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किस बात की चिंता -गृहलक्ष्मी की कहानियां

01:00 PM Apr 15, 2024 IST | Sapna Jha
किस बात की चिंता  गृहलक्ष्मी की कहानियां
kis baat ki chinta hindi story
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Hindi Story: ललिता जी बड़े ऊहापोह की स्थिति में फंस गई थी जब फोन पर उनकी बेटी सिया ने बताया ...

"मां  आपके नातिन का जनेऊ संस्कार है और आपको जरूर आना है। आपके दामाद जी ऑफिस की तरफ से सिंगापुर गए  हैं और वो जनेऊ के एक दिन पहले ही पहुंचेंगे तो ऐसे में  आपको लाने नहीं आ पाएंगे हम। अचानक ही इनके बाहर जाने का प्रोग्राम बन गया वरना हम दिल्ली आकर आपको ले आते अपने साथ। मां अगर भाई ही कोई व्यवस्था कर दे, एक बार उससे आप भी बात कर लो।"

बेटी का मनुहार सुनकर बड़े असमंजस में पड़ गई

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 थी। अगर नहीं गई तो उसका मन टूट जाएगा और ससुराल वालों के ताने सुनती रहेगी उनकी बिटिया। मायका मां से होता है और मां ही लाचार हो गई है तन मन धन हर चीज से।

ललिता अपने पति की फोटो से बात कर रही थी, "क्यों चले गए आप सारी जिम्मेदारी मुझ पर छोड़कर? बेटी के ससुराल मैं कैसे जाऊं कुछ तो बताईए?"

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इतना लंबा सफर अब उनके लिए बहुत मुश्किल था। कुछ महीने पहले ही उनकी आंखों की रोशनी बिल्कुल चली गई थी। मधुमेह की इस बीमारी ने उनकी आंखों की नशें सुखा दी थी। बेटे और बड़े जमाई ने उनका ईलाज शहर के सबसे  बड़े अस्पताल में करवाया पर आंखों की रोशनी वापस ना आ सकी।

दस साल पहले पति  और फिर  बहु की मौत के बाद पूरे घर और पोते पोती को संभालने की जिम्मेदारी उनके ही कांधे आ गई थी।

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बेटा अपने कारोबार में इतना व्यस्त रहता कि उसे कई कई दिन घर आने की फुर्सत तक ना मिलती थी। ऐसे में बेटे को कैसे कहें कि उसको ले जाए बेटी के ससुराल ।

वैसे भी वहां जाने के लिए कितना सामान जुटाना होगा।  नाती को पहली बार देखेगी तो उसके लिए सोने की कोई चीज लेनी ही होगी। बेटी जमाई और उनके पूरे परिवार के लिए कपड़े लेने होंगे। बेटी के लिए भी कोई गहना ले लेगी, उसकी देवरानी जेठानी के लिए साड़ी के साथ साथ कम-से-कम एक बिछिया तो रख ही लेगी, चूड़ी बिंदी सिंदूर। फल मिठाई इतनी दूर से ले जाना मुश्किल होगा तो उसके पैसे ही दे देगी। मन में लिस्ट बनाती और उदास हो जाती।

 इतने पैसों के लिए बेटे को कहना होगा। वो बेचारा अपने बिजनेस में होते नुकसान से पहले ही परेशान है। उससे पैसों के लिए नहीं कहेगी, अपने कुछ जेवर कुछ जोड़े हुए पैसे कब काम आएंगे।

 आज बबुआ के पापा होते तो काहे इतनी चिंता करती , वो तो सब इंतजाम कर देते। वो उदास होकर बैठ जाती।

दादी को गुमसुम उदास देखकर पोती ने हिम्मत दिखाई और जाने की तैयारी शुरू की।

 बड़ी बेटी और जमाई ने अपनी व्यस्तता दिखाते हुए कहा, " हम तो गांव जा रहे हैं महीने भर पहले ही टिकट कटवा चुके हैं।"

 उन्होंने उनके साथ जाने से तो इनकार कर दिया और उन्हें समझने की बहुत कोशिश की...

