शास्त्रों में निहित भोजन-विज्ञान: Food astrology
Food Astrology: हमारे ग्रंथ व शास्त्र न केवल हमारी सभ्यता व संस्कृति के उन्नत स्वरूप को दर्शाते हैं बल्कि उनमें बहुत सारी ऐसी बातें व निर्देश भी हैं जिनको अपना कर हम पूर्ण रूप से निरोगी जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
हमारे शास्त्रों में भोजन की पवित्रता पर विशेष विचार किया गया है। इस संबंध में सबसे पहले स्थान का विचार करना चाहिए, अर्थात् चाहे जिस स्थान में बैठकर या खड़े-खड़े भोजन करना ठीक नहीं, क्योंकि अशुचि स्थान में पूजा करने से कोई फल नहीं होता, भगवान असंतुष्ट होते हैं। भोजन का
स्थान पवित्र, एकान्त तथा जल आदि से शुद्ध किया हुआ होना चाहिए। दूसरे स्वयं पवित्र होकर भोजन करना चाहिए, क्योंकि अपवित्र शरीर और अशुचि मन से भगवद्ïपूजा करने से कोई फल नहीं होता। तीसरे जिस वस्तु से पूजा करनी हो, वह पवित्र और सात्विक होनी चाहिए, क्योंकि अशुद्ध और तामसिक वस्तुओं से भगवान की पूजा नहीं की जाती। उससे शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा का कलुषित होना संभव है। अन्तत: खाद्य द्रव्य शुद्ध और सात्विक होना आवश्यक है। चौथे पूजा की वस्तु जिसमें संग्रह की जाय, वह पात्र स्वच्छ और परिष्कृत होना चाहिए। वह किसी अपवित्र व्यक्ति अथवा जीव से स्पर्श किया हुआ नहीं होना चाहिए, क्योंकि पूजा के फूल, नैवेद्य आदि नीच जीव या पापियों से छुए जाने पर पूजा के योग्य नहीं रहते, इसी से पापी या नीच जीवों का अन्न ग्रहण करना निषिद्ध है। यही नहीं, उनका छुआ अन्न भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। इसी कारण हमारे प्राचीन ऋषियों ने आहार पर बहुत विचार करके आहार-संबंधी नाना प्रकार के आचारों का निर्णय किया है।
भोजन के विषय में भगवान मनु ने लिखा है- आयु चाहने वाले को पूर्वमुख और यश चाहनेवाले को दक्षिणमुख भोजन करना चाहिए।
पूर्व दिशा से प्राण और शक्ति का उदय होता है। प्राणस्वरूप सूर्यदेव पूर्व से ही उदित होते हैं, इस कारण पूर्वभिमुख होकर भोजन करने से आयु का बढ़ना स्वाभाविक है। इस विषय में पश्चिमी पंडितों ने भी अन्वेषण किया है।
पूर्व दिशा से प्राण और शक्ति का उदय होता है। प्राणस्वरूप सूर्यदेव पूर्व से ही उदित होते हैं, इस कारण पूर्वभिमुख होकर भोजन करने से आयु का बढ़ना स्वाभाविक है। इस विषय में पश्चिमी पंडितों ने भी अन्वेषण किया है।
डॉ. जार्ज का सिद्धांत है कि उत्तर की ओर मुंह करके खाने से वैद्युतिक प्रवाह नसों के द्वारा अधिक वेग तथा विस्तार के साथ चलता है, इसलिए वह इतना आयुर्वृद्धिकर नहीं है जितना कि पूर्वाभिमुख भोजन। इसी प्रकार यश देने वाले पितरों का संबंध दक्षिण दिशा के साथ रहने के कारण दक्षिणाभिमुख भोजन से यशोलाभ होता है। स्नान तथा पूजादि से शरीर और मन की पवित्रता बढ़ती है, इसलिए शास्त्रों में कहा गया है- नीरोग शरीर होने पर बिना स्नान किये खाने से मल-भोजन और बिना जप-पूजा किये खाने से पूय-शोणित भोजन का दोष होता है। इसलिए स्नान करने के बाद भोजन करना