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कुत्सा - मुंशी प्रेमचंद

07:00 PM Apr 15, 2024 IST | Reena Yadav
कुत्सा   मुंशी प्रेमचंद
kutsa by munshi premchand
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अपने घर में आदमी बादशाह को भी गाली देता है। एक दिन मैं अपने दो-तीन मित्रों के साथ बैठा हुआ एक राष्ट्रीय संस्था के व्यक्तियों की आलोचना कर रहा था। हमारे विचार में राष्ट्रीय कार्य-कर्ताओं को स्वार्थ और लोभ से ऊपर रहना चाहिए। ऊँचा और पवित्र आदर्श सामने रखकर ही राष्ट्र की सच्ची सेवा की जा सकती है। कई व्यक्तियों के आचरण ने हमें क्षुब्ध कर दिया था और हम इस समय बैठे अपने दिल का गुबार निकाल रहे थे। सम्भव था, उस परिस्थिति में पड़कर हम और भी गिर जाते, लेकिन उस वक्त तो हम विचारक के स्थान पर बैठे हुए थे और विचारक उदार बनने लगे, तो न्याय कौन करे? विचारक को यह भूल जाने में विलम्ब नहीं होता कि उसमें भी कमजोरियाँ हैं। उसमें और अभियुक्त में केवल इतना ही अन्तर है कि या तो विचारक महाशय उस परिस्थिति में पड़े नहीं, या पड़कर भी अपनी चतुराई से बेदाग निकल गए।

पद्यादेवी ने कहा- महाशय ‘क' काम तो बड़े उत्साह से करते हैं, लेकिन अगर हिसाब देखा जाए, तो उनके जिम्मे एक हजार से कम न निकलेगा।

उर्मिला देवी बोली- खैर, ‘क' को तो क्षमा किया जा सकता है। उनके बाल- बच्चे हैं आखिर उनका पालन-पोषण कैसे करें? जब यह चौबीसों घण्टे सेना-कार्य ही में लगा रहता है, तो उसे कुछ-न-कुछ तो मिलना ही चाहिए। उस योग्यता का आदमी 500 रु. वेतन पर भी न मिलता। अगर इस साल-भर में उसने एक हजार खर्च कर डाला, तो बहुत नहीं है। महाशय ‘ख' तो बिलकुल निहंग हैं। ‘जोरू न जांता, अल्लाह मियाँ से नाता' पर उसके जिम्मे भी एक हजार से कम न होंगे। किसी को क्या अधिकार है कि वह गरीबों का धन मोटर की सवारी और यार- दोस्तों की दावत में उड़ा दे?

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श्यामादेवी उद्दण्ड होकर बोलीं- महाशय ‘ग' को इसका जवाब देना पड़ेगा, भाई साहब! यों बचकर नहीं निकल सकते। हम लोग भिक्षा माँग-माँगकर पैसे लाते हैं, इसीलिए कि यार-दोस्तों की दावतें हों, शराब उड़ायी जाएँ, और मुजरें सुने जाएं। रोज सिनेमा की सैर होती है। गरीबों का धन यों उड़ाने के लिए नहीं है। यहाँ पाई-पाई का लेखा समझाना पड़ेगा। मैं भरी सभा में कह दूँगी। उसे जहाँ पाँच सौ वेतन मिलता हो, वहाँ चले जा। राष्ट्र के सेवक बहुतेरे निकल आएँगे।

मैं भी एक बार इसी संस्था का मन्त्री रह चुका हूँ। मुझे गर्व है कि मेरे ऊपर कभी किसी ने इस तरह का आक्षेप नहीं किया, पर न जाने क्यों लोग मेरे मन्त्रित्व से सन्तुष्ट नहीं थे। लोगों का खयाल था कि मैं बहुत कम समय देता हूँ और मेरे समय में संस्था ने कोई गौरव बढ़ाने वाला कार्य नहीं किया, इसलिए मैंने रूठकर इस्तीफा दे दिया। मैं उसी पद से बेलौस रहकर भी निकाला गया। महाशय ‘ग' हजारों हड़प करके भी उसी पद पर जमे हुए हैं। क्या यह मेरे उनसे कुनह रखने की काफी वजह न थी? मैं चतुर खिलाड़ी की भांति खुद तो कुछ न करना चाहता था, किन्तु परदे की उमड़ से रस्सी खींचता रहता था।

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मैंने रद्दा जमाया- देवीजी, आप अन्याय कर रही हैं। महाशय ‘ग' से ज्यादा दिलेर और…

