गुनाहों का सौदागर -राहुल भाग-15
शरदपुर के थाने के कम्पाउंड में सड़क पर हजारों आदमियों की भीड़ थी। वे लोग जोर-जोर से नारे लगा रहे थे।
“अपराधियों को दंड दो !”
“हमारी बेटियों की लाज से खेलने वालों को दंड दो।”
एक नेता टाइप का आदमी, बड़े जोशीले अंदाज में उन लोगों की भावनाओं को और भी भड़का रहा था।
थाने के अन्दर इतनी पुलिस फोर्स नहीं थी कि हजारों का मुकाबला कर सकती, इसलिए वे लोग भी हताश थे और कोतवाली से फोर्स की राह देख रहे थे।
अन्दर थाने में बैठी हुई दीपा रो रही थी। उसके साथ लखन, अशरफी और उसका छोटा भाई रत्तीलाल भी मौजूद थे। अशरफी बार-बार दीपा को चिपटा रही थी और इन्स्पेक्टर दीक्षित की हवा खराब हो रही थी।
लखनलाल ने उससे गुस्से से कहा‒“आप रिपोर्ट क्यों नहीं लिखते ?”
दीक्षित ने माथे से पसीना पोंछकर कहा‒“थोड़ी देर ठहरो। वे लोग आते ही होंगे।”
“कौन लोग ?”
“एस॰ एस॰ पी॰ और डी॰ एम॰ साहब, एस॰ पी॰ सिटी साहब, इलाके के डी॰ एस॰ पी॰ साहब !”
कुछ देर बाद कई गाड़ियां एक साथ पहुंचीं, जिनमें एस॰ एस॰ पी॰, डी॰ एम॰, एस॰ पी॰ सिटी, चौहान, जगताप और शेरवानी की कई गाड़ियां भी थीं।
भीड़ और ज्यादा जोश से चिल्लाने लगी‒“हमें इन्साफ चाहिए।”
“मुजरिमों को दंड मिलना चाहिए।”
“एक भी मुजरिम छूट गया तो हम खुद उसे मार डालेंगे।”
गाड़ियों में से वे सब उतरकर अन्दर आ गए। प्रेमप्रताप और चौहान हवालात में बन्द थे। इन्स्पेक्टर दीक्षित तुरन्त अटेंशन हो गया था।
दीपा और भी ज्यादा सिसक-सिसककर रोने लगी। सबसे पहले शेरवानी ने उसके समीप जाकर उसके सिर पर हाथ फेरा और स्नेह से बोला‒“घबराओ मत बेटी ! तुम्हें इंसाफ मिलेगा।” फिर वह लखनलाल से बोला‒“आप बच्ची के पिता हैं ?”
लखन ने जवाब दिया‒“जी, हां !”
“आइए, आप जगताप साहब और चौहान साहब से बात कर लीजिए।”
दीपा गुस्से से झटके से खड़ी होती हुई बोली‒“हरगिज नहीं, बापू। अकेले में कोई बात नहीं होगी।” फिर वह शेरवानी से बोली‒“मैं बच्ची नहीं हूं। बालिग भी हूं। और पढ़ी-लिखी भी। आपको जो बात करनी है, मुझसे कीजिए। पहले इन दोनों की रिपोर्ट लिखवाइए।” फिर वह डी॰ एम॰ से बोली‒“मैं इतनी देर से यहां बैठी हूं। मुजरिम हवालात में बंद हैं। फिर भी यह इन्स्पेक्टर साहब मेरी रिपोर्ट नहीं लिख रहे हैं।”
डी॰ एम॰ ने इन्स्पेक्टर दीक्षित को घूरकर कहा‒“इन्स्पेक्टर दीक्षित ! अब तक एफ॰ आई॰ आर॰ क्यों नहीं दर्ज की गई ?”
एस॰ एस॰ पी॰ ने बीच में आकर कहा‒“मैंने फोन पर कहा था कि हमारा इन्तजार करें।”
“क्यों…?”
“इसलिए कि मामला एक नौजवान बच्ची का है। यह किसी भी जाति-बिरादरी की सही। लेकिन इज्जत तो सभी की होती है और मामले को जितना उछाला जाए, उतनी ही ज्यादा बदनामी लड़की की ही होती है।”
दीपा ने व्यंग्य से कहा‒“मुझे अपनी बदनामी की चिंता नहीं। लेकिन इन जैसे भेड़ियों को जरूर दण्ड मिलना चाहिए। एक मेरी बदनामी से अगर मेरे जैसी बहुत सारी अबलाओं की इज्जत बच जाए तो यह मेरे लिए गर्व की बात होगी।”
चौहान ने कहा‒“देखो, बेटी ! बात को समझने की कोशिश करो…”
दीपा ने व्यंग्य से कहा‒हुंह ! आप समझा रहे हैं ? कभी आप लोगों ने अपने योग्य सपूतों को भी समझाने की कोशिश की है !”
