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कौशल्या का दर्द-गृहलक्ष्मी की कविता

01:00 PM Jan 19, 2024 IST | Sapna Jha
कौशल्या का दर्द गृहलक्ष्मी की कविता
Kaushalya ka Dard
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Poem in Hindi: कौशल्या के दर्द को आज मैं समझ पाई हूं,
रखकर सीने पर पत्थर कैसे राम को वन भेजा होगा?
अपने प्रिय पुत्र को राम बनाने की खातिर ,
एक एक पल उसका युगों सा बीता होगा।

वो माँ ही क्या जो पुत्र का ,
दर्द समझ ही नहीं पाये।
जान ना पाए उसके मन की थाह,
उसको राम ना बना पाए।

वनवास हो या विदेश दोनों ही व से शुरु होकर….
सीने में नश्तर सा चुभतें हैं।
कब होंगे राम फिर से मेरे संग में,
ये सोच कर कौशल्या के आंसू कहां थमते हैं।

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फिर भी होठों पर रख मुस्कान,
कौशल्या हर रीत निभा रही।
सुमित्रा संग पुत्र की याद में,
दिल में ही सारे दर्द दबा रही।

कौशल्या पौंछ रही अश्रु उर्मिला के,
जो कभी बह ना सके।
थपकी देकर सुलाती उन नैनों को,
जो चौदह बर्ष सो ना सके।

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याद करती है कौशल्या राम जन्म के उन पलों को….

जब प्रभु को जन्म लेना पड़ा धरा पर,
कौशल्या सी मां को पाने में।
सृष्टि भी सारी एकजुट हो गई ,
कौशल्या को राम की माँ बनाने में।

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बालक बन जब राम,
मां कौशल्या की गोद में सोते थे।
सारे सुख थे एक तरफ दुनिया के…
प्रभु राम की मां होने के मायने उन सब पर भारी होते थे।

कैसे फूल से पांवों से मेरा राम छन-छन करके ,
जब राजमहल में चलता था।
दौड़ता कमर पर करधनी बांध जब ,
महल में हर आंखों की रौनक बनता था।

फूलों से सुकुमार को अपने,
भेज दिया वन में पिता का वचन निभाने।
रखकर सीने पर पत्थर,
फिर भी वह मुस्काई राम को राम बनाने ।

कहां गुम हो गई वो सलोनी सुबह शामें,
राजा दशरथ ऐसे कैसे निष्ठुर हो गए?
दे दिया वनवास अपने प्रिय राम को,
एक स्त्री के त्रिया चरित्र के बहकावे में आ गये।

सोचती कौशल्या आज ,
महलों का हमारा सुकुमार
कैसे वन में?
कंदमूल फल खाकर रहता होगा।

अनुज लक्ष्मण और भार्या सीता संग ,
कैसे वन में?
ना जाने कितने कष्ट उठाते ,
घास के बिछौने पर सोता होगा।

आज शब्द हो गए कौशल्या के मौन,
अश्रु भी है सूख गये।
कैसे सहे पुत्र की विरहा को ,
कासे मन की व्यथा कहे।

पर ईश्वर के हर कार्य में कुछ ना कुछ तो,
सुनिश्चित होता है।
जो कुछ भी करें विधाता ,
उसमें जगत का ही हित होता है।

राम की मां बनने को,
कौशल्या को तो ये सब सहना ही था।
पर देखो कैक‌ई के भाग्य में ,
कहां ही राम की मां होना था?

मंसूबे मंथरा के सब तब ढह गये,
जब राम लौटे वन से श्री राम बनकर।
भरत धो रहे चरण प्रभु राम के,
खुद को राम का दास समझकर।

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