जयद्रथ-वध - महाभारत
अभिमन्यु की मृत्यु का समाचार सुनकर अर्जुन क्रोध से पागल हो उठा। जयद्रथ ही उसकी मृत्यु का माध्यम बना था, क्योंकि युधिष्ठिर आदि सहयोद्धाओं को उसने पहले द्वार पर ही रोक लिया था, इसलिए अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि यदि अगले दिन सूर्यास्त से पहले उसने जयद्रथ का वध नहीं किया तो वह आत्मदाह कर लेगा।
जयद्रथ भयभीत होकर दुर्योधन के पास पहुंचा और अर्जुन की प्रतिज्ञा के विषय में बताकर सिंधु देश लौटने की आज्ञा मांगी। वह जान चुका था कि यदि वह अर्जुन के सामने पड़ गया तो उसे कोई नहीं बचा सकेगा।
दुर्योधन उसका भय दूर करते हुए बोला-"चिंता मत करो मित्र ! यह प्रतिज्ञा करके अर्जुन ने स्वयं के लिए मृत्यु का द्वार खोल लिया है। मैं और सारी कौरव-सेना तुम्हारी रक्षा करेगी। अर्जुन तुम तक नहीं पहुंच पाएगा। उसे आत्मदाह करना पड़ेगा।"
जयद्रथ अत्यंत भयभीत था, परंतु दुर्योधन ने उसे अनेक प्रकार से आश्वासन दिया तो उसने सिंधु देश जाने का विचार त्याग दिया।
अगले दिन युद्ध शुरू हुआ। अर्जुन की आंखें जयद्रथ को ढूंढ रही थीं, किंतु वह कहीं नहीं मिला। दिन बीतने लगा। धीरे-धीरे अर्जुन की निराशा बढ़ती गई। यह देखकर श्रीकृष्ण बोले-ष्पार्थ ! समय बीत रहा है और कौरव-सेना ने जयद्रथ को रक्षा-कवच में घेर रखा है। अतः तुम शीघ्रता से कौरव-सेना का संहार करते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ो।"
यह सुनकर अर्जुन का उत्साह बढ़ा और वह जोश से लड़ने लगा।
जयद्रथ तक पहुंचना मुश्किल था। संध्या होने वाली थी। अंततः भक्त के कार्य को पूर्ण करने का निश्चय कर श्रीकृष्ण ने अपनी माया फैला दी। इसके फलस्वरूप सूर्य बादलों में छिप गया और संध्या का भ्रम उत्पन्न हो गया।
‘संध्या हो गई है। अब अर्जुन को प्रतिज्ञावश आत्मदाह करना होगा’। यह सोचकर जयद्रथ और दुर्योधन खुशी से उछल पड़े। अर्जुन को आत्मदाह करते देखने के लिए जयद्रथ कौरव-सेना से आगे आकर अट्टहास करने लगा।
जयद्रथ को देखकर श्रीकृष्ण बोले-"पार्थ ! तुम्हारा शत्रु तुम्हारे सामने खड़ा है। उठाओ अपना गांडीव और वध कर दो इसका। वह देखो, अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है।"
यह कहकर उन्होंने अपनी माया समेट ली। देखते-ही-देखते सूर्य बादलों से निकल आया। उसकी दृष्टि आसमान की ओर उठ गई। सूर्य अभी भी चमक रहा था। यह देखकर जयद्रथ और दुर्योधन के पैरों तले जमीन खिसक गई। जयद्रथ भागने को हुआ, किंतु तब तक अर्जुन ने अपना गांडीव उठा लिया।
तभी श्रीकृष्ण चेतावनी देते हुए बोले-हे अर्जुन ! जयद्रथ के पिता ने इसे वरदान दिया था कि जो इसका मस्तक जमीन पर गिराएगा, उसका मस्तक भी सौ टुकड़ों में विभक्त हो जाएगा। इसलिए यदि इसका सिर जमीन पर गिरा तो तुम्हारे सिर के भी सौ टुकड़े हो जाएंगे। इसलिए हे पार्थ! उत्तर दिशा में यहां से सौ योजन की दूरी पर जयद्रथ का पिता तप कर रहा है। तुम इसका मस्तक ऐसे काटो कि वह इसके पिता की गोद में जाकर गिरे।"
अर्जुन ने श्रीकृष्ण की चेतावनी ध्यान से सुनी और अपने लक्ष्य की ओर बाण छोड़ दिया। उस बाण ने जयद्रथ का सिर धड़ से अलग कर दिया और उसे लेकर सीधा जयद्रथ के पिता की गोद में जा गिरा। जयद्रथ का पिता चौंककर उठा तो उसकी गोद में से सिर जमीन पर गिर गया। सिर के नीचे गिरते ही उसके सिर के भी सौ टुकड़े हो गए।
इस प्रकार अर्जुन की प्रतिज्ञा पूरी हुई।