते हैं।
हमारी दसियों जान पहचान है पर पापा तो पापा मां और दीदी ने भी मुझे बताना जरूरी नहीं समझा !
मैंने क्या इतनी बड़ी गलती कर दी कि कभी माफ नहीं किया जा सकता है?
मेट्रो अपनी रफ्तार में आगे बढ़ती जा रही थी।
जैसे ही मेरा गंतव्य आया मैं थके कदमों से उतर अपने घर की तरफ चल दी।
आज वही घर जिसे मैंने अपने हाथों से सजाया था ,वह मुझे डरा रहा था।
वह प्यार जिस के लिए मैंने घर छोड़ा था,उसका सामना करने के लिए मैं डर रही थी !
जैसे ही मैं घर के अंदर आई घर में सन्नाटा पसरा हुआ था।
"रुपा…जरा एक कप कॉफी लाना…!"
"ये लीजिए दीदी कॉफी।"
रुपा से कॉफी लेकर मैंने उससे कहा
"मुझे थोड़ी देर डिस्टर्ब मत करना।"यह कहकर मैंने लाइट बंद कर दी और पुरानी यादों का मंथन करने लगी।
यह तब की बात है जब पटना इन एम्स मेडिकल कॉलेज में मेरा चयन हो चुका था।
मेरे सिलेक्शन से सबसे ज्यादा घर में मेरे पापा ही खुश थे ।उनके बचपन का सपना पूरा हो गया था। वह हमेशा कहते थे .."मैं अपनी बिटिया को डॉक्टर बनाऊंगा!"
उनके सपने तब कुचले गए जब मैंने अपने जीवनसाथी के रूप में शांतनु को पसंद कर लिया था।
शांतनु मेरे साथ मेरे मेडिकल कॉलेज के विद्यार्थी थे।
मुझ से 2 साल आगे।
एक तो हमारी जाति समान नहीं थी,उनके पैर में पोलियो का डिफेक्ट था, जिसके कारण वह एक पैर से लंगड़ा कर चलते थे।
मेरे पापा को यह बिल्कुल भी गवारा नहीं था कि उनकी डॉक्टर बेटी किसी भी तरह से कोई कंप्रोमाइज करे पर मुझे शांतनु में कोई कमी नजर नहीं आती थी।
जब मेरी मेडिकल की पढ़ाई पूरी हो गई तब पापा ने अपने पसंद से मेरी शादी तय कर दिया था। मैं गुस्से में हमेशा के लिए घर छोड़कर ही निकल आई थी। पापा ने भी उतने ही गुस्से में कहा था
" मेरी मर्जी से नहीं चलोगी तो मेरे घर के दरवाजे तुम्हारे लिए हमेशा के लिए बंद हैं!"
मैं भी अपनी अकड़ में घर से निकल गई।शांतनु अपने दोनों बाहें फैलाकर मेरा इंतजार कर रहे थे।
हम दोनों ने मंदिर में बहुत ही सादगी से विवाह कर लिया और अपने घर गृहस्थी की बुनियाद रखी ।
शांतनु एक बड़े अस्पताल में कार्यरत थे इसलिए मुझे नौकरी में कोई दिक्कत नहीं हुई। उन्हीं के सिफारिश पर उनके अस्पताल में मुझे अच्छी तन्ख्वाह में रख लिया।
शादी के दो साल में मैंने दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया।
इन सब में शांतनु ही अकेले मेरे साथ खड़े रहे।
घर गृहस्थी की गाड़ी चलने लगी। दो बच्चों को पालना ,घर अस्पताल के चक्कर में जब भी कभी घर की याद आती तो घर के दरवाजे बंद मिलते थे ।
गलती से कभी कबार रिचा दी फोन कर लिया करती थी लेकिन धीरे-धीरे वह भी कम होता गया।
पता ही नहीं चला इतना लंबा समय कैसे बीत गया ।
मैं अपराध बोध से भर उठी।
सामने रखी हुई कॉफी ठंडी हो चुकी थी ।अचानक ही मैंने कंधे पर किसी का स्पर्श महसूस किया।
पीछे शांतनु थे ।
"इतने अंधेरे में बैठकर क्या कर रही हो ?किस सोच में गुम हो?"
लाइट ऑन किया। मेरा उदास चेहरा देखकर डर गए।
उन्होंने मेरा हाथ अपने हाथों में लेकर पूछा
" क्या बात है? कुछ बताओगे तो मैं कुछ करुंगा ना!"
" शांतनु, पापा दिल्ली में हैं और किसी अस्पताल में एडमिट हैं!"
"क्या… !!!!" शांतनु हैरान हो गए।
…और तुम यहां बैठी हो? तुम्हें इस समय पापा के पास होना चाहिए था।"
"शांतनु, मैंने सिर झुका लिया.. मुझे पापा को फेस करने की हिम्मत नहीं है!"
" क्या बात कर रही हो? किस बात पर शर्मिंदा हो…! हम दोनों हस्बैंड वाइफ है। कोई पाप नहीं किया हमने।
तुम्हें अपने पसंद से शादी की है इस पर तुम्हें गर्व होना चाहिए ना कि शर्म आनी चाहिए।
चलो अभी चलो !"
"पर… अभी आप थक कर अस्पताल से आए हो …इतनी बड़ी सर्जरी कर!"
" कोई बात नहीं!, हम कहीं दूसरी जगह नहीं जा रहे हैं। पापा के पास जा रहे हैं।
कोई नंबर है तुम्हारे पास?"
शांतनु ने मुझे खींचते हुए गाड़ी तक लेकर आए।
गाड़ी स्टार्ट करते हुए उन्होंने कहा
" जल्दी फोन करो और पूछो किस अस्पताल में पापा एडमिट है?"
मैंने गाड़ी में बैठते ही रिचा दी को फोन कर दिया ।
हम आधे घंटे में अस्पताल पहुंच गए।
शांतनु एक बड़े डॉक्टर थे ,उनका नाम था। उनको देखते ही सभी डॉक्टर उनके आसपास जमा हो गए।
पापा बीमार थे। उनके अपेंडिक्स का ऑपरेशन होना था।
उन्हें पीलिया हो गया था और अपेंडिक्स सूज गया था।
लिवर में स्टोन भी थे।
कई तरह की बीमारियां एक साथ हो गई थीं। मामला सीरियस था।
सारी बातें सुनकर मैं वार्ड की तरफ भागी।
पापा निराश आंखों से शून्य को घूर रहे थे।
" पापा…पापा… कहते हुए मैं वार्ड में घुस गई।
मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे।
पापा की आंखें मुझे देखते ही बहने लगी।
"पापा मुझे माफ कर दीजिए… मैंने बहुत बड़ी गलती की है…!"
कापते हुए होठों से पापा ने कहा
"नहीं बेटा, तुमने कोई गलती नहीं की। तुमने बिल्कुल सही किया।"
पीछे पीछे शांतनु अंदर आ रहे थे।
उन्होंने भी हाथ जोड़कर कहा
"पापा हम लोगों को माफ कर दीजिए !हम दोनों अपनी जवानी के रौ में बह गए थे ।
पापा ने दोनों हाथों से आशीर्वाद देते हुए हाथ उठाया पर मुंह से बोल नहीं पाए।
उनकी आंखें बह रहीं थीं और होठ थरथरा रहे थे।
कमरे में सिर्फ सिसकियां गूंज रही थीं.. लेकिन मुझे तसल्ली थी कि ..पापा ने मुझे माफ कर दिया!