जगताप ने कहा‒“इन दोनों को हम दंड देंगे। और तुम्हें जितना हर्जाना नकदी के रूप में चाहिए। वह तुम हमसे ले सकती हो।”
दीपा ने व्यंग्य से कहा‒“चौहान साहब की भी तो एक बेटी है। उसे मेरी बिरादरी के लड़कों को सौंप दीजिए। जो भी हर्जाना होगा, मेरी पूरी बिरादरी मिलकर भर देगी।”
जगताप सन्नाटे में रह गया।
दीपा ने डी॰ एम॰ से कहा‒“और आप यह सबकुछ सुन रहे हैं। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट, जो पूरेे जिले का हाकिम और माई बाप होता है। क्या ऊपर वाले ने आपको इतना बड़ा पद इसलिए दिया है कि अन्याय पर परदा डालने में इन लोगों की मदद करें और न्याय मांगने वालों की तरफ से मुंह बन्द रखें।”
डी॰ एम॰ ने बुरा-सा मुंह बनाकर जगताप, चौहान और शेरवानी से कहा‒“मुझे खेद है। आप लोग शहर के इतने इज्जतदार लोग…उस दिन आप लोगों ने प्रेमप्रताप की, जो तस्वीर खींची थी, उसमें मुझे यह प्रेमप्रताप एक मासूम-सा बच्चा लगा था। लेकिन अब लगता है कि शायद लाला सुखीराम की एफ॰ आई॰ आर॰ गलत नहीं थी।”
शेरवानी ने गंभीरता से कहा‒“डी॰ एम॰ साहब ! हम लोग इस शहर के निवासी हैं। हमेशा यहीं रहेंगे। यह मत भूलिए कि बड़े से बड़े अफसरों के तबादले होते रहते हैं।”
डी॰ एम॰ ने गुस्से से कहा‒“आप मुझे चैलेंज कर रहे हैं ? अभी मैं कुर्सी पर हूं। जब आप तबादला करा लें तो यहां अपनी मनमानी कीजिए।” फिर उसने गुस्से से इन्स्पेक्टर दीक्षित से कहा‒“आप एफ॰ आई॰ आर॰ लिखिए।”
चौहान ने हाथ उठाकर कहा‒“एक मिनट…डी॰ एम॰ साहब। शेरवानी साहब से जरा जल्दी हो गई। आज्ञा हो तो मैं इस बच्ची से बात कर लूं ?”
“यहीं मेरे सामने !”
“बेहतर है।”
चौहान ने दीपा से पूछा‒“बेटी ! तुम्हारे साथ क्या घटना घटी थी।”
दीपा ने कहा‒“मैं अपने ग्रेजुएट होने की खुशी में मंदिर में दिया जलाने गई तो पंडितजी ने मुझे अन्दर नहीं जाने दिया कि मैं शैडयूल-कास्ट हूं।”
“मैं वहां से दुःखी लौट रही थी कि जवाहर पार्क के पास ये दोनों मिले। उन्होंने मोटरसाइकिल रोककर मुझसे कहा कि अन्दर चलो। हम जवाहर पार्क के मंदिर में तुम्हें पूजा करने के लिए जबरदस्ती अन्दर भेजेंगे।”
मैं इनकी चाल समझी नहीं। ये लोग मुझे अन्दर लाए और अचानक पकड़कर मुझे ट्यूबवेल की कोठरी में ले जाकर बंद कर दिया। वहां पानी का इतना शोर था कि मेरी चीख-पुकार उसमें दब गई। ये लोग दरवाजा बंद करके चलेे गये कि मोटरसाइकिल कहीं रखकर रात में आएंगे।
“मुझे एक कागज मिल गया। बालपेन मैं हमेशा अपने पास रखती हूं। जल्दी-जल्दी पर्चा लिखकर मैंने गोला बनाया और रोशनदान से बाहर फेंक दिया। फिर मन में गिड़गिड़ाकर ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि किसी प्रकार वह पर्चा मेरे घर तक पहुंच जाए। मुझे नहीं मालूम कि पर्चा किस तरह मेरे घर तक पहुंचा और किसने पहुंचाया ?”
“रात को आठ बजे ये लोग आए। उन्होंने मेरे हाथ-पांव बांधे और घास पर लाए। बौखलाहट में यह भूल गए कि मेरी बिरादरी के ही नहीं और भी न्यायप्रिय लोग मेरी मदद को आ गए थे।”
दीपा का बयान पूरा होते ही हवालात में से प्रेमप्रताप चिल्लाया‒“चाचाजी ! यह हरामजादी झूठ बोल रही है।”
दीपा ने पलटकर गुस्से से कहा‒“तू खुद हरामजादा…कुत्ता…!”