चाहिए। शास्त्रों में लिखा है- ‘दोनों हाथ, दोनों पांव और मुंह धोकर, पूर्वाभिमुख हो, मौन अवलम्बनकर भोजन करे। योगशास्त्र में मनुष्य के स्वाभाविक श्वास की गति बाहर अगुंल, किंतु भोजनकाल में बीस अगुंल बतायी गयी है। श्वास की गति अधिक होने पर आयु घटती और कम होने पर बढ़ती है। लोभ से भोजन करने में तथा हाथ-पांव न धोकर भोजन करने में श्वासगति बढ़ती है। इसी कारण भगवान भोग लगाकर प्रसादरूप में तथा हाथ-पांव धोकर खाने की विधि है। मनु ने कहा है भीगे-पैर भोजन करें, पंरतु शयन न करें। भीगे-पैर भोजन करने से आयु बढ़ती है और शयन करने से घटती है। मौन होकर भोजन करने को इसलिए कहा है कि भोजन करते समय बोलते रहने से लार कम उत्पन्न होगी, फलत: मुंह सूख जाने से बीच-बीच में पानी पीना पड़ेगा। लार कम उत्पन्न होने और मुंह सूखने के कारण पानी पीने से पाचन क्रिया में बाधा उत्पन्न होगी। महाभारत में लिखा है- ‘एकवस्त्रो न भुंजीत‘ केवल एक वस्त्र धारण करके भोजन न करें। भोजन करते समय एक उत्तरीय (दुपट्टा) ओढ़ लेना चाहिए, वह रेशमी हो तो अधिक अच्छा है। भोजन करते हुए शरीरयन्त्रकी जो क्रियाएं होती हैं, उनमें बाहरी वायु बाधा न पहुंचा सके, इसीलिए यह व्यवस्था है। रेशमी वस्त्र इस कारण अच्छा समझा गया है कि रेशम भीतरी शक्ति को सुरक्षित रखकर बाहरी शक्ति का उस पर परिणाम नहीं होने देता। इस प्रकार पवित्र भाव से भोजन करना चाहिए। स्नान करने के पश्चात् ही भोजन करना उचित है, क्योंकि भगवद्पूजा बिना स्नान किये नहीं की जाती और पूजा किये बिना भोजन करना निषिद्ध है। शरीर अस्वस्थ रहने पर गीले कपड़े से शरीर पोंछकर वस्त्र बदल दें और
भस्मस्नान अथवा मानसिक स्नान कर लें। मानसिक स्नान श्रीविष्णु-भगवान स्मरण करके ‘स्वर्ग से गंगा की धारा आयी और उसमें स्नानकर मैं पवित्र हुआ ,ऐसी दृढ़ भावना करने से होता है भस्मस्नान शिवमन्त्र से अग्निहोत्र की विभूति को अभिमन्त्रित कर देह में लगाने से होता है।
भोजन के पहले भोज्य पदार्थों का भगवान को नैवेद्य दिखाकर तब प्रसाद समझकर भोजन करें। देवता की दी हुई वस्तु उन्हें बिना समर्पण किये जो खाता है, वह चोर है, अत: भगवान को समर्पण करके ही अन्न ग्रहण करना चाहिए।
खाया हुआ अन्न तीन भाग में विभक्त हो जाता है- स्थूल असार अंश मल बनता है, मध्यम अंश से मांस बनता है और सूक्ष्म अंश से मन की पुष्टिï होती है। जिस प्रकार दही के मथने से उसका सूक्ष्म
अंश ऊपर आकर घृत बनता है, उसी प्रकार अन्न के सूक्ष्मांश से मन बनता है। मन अन्नमय ही है। आहारशुद्धि से सत्त्वशुद्धि, सत्त्वशुद्धि से ध्रुवा स्मृति और स्मृतिशुद्धि से सभी ग्रन्थियों का मोचन होता है। अत: सिद्ध हुआ कि अन्न के सात्त्विकादि गुणानुसार मन भी सात्त्विकादि भावापन्न होगा साधारणत: देखा जाता है कि अन्न न खाने से मन दुर्बल हो जाता है, चिन्तन-शक्ति नष्टï होने लगती है। अन्न खाने से मन सबल होता है तथा चिन्तन शक्ति बढ़ने लगती है। अत: यही अन्न यदि तामसिक होगा तो मन, बुद्धि, प्राण और शरीर तामसिक होंगे, जिससे ब्रह्मचर्य धारण और साधना आदि असम्भव हो जाएंगे। इसी तरह राजसिक अन्न से भी मन और बुद्धि चंचल होते हैं, अत: पवित्र और सात्त्विक अन्न ही ग्रहण करना चाहिए। खाद्याखाद्य के संबंध में पश्चिमी देशों में जिस प्रणाली से