उर्मिला ने मेरी बात काटकर कहा- मैं ऐसे आदमी को दिलेर नहीं कहती, जो छिपकर जनता के रुपए से शराब पिए। जिन शराब की दुकानों पर हम धरना देने जाते थे, उन्हीं दुकानों से उनके लिए शराब आती थी। इससे बढ़कर बेवफाई और क्या हो सकती है? मैं ऐसे आदमी को देशद्रोही कहती हूँ।

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मैंने डोरी और खींची- लेकिन यह तो तुम भी जानती हो कि महाशय ‘ग' केवल अपने प्रभाव से हजारों रुपये चंदा वसूल कर लाते हैं। विलायती कपड़े को रोकने का उन्हें जितना श्रेय दिया जाए, थोड़ा है।

उर्मिला - देवी कब मानने वाली थीं? बोली- उन्हें चंदा इस संस्था के नाम पर मिलता है, व्यक्तिगत रूप से एक धेला भी लाएं तो कहूँ। रहा विलायती कपड़ा। जनता नामों को पूजती है और महाशय की तारीफें हो रही हैं, पर सच पूछिए तो यह श्रेय हमें मिलना चाहिए। वह तो कभी किसी दुकान पर गए भी नहीं। आज सारे शहर में इस बात की चर्चा हो रही है। जहाँ चंदा माँगने जाओ, वहीं लोग यही आरोप लगाने लगते हैं। किस-किसका का मुँह बंद कीजिएगा? आप बनते तो हैं जाति के सेवक, मगर आचरण ऐसा कि शोहदों का भी न होगा। देश का उद्धार ऐसे विलासियों के हाथों नहीं हो सकता। उसके लिए सच्चा त्याग होना चाहिए।

यही आलोचनाएँ हो रही थी कि एक दूसरी देवी आई भगवती। बेचारी चंदा माँगने आई थीं। थकी-मांदी चली आ रही थीं। यहाँ जो पंचायत देखी, तो रम गईं। उनके साथ उनकी बालिका भी थी। कोई दस साल उम्र होगी। इन कामों में बराबर माँ के साथ रहती थी। उसे जोर की भूख लगी हुई थी। घर की कुंजी भी भगवती देवी के पास थी। पतिदेव दफ्तर से आ गए होंगे। घर का खुलना भी जरूरी था, इसलिए मैंने बालिका को उसके घर पहुँचाने की सेवा स्वीकार की।

कुछ दूर चलकर, बालिका ने कहा- आपको मालूम है, महाशय ‘ग' शराब पीते हैं?

मैं इस आरोप का समर्थन न कर सका। भोली-भाली बालिका के हृदय में कटुता, द्वेष. और प्रपंच का विष बोना मेरी ईर्ष्यालु प्रकृति को भी रुचिकर न जान पड़ा। जहाँ कोमलता और सरलता, विश्वास और माधुर्य का राज्य होना चाहिए, वहाँ कुत्सा और क्षुद्रता का मर्यादित होना कौन पसन्द करेगा? देवता के गले में काँटों की माला कौन पहनाएगा?

मैंने पूछा- तुझसे किसने कहा कि महाशय ‘ग' शराब पीते हैं?

‘वाह, पीते ही हैं, आप क्या जानें?'

‘तुम्हें कैसे मालूम हुआ?'

‘सारे शहर के लोग कह रहे हैं।'

‘शहर वाले झूठ बोल रहे हैं।'

‘शहर वाले झूठ बोल रहे हैं…?'

बालिका ने मेरी ओर अविश्वास की आंखों से देखा। शायद वह समझी, मैं भी महाशय ‘ग' के ही भाई-बंदों में हूँ।

‘आप कह सकते हैं, महाशय ‘ग' शराब नहीं पीते?'

‘हां, वह कभी शराब नहीं पीते।'

‘और महाशय ‘क' ने जनता के रुपए भी नहीं उड़ाए?'

‘यह भी असत्य है।'

‘और महाशय ‘ख' मोटर पर हवा खाने नहीं जाते?'

‘मोटर पर हवा खाना कोई अपराध नहीं है।'

‘अपराध नहीं है राजाओं के लिए, रईसों के लिए, अफसरों के लिए, जो जनता का खून चूसते हैं, देश-भक्ति का दम भरने वालों के लिए वह बहुत बड़ा अपराध है।'

‘लेकिन यह तो सोचो, इन लोगों को कितना दौड़ना पