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मायके का कौआ भी प्यारा-गृहलक्ष्मी की कहानी

01:00 PM Mar 18, 2023 IST | Sapna Jha
मायके का कौआ भी प्यारा गृहलक्ष्मी की कहानी
Mayke ka Kaun Bhi Pyara
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Home Short story: यह घटना सन 1990 की है। उस वक़्त मेरी उम्र मात्र उन्नीस साल थी। दशहरे की छुट्टियों में हॉस्टल के बच्चे दस दिवसीय दौरे पर घूमने जा रहे थे। मेरा भी मन हो रहा था। घूमने  जाना ठीक होगा या नहीं यह निर्णय लेने में असमर्थ थी तो माँ से पूछ लिया।

"मेरे साथ के सारे बच्चे छुट्टियों में नैनीताल जा रहे हैं। मैं जाऊँ?"

"तुम्हारी क्या इच्छा है?"

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"मुझे तो आप सबों के साथ ज्यादा अच्छा लगेगा।"

"ठीक है बेटा! फिर हम नैनीताल के खर्चे में ननिहाल घूम आयेंगे।" माँ ने अपनी तरफ से ठीक हो सोचा। मध्यमवर्गीय परिवारों में दिमाग चौकन्ना रखते हुए ही निर्णय लेने होते हैं। जिन रुपयों में मैं अकेली घूमती उतने में सभी घूम लेते।

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हम सभी हॉस्टल से घर आये थे और मम्मी-पापा के साथ नानी गाँव गये। पटना से पूर्णिया बस से पहुँचे। आगे की यात्रा के लिए पापा ने कार ठीक किया। कार में बैठने से पहले ही भाई से एक चक्कर लड़ कर मैं विंडो सीट पाने में सफल हो गई थी। शहर से कुछ पाँच-सात किलोमीटर ही निकली थी कि उल्टी दिशा से आती गाड़ी से ड्राइवर ने मुँह निकाल कर हमारे कार ड्राइवर से पूछा,

"की रे कतेक में? (कितना भाड़ा ले रहे हो)"

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"ओतबे…(उतना ही)"

शुद्ध हिंदी पसंद मैं स्थानीय भाषा सुनने के लिए मजबूर थी। दिमाग का दही हो चुका था। नैनीताल बनाम ननिहाल दिमाग में घूमने लगा था। कहाँ नैनीताल और कहाँ ननिहाल ..नैनीताल में दोस्तों द्वारा की जाने वाली मस्तियों के बारे में सोच-सोच कर मन दुखी होने लगा था। मैं जितनी ही दुखित थी माँ उतनी ही हर्षित दिख रहीं थीं। उनका चेहरा मायके की आबोहवा में खिला ही जा रहा था। उनकी खुशी देख कर मैंने खुद को समझा लिया था। कम से कम वह तो खुश थीं।

 दो घंटों में हम गाँव पहुँच चुके थे। नाना-नानी के प्यार को देख कर राह की पूरी थकान उड़न छू हो गई थी। यहाँ पहुँचने के बाद नैनीताल ट्रिप छूटने का अफसोस भी जाता रहा। अगले दिन से ही बाग-बगीचों की सैर करते हम खूब मज़े करने लगे थे। तरह-तरह के पेड़-पौधों को देखना और ताज़ी हवा का आनंद लेना शुरु ही किया था कि एक दिन कोई बेहद हड़बड़ी में लाठी माँगने आया। नानी ने वज़ह पूछा तो हम भी उत्सुकतावश पीछे हो लिये।