" मां रास्ते में कुछ हो गया आपको तो मुश्किल हो जाएगी। बात मानिए आप मत जाईए।"

"कुछ होना होगा तो कहीं भी कभी भी हो सकता है। मैं नहीं जाऊंगी और उसके मायके से कोई नहीं  जाएगा तो उसका मन टूट जाएगा। आज तेरे पापा होते या भाई के पास समय होता तो वो चले जाते। तुम दोनों को भी बुलाया है पर पहले तू अपना ससुराल देख, उन्हें नाराज मत कर।"

"बड़ी बुआ और फुफा जी आप चिंता मत करो मैं दादी को आराम से ले जाऊंगी फिर छोटी बुआ और फुफा जी हमें स्टेशन लेने आएंगे। ट्रेन में चौबीस घंटो की ही तो बात है।"

"हां बुआ जी मैं भी तो जा रहा हूं दादी के साथ।"

ललिता की चौदह साल की पोती और दस साल का पोता उनके साथ जाने के लिए बहुत उत्साहित थे।

ललिता के मन में डर तो था बच्चों के साथ जाने में, कि कैसे संभालेंगी वो उन्हें जब उन्हें ही हर कदम पर सहारे की जरूरत है।

वो दिन भी आ गया जब पूरी तैयारी के साथ अपनी छड़ी पकड़े आंखों में काला चश्मा लगाए ललिता अपने पोते पोती के साथ दिल्ली से रांची जाने वाली ट्रेन में बैठी थी।

ललिता के बेटे ने अपने बच्चों को समझाया… " दादी मां को बिल्कुल परेशान मत करना। किसी भी स्टेशन पर ट्रेन से नीचे मत उतरना । जब ट्रेन रांची पहुंचने वाली होगी  तब छोटी बुआ जी को फोन कर देना वो गाड़ी भिजवा देंगी। दादी का पूरा ध्यान रखना। "

उसकी आंखों के कोर से कुछ बूंदें लुढ़क आई थी। बाप के जाने के बाद आर्थिक जिम्मेदारी निभाते निभाते अपने बच्चों और मां के लिए समय ही नहीं दे पाने का अफसोस झलक रहा था उसके चेहरे पर।

"अरे! बिटवा परेशान काहे होता है। मेरे तो तीन तीन बेटे हैं, क्या हुआ अभी तू साथ नहीं जा पा रहा तो तेरे बच्चे हैं ना मेरे साथ और वहां दमाद जी भी तो हैं।"

बेटे ने मां और अपने बच्चों से विदा ली जब ट्रेन ने सीटी मारी ।

छुक-छुक करती ट्रेन रफ्तार पकड़ने लगी। दोनों बच्चे बहुत खुश थे। खिड़की के पास बैठा सोमू उनका पोता अपनी दादी को बाहर का दृश्य बड़ा खुश होकर बताता जा रहा था।

 ललिता को लग रहा था वो अपनी आंखों से ही सारा दृश्य देख रही है।

पोती भी दादी के पास बैठी थी, हर थोड़ी देर बाद पानी और चाय के लिए पूछती। ललिता जी ने तो दो दिन से खाना इसलिए नहीं खाया कि  ट्रेन में उसे वाशरूम ले जाने में बच्चों को परेशानी होगी। सुगर की दवाई खाने के लिए वो सिर्फ एक बिस्कुट खाती।

दिन भर अच्छे से बीता। शाम होते ही ललिता जी को घबराहट होने लगी पर लगा शायद गर्मी के कारण हो रहा है। ठंडे पानी में रुमाल भिगो कर पोती बार बार उनका चेहरा पोंछ देती जिससे थोड़ी राहत मिलती।

"दादी कुछ खा लो तो अच्छा लगेगा। आपको भूख के कारण कमजोरी हो जाएगी तो गाड़ी से कैसे उतरोगी।"

"अरे! मेरी चिंता मत कर तुम दोनों भाई बहन खाना खा लो और सो जाओ। बस अब कुछ घंटे की ही तो बात है। सुबह पांच बजे गाड़ी पहुंच ही जाएगी स्टेशन पर।"

बच्चे खाना खा कर सो गए, ललिता ने बहुत कोशिश की उसे भी नींद आ जाए। उसके जीवन में कुछ सालों से अंधेरा ऐसा छा गया था कि दिन रात एक समान ही था उसके लिए।

रात के दो बजे ललिता की पोती ने अपनी बुआ को रोते हुए फोन किया।

"बुआ आ जाओ आप... जल्दी आ जाओ... दादी बेहोश हो गई है।"

"कहां हो तुम लोग, ट्रेन तो सुबह पांच बजे आने वाली थी। तेरे फुफा जी दो घंटे बाद उठेंगे और गाड़ी लेकर आएंगे स्टेशन पर तुम्हें लेने।"