विचार किया गया है, वह सर्वग्यदृष्टि पूर्ण नहीं है। उन्होंने केवल इतना ही विचार किया है, कि किस वस्तु में कौन-सा रासायनिक द्रव्य कितना है। कैल्शियम, प्रोटीन तथा विटामिन आदि जिसमें न्यून
हो वह अखाद्य और जिसमें अधिक हो वह खाद्य है- इतना ही मोटा सिद्धान्त उन्होंने बना लिया है। कौन-सी वस्तु किस ऋतु में, किस प्रकार के शरीर के लिए, किस प्रकार से सेवन की जाय, जिससे
शरीर और मन का स्वास्थ्य परिवर्धित हो, इसकी विधि पश्चिमी चिकित्साशास्त्र की पोथियों में नहीं मिलती। उन देशों में शीत अधिक है, अत: एक-सी ही वस्तुओं के बारहों मास सेवन करने से देशवासियों का काम बन जाता है, परंतु इस देश में छहों ऋतु एक-से ही बलवान हैं। ऋतुभेद से वात, पित्त और कफ की न्यूनाधिकता होने के कारण शारीरिक तथा मानसिक अवस्था में कितना परिवर्तन होता है, यह जानने का वे अब तक प्रयास नहीं करते। दूसरे, पश्चिमी देशों की यह निर्णयविधि बड़ी ही जटिल है। वहां के प्रसिद्ध विद्वान भी खाद्याखाद्य संबंध में अभी एकमत नहीं
हैं। तीसरे, उदर में जाकर इन सब खाद्य-द्रव्यों का किस प्रकार विश्लेषण होता है और उससे शरीर पोषणकारी कौन से गुण उत्पन्न होते हैं, साधारण रासायनिक विश्लेषण द्वारा उसका निरूपण नहीं हो सकता। चौथे, इस देश के खाद्य-द्रव्यों के साथ उस देश के खाद्य-द्रव्यों के गुणावगुण का निर्णय नहीं हो सकता। सबसे बढ़कर बात यह है कि खाद्य-द्रव्यों के साथ मन का क्या संबंध है, सो पश्चिमी लोग नहीं जानते। अत: हमारे देश के खाद्याखाद्य का विचार हमारी शास्त्रीय विधियों के अनुसार ही होना चाहिए। उसमें किसी खाद्य वस्तु में चाहे कितना ही विटामिन हो यदि उसके परिणाम द्वारा शरीर में या मन में विषय भाव, तमोगुण आदि बढ़ेंगे तो वह अवश्य ही वर्जित मानी जायेगी।
आज विज्ञान ने भी यह प्रमाणित कर दिखाया है कि न केवल हाथ के साथ हाथ का स्पर्श होने से रोग के बीज एक दूसरे में चले जाते हैं बल्कि स्पर्श से शारीरिक और मानसिक वृत्तियों में हेर-फेर भी हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य में एक प्रकार की विद्युत-शक्ति रहती है, जो मनुष्य की प्रकृति और चरित्र के भेद से प्रत्येक में विभिन्न जातीय होकर स्थित है। तामसिकों में तमोमयी, राजसिकों में रजोमयी और सात्त्विकों में सत्त्वमीय विद्युत विराजमान है। अन्तत: जिस वृत्ति के लोगों के साथ रहा जाय, जिस वृत्ति के लोगों का छुआ या दिया अन्न सेवन किया जाय, उसी प्रकार की वृत्ति सहवासियों अथवा अन्न ग्रहण करने वालों में संक्रमति होगी। भिन्न-भिन्न प्रकार की विद्युत का प्रकृति परिणाम एक दूसरे पर हुए बिना न रहेगा। अत: चाहे जिसका भी हो, छुआ या दिया हुआ अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि किसी से अन्न लेना भी हो तो सत्पात्र देखकर उससे लेना चाहिए, क्योंकि पापियों का अन्न ग्रहण करने से उसका पाप अपने में भी संक्रमित होगा। भोजन में स्पर्शदोष की तरह दृष्टिदोष के गुण का भी विचार आर्यशास्त्र में किया गया है। केवल आर्यशास्त्र में ही नहीं पश्चिमी विद्वानों ने भी स्पर्शदोष के साथ दृष्टिदोष के विषय में बहुत कुछ विचार किया है। प्रसिद्ध विज्ञानवित् फ्लामेरियन (Flammarion) साहब कहते हैं-