उफ़! बाहर दो मीटर लंबे काले रंग के साँप को देखकर होश उड़ गए थे। जिन्होंने लाठी मांगा था वह बुरी तरह से साँप को मारे जा रहे थे। यह देखकर वाकई बुरा लग रहा था। एक -दो दिन दिमाग में वही नज़ारा घूमता रहा। फिर तो शाम से ही मैं पैरों को ऊपर किये बैठी रहती। रात के वक़्त मज़ाल था कि बिना टॉर्च के कहीं भी आती -जाती। पहला हफ्ता साँप से डरने में निकला तो अगले हफ्ते त्योहार की भागदौड़ रही। हम सब कुलदेवी पूजन के लिये निकल रहे थे। मौसी जी भी सपरिवार पधारीं थीं। आज का नज़ारा अलग ही था। नानी जी सबसे तेज़ चाल से चलती हूईं लीड कर रहीं थीं। माँ और मौसी बीच में थीं और हम नई पीढ़ी वाले सबसे पीछे मार्ग का आनंद लेते हुये जा रहे थे। दशहरे की पूजा संपन्न हो चुकी थी। अब चार दिनों में हम सबकी वापसी थी।

आखिरी कुछ दिन हम सब पिकनिक के मूड में आ चुके थे। बच्चा पार्टी नाश्ते का सामान लेकर छत पर पहुँचे ही थे कि दूर से ही संजय मामा हांफते घर की ओर आते दिखे और बताया कि "गांव में पुलिस आई है जो युवाओं के धर-पकड़ में लगी है। दो टोल (झा और यादव) में भयंकर झगड़ा हुआ है।"

इसके बाद तो हर दिन कुछ ना कुछ होता ही रहा। हम जिस खुशी से गाँव की मिठास की आस में पहुँचे थे,वह बुजुर्गों के अलावा कहीं और नजर नहीं आ रहा था। इस बीच एक दिन भाई की तबियत काफ़ी बिगड़ गई। डायरिया हुआ था। आवश्यक दवाओं तक का इंतजाम ना हो सका।

यह सब देखकर मैं काफ़ी परेशान हो चुकी थी। हम बच्चों को उदास देख माँ का चेहरा भी उतर आया था। मुझे सांत्वना देती हुई बस इतना ही कहा कि "गाँव भी अब गाँव जैसा नहीं रहा। ना तो पहले वाली सात्विकता रह गई है और न ही संजीदगी। यहाँ भी शहरों के जैसा दिखावा,बेईमानी,और दुर्व्यवहार बढ़ता ही जा रहा है। न लोगों में वह प्रेम रहा और न ही वैसी सामाजिकता। रेडियो के समय में फिर भी ठीक था पर अब टीवी ने गाँव को शहर में तब्दील कर दिया है।"

खैर जो भी हुआ उसमें मुझे सबसे ज्यादा खुशी इस बात की हो रही थी कि माहौल में आई तब्दीली के कारण माँ के गाँव के प्रति प्रेम में कुछ कमी अवश्य आई थी। उस समय बड़ी तसल्ली हुई थी कि आइंदा हमें छुट्टियों में गाँव की जगह नए जगहों की सैर करने का अवसर मिलेगा।

कुछ तो उम्र का ही दोष होता है। शायद वही रहा होगा। युवा वर्ग के अपने ही सपने होते हैं जब भूगोल का ज्ञान भी 'भू' की परिक्रमा किये बिना पूरी नहीं होती।

इन बातों के गुज़रे हुए तीन दशक से अधिक हो गये। आज मेरी बेटी उसी उम्र में है, जिस उम्र में मैं थी। अब अच्छी तरह से समझ गई हूँ कि उस रोज़ माँ ने अपने गाँव के लिए जो कुछ भी कहा वह बस हम बच्चों का मन रखने के लिये ही कहा था।

मायके के प्रति उनकी भावनाएँ जो तब समझ न पाई थी अब बखूबी समझने लगी हूँ। जो छूट जाता है, वही आजीवन याद आता है। माँ अपने माता-पिता के स्नेह के वशीभूत होकर ही गाँव जाती थीं। जैसे अब मैं इस उम्र में आने के बाद अपने माता-पिता के साथ वक़्त बिताने का कोई न कोई मौका जरूर ढूंढ़ निकालती हूँ। उन खुशी के क्षणों में मैं भी इधर-उधर नहीं देखती। मेरा भी चेहरा ठीक वैसे ही खिल उठता है जैसे कभी माँ का खिला करता था, अपने मायके की सरहद में कदम रख कर! सच्चाई यही है कि मायके का कौआ भी प्यारा लगता है अपने तो प्रिय हैं ही!!

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