डी॰ एम॰ ने गुर्राकर प्रेमप्रताप से कहा‒“तुम लोग बीच में हस्तक्षेप करोगे तो फिर दूसरा उपाय अपनाया जायेगा।”
“डी॰ एम॰ साहब ! मैं सच कह रहा हूं। यह पेशेवर है। इसने हमें निमंत्रण दिया था।”
दीपा ने रोआंसी आवाज में कहा‒“सुना आपने डी॰ एम॰ साहब ? मेरी पूरी बिरादरी ही नहीं, मेरा कॉलेज मेरे साथी स्टूडेट्स मेरे चरित्र के गवाह हैं। प्रिंसिपल साहब से पूछिए। एक बार एक लड़के ने मुझे देखकर सीटी बजा दी थी। उसे प्रिंसिपल साहब ने सिर्फ मेरी शराफत और चरित्र देखकर कॉलेज से निकाल दिया।”
कहते-कहते वह रो पड़ी।
चौहान ने उसके सिर पर हाथ फेरकर कहा‒“घबराओ मत, बेटी। तुम्हें इन्साफ मिलेगा।”
बाहर बहुत जोर-जोर से नारों की गूंज सुनाई दे रही थी। डी॰ एम॰ ने गंभीरता से कहा‒“आप लोग बाहर जन समूह का क्षोभ, आक्रोश देख रहे हैं ? अगर इन दोनों गुंडों को तुरंत जेल न भेजा गया तो भीड़ काबू से बाहर हो जायेगी।”
शेरवानी ने कहा‒“और काबू से बाहर भीड़ को काबू में लाना पुलिस का काम है। आखिर लाठी चार्ज, आंसू गैस काहे के लिए हैं ? और फिर हिंसा पर उतारू भीड़ को तो फायरिंग से भी रोका जा सकता है।”
डी॰ एम॰ गुस्से से बोला‒“मुझे सच्चाई मालूम है। इसलिए उन लोगों की मांग गलत नहीं और सच्चा इन्साफ मांगने वालों पर मैं न तो लाठीचार्ज कराऊंगा, न ही आंसू गैस। फायरिंग तो बहुत दूर की बात है।”
“चाहे वह थाने में ही घुस पड़ें ?”
“अच्छा ! मेरी पुलिस का एक सिपाही भी हस्तक्षेप नहीं करेगा। आप इन लोगों के बीच से अपने लड़कों को निकालकर ले जा सकते हैं तो ले जाइए।”
वे लोग सन्नाटे में रह गए।
डी॰ एम॰ ने फिर से कहा‒“आपके लड़कों के खिलाफ सुबूत गवाह की जरूरत नहीं। हजारों गवाह मौजूद हैं जिन्हें आप दबा नहीं सकते। अगर आप अपने लड़कों का कैरियर बनाना चाहते हैं तो यह मेरा सजेश्न है कि यह लड़की सहमत हो जाए तो आप दोनों में से कोई इसे अपनी बहू बना लीजिए।”
चौहान ने चौंककर कहा‒“क्या ? एक हरिजन लड़की को बहू ?”
दीपा ने व्यंग्य से कहा‒“एक हरिजन लड़की को जबरदस्ती नंगा किया जा सकता है ?”
“ठीक है इन दोनों पर मुकद्दमे चलेंगे। इनकी एफ॰ आई॰ आर॰ अभी दर्ज होगी और इस लड़की बयान को किसी सबूत या गवाह की जरूरत नहीं।”
चौहान एक राजनीतिज्ञ था। उसने झट पेंतरा बदला और वात्सल्य से मुस्कराकर दीपा के सिर पर हाथ फेरता हुआ बोला‒“बेटी ! मैं तो सिर्फ यह जानना चाहता था कि हमारी होने वाली बहू पढ़-लिखकर सचमुच कितनी स्मार्ट हो गई है या नहीं हुई ?”
फिर वह जगताप ही तरफ मुड़कर बोला‒“लो भई, जगताप ! किसी ने सच कहा है कि ईश्वर ऊपर से ही जोड़े बनाकर उतारता है‒बहू मुबारक हो।”
जगताप ने चौंककर कहा‒“मेरी बहू ?”