‘वह कौन शक्ति है जो हाथ की नसों के द्वारा उंगलियों के अन्त तक चली जाती है? इसी को वैज्ञानिकगण ‘आकाशी शक्ति कहते हैं। वह मस्तिष्क से प्रारम्भ होती है, मनोवृत्तियों के साथ जा मिलती है और स्नायुपथ से प्रवाहित होकर हाथ, आंख और पांव की एड़ी तक पहुंचती है। इन तीनों के ही द्वारा दूसरों पर यह अपना प्रभाव दिखाती है, किंतु इसका सबसे अधिक प्रभाव हाथ की अंगुलियों द्वारा ही प्रकट होता है। अब आर्यशास्त्रीय विचार कहते हैं। पिता, माता, सुहृद्, वैद्य, पुण्यात्मा, हंस, मयूर, सारस और चकवे की दृष्टि भोजन में उत्तम है। इनकी दृष्टि पड़ने से अन्न का दोष दूर हो जाता है। चकवे के विषय में मत्स्यपुराण में लिखा है कि ‘चकोरस्य विरज्येते नयने विषदर्शनात्।’ अन्न में विष रहने पर चकवे आंखें मूंद लेते हैं, जिससे विषाक्त अन्न का पता लग जाता है। दृष्टिदोष के विषय में लिखा है- नीच, दरिद्र, भूखे, पाखण्ड, स्त्रैण, रोगी, मुर्गे, सर्प और कुत्ते की दृष्टि भोजन में ठीक नहीं होती है। उनकी विषदृष्टि अन्न में संक्रमित होने से अजीर्ण रोग उत्पन्न होते हैं। यदि कभी इनमें से किसी की दृष्टि अन्न पर पड़ जाय तो निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर उसके अर्थ का चिन्तन करते-करते भोजन करना चाहिए। यथा’-
अन्नं ब्रह्मा रसो विष्णुर्भोक्ता देवो महेश्वर:। इति संचिन्त्य भुंजानं दृष्टिदोषो न बाधते॥ अंजनीगर्भसम्भूतं कुमारं ब्रह्मïचारिणम्। दृष्टिदोषविनाशाय हनुमन्तं स्मराम्यहम्॥
अन्न ब्रह्मा का रूप है और अन्न का रस विष्णु का रूप है तथा भोक्ता महेश्वर हैं, इस प्रकार चिन्तन करते-करते भोजन करने पर दृष्टिदोष नहीं होता। अंजीन कुमार ब्रह्मïचारी हनुमान को दृष्टिदोषनाशार्थ मैं स्मरण करता हूं, ये ही सब भोजन के विषय में नियम हैं।
किसी वस्तु से माथा लपेट कर तथा शास्त्रनिषिद्ध दिशा की ओर मुख करके और जूता पहनकर, खाना आसुरी प्रकृति का लक्षण है। रात्रि में हल्का भोजन करना चाहिए, क्योंकि निद्रावस्था में स्नायुशक्ति दुर्बल रहती है, उस समय गम्भीर भोजन का परिपाक ठीक नहीं होता। दिन या रात्रि का भोजन ऐसा न हो, जिसमें खूब चरपरे मसाले पड़े हों और जो आसानी से पच न सके, न पचने वाले भोजन करने से शरीर और मन दोनों बिगड़ते हैं। अत: सहज में पचने वाले हल्के पदार्थ ही खाए जाएं। संध्या के समय भोजन न करें, क्योंकि संध्या के समय भूत-प्रेतों की दृष्टिï अन्न पर रहती है। उनकी अन्न पर आसक्ति रहने से उस समय अन्न ग्रहण करने वालों के अन्नपरिपाक में संदेह रहता है। इसी तरह अधिक रात बीत जाने पर भी भोजन न करें, क्योंकि भोजनोत्तर कम से कम दो घंटे जागकर तब सोना चाहिए ऐसा न करने से अन्न नहीं पचेगा।