"बुआ हम ट्रेन में ही है पता नहीं कौन सी जगह है। दादी को वाशरूम जाना था वो वहीं बेहोश हो गई बड़ी मुश्किल से कुछ लोगों की मदद से अपनी सीट तक लाएं हैं। पर उन्हें होश नहीं आ रहा।"

"गुड़िया घबरा मत। बस तू और सोमू दादी के हाथ पैर मलते रहो। देखो आसपास के लोग कुछ मदद कर दें तो। बस तीन घंटे की बात है।"

"बुआ प्लीज़ आप आ जाओ। "

ट्रेन अचानक रुक गई। चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा था, झारखंड के पहाड़ और जंगल देख बच्चे डर रहे थे।

सिया ने अपने पति सुहास को उठाया और सारी बात बताई। उन्होंने तुरंत रेलवे इन्क्वायरी से ट्रेन की सारी जानकारी ली। पता चला ट्रेन के इंजन में खराबी आने से ट्रेन रांची से दो सो किलोमीटर पहले ही रुक गई है और जब तक कोई इंतजाम नहीं होता तब तक ट्रेन वहीं रुकी रहेगी।

सारी डिटेल्स लेने के बाद सुहास ने अपने डॉक्टर दोस्त मयंक को फोन किया।

स्टेशन तक जाने के लिए तो सिया और वो तैयार थे पर अब उस सूनसान जगह सिया को ले जाने से मना कर दिया।

"मयंक साथ रहेगा तो मुझे सुविधा होगी ।

उसे रांची के बाहर का भी पता है और मां क्यों बेहोश हो गई वो देख लेगा जरूरत पड़ी तो मां को अस्पताल ले जाएंगे।"

इधर सिया की घबराहट बढ़ती जा रही थी, मां और उसके भतीजे भतीजी सही सलामत आ जाए। क्यों उसने ज़िद की मां को आने के लिए वो खुद को कोस रही थी।

उधर ट्रेन में दोनों बच्चों का बुरा हाल था, ललिता जी के कपड़े गंदे हो गए थे, और वाशरूम से बाहर आते वक्त गिरने से माथे पर भी चोट लगी थी। बच्चों ने बहुत हिम्मत की ।

 उनके लिए उनकी मां पापा बाबा सब दादी ही थीं।

कहीं मम्मी और बाबा की तरह दादी भी हमें छोड़कर भगवान के पास न चली जाए इसी बात का डर लग रहा था।

सुहास एक घंटे बाद उस जगह पहुंच गए थें जहां ट्रेन रुकी थी। अपने दोस्त की मदद से ललिता जी को पहले होश में लाया फिर गोद में उठाकर ट्रेन से उतारकर अपनी गाड़ी में बिठाया। बच्चों को भी बड़े प्यार से गाड़ी से उतारा।

"तुम दोनों बहुत बाहदुर हो। दिल्ली से रांची अपनी दादी को लेकर आने की हिम्मत दिखाई यही सबसे बड़ी बात है। समय पर फोन करके हमें बता दिया यह बहुत अच्छा किया।"

ललिता जी ने जब अपने दामाद की आवाज सुनी तो बहुत खुश हुई पर उनके मन में झिझक थी कि कैसे दामाद की गोद में चढ़े।

" मां मैं आपका बेटा ही हूं। जिस तरह आपकी बेटी मेरी मां की सेवा में लगी रहती है उसी तरह मेरा भी तो फ़र्ज़ बनता है। "

"भगवान ऐसा दामाद सबको दे। वैसे मुझे क्या हुआ था।"

"मां पहली बात तो आप मुझे दामाद जी मत बोलिए।"

"मां जी आपको हार्ट अटैक आया था पर अब आप बिल्कुल सुरक्षित हैं, आपके इस बेटे ने मुझे जैसे ही बताया तब इसी बात का शक हुआ था। मैं तुरंत कुछ जरूरी दवाई लेकर आ गया। "

डॉक्टर मयंक ने बताया।

थोड़ी देर बाद ललिता जी अपनी बेटी के ससुराल पहुंची, कार से उतरते वक्त भी वो अपनी दामाद की गोद में ही कार से बाहर आ रही थी।

आंखों ने साथ छोड़ दिया तो क्या हुआ जिसका दामाद बेटे के समान है उसे किस बात की चिंता। सिया की आंखों से खुशी के आंसू बह रहे थे अपनी मां और भतीजे भतीजी को देखकर।

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