चौहान ने हाथ मलते हुए प्यार से दीपा को देखा और बोला‒“काश, मेरे बेटे चेतन की सगाई बचपन से ही तय न हुई होती तो मैं इस हीरे जैसी बहू को पाकर अपने आपको धन्य समझता। लेकिन अब मैं अगर उस लड़की से रिश्ता तोड़ता हूं बेटे का तो लोग उसमें खोट न समझने लगें।” फिर उसने नजरेें बचाकर शेरवानी को आंख मारकर कहा‒“क्यों शेरवानी साहब ? क्या ख्याल है आपका ?”
शेरवानी ने ठंडी सांस ली और बोला‒“इस लड़की की दिलेरी देखकर तो मैं भी इस बात का कायल हो गया हूं कि हम भविष्य की भारतीय नारी का जो रूप कल्पना में देखते हैं दीपा उसके ऊपर बिल्कुल फिट बैठती है।”
चौहान ने कहा‒“बस, जगतापजी। अब यह झगड़ा खत्म कराइये और फैसले का ऐलान कर दीजिए। बाहर देखिए कितना शोर बढ़ता जा रहा है। कहीं दंगा-फसाद न शुरू हो जाए।”
जगताप के चेहरे से ऐसा लगता था, मानों वह बुरी तरह फंस गया हो। उसका मन चाह रहा था कि वह चौहान को कच्चा ही चबा जाए।
फिर भी उसने मुस्कराकर कहा‒“अच्छा, चौहान साहब। जरा, एक मिनट इधर आइए।”
चौहान को वह अलग ले गया और होंठ भींचकर बोला‒“आप अपने बेटे को बचाकर मेरे बेटे को फंसाए दे रहे हैं।”
चौहान ने इत्मीनान से कहा‒“देखिए, जगताप साहब ! शतरंज के खिलाड़ी, दिमाग से शतरंज खेलते हैं, धन-दौलत से नहीं। आप जानते हैं कि मैं लीडर भी हूं और एम॰ एल॰ ए॰ भी। आपके बहुत सारे काम ऐसे हैं, जिनकी चाबियां मेरे हाथों में हैं। मैं जरा-सी चाबी घुमा दूं तो आपके कारोबार का कबाड़ा हो जाए। जैसे आपके ज्योति मिल के मजदूरों की यूनियन का अध्यक्ष, जो मेरे चरण-स्पर्श करता है और मेरे इशारों पर नाचता है।
“अरे ! आप तो मजाक-मजाक में ही धमकियां देने लगे ?”
“समझा देना अच्छा होता है, बाद में उलझन न पड़े इसलिए। वैसे जरूरी नहीं कि सगाई के बाद दीपा और पप्पी की शादी भी हो।”
“मान लीजिए शादी हो भी गई तो सारे जिले के हरिजन वोट आपकी मुट्ठी में होंगे। और बहुएं क्या अमृत पीकर पैदा होती हैं, जो कभी न मरें। कोई दुर्घटना हो सकती है। कोई बीमारी हो सकती है। कुछ बदमाश अपहरण करके रेप और मर्डर कर सकते हैं।”
“चलिए फिर ठीक है।”
वे दोनों फिर से उन सबके बीच आ गए और जगताप ने डी॰ एम॰ से कहा‒“अगर दीपा के माता-पिता राजी हैं तो मैं दीपा को अपनी बहू बनाने को तैयार हूं।”
डी॰ एम॰ ने लखनलाल से पूछा तो उसने कहा‒“सरकार ! इतनी बदनामी के बाद मेरी बेटी का हाथ और पकड़ेगा भी कौन ? थाली गिरती है तो झंकार सभी सुनते हैं। थाली टूटी या साबुत रही उसका किसी को क्या मालूम ?”
डी॰ एम॰ ने जगताप से सम्बोधित होकर कहा‒“तो फिर चलिए। आप खुद जन समूह के सामने लाउडस्पीकर पर यह घोषणा कीजिए कि आप दीपा को अपनी बहू स्वीकार कर रहे हैं ताकि जन आक्रोश और प्रकोप कम हो। आपकी घोषणा के बाद हम इन दोनों लड़कों के खिलाफ कोई कार्यवाई भी नहीं करेंगे।”
जगताप ने मुर्दा-सी आवाज में कहा‒“चलिए, मैं ऐलान करने को तैयार हूं।”
डी॰ एम॰ ने इन्स्पेक्टर दीक्षित से कहा‒“तब तक आप एक इकरारनामा तैयार कराइए, जिसमें जगतापजी दीपा को अपनी बहू बनाना स्वीकार करें और इसकी जिंदगी की जमानत दें। यह घोषणा करके आते हैं। फिर इनसे दस्तखत ले लिए जाएंगे।”
जगताप, डी॰ एम॰ और एस॰ एस॰ पी॰ सिटी के साथ बाहर निकल गया। इंस्पेक्टर दीक्षित एक लिखित तैयार करने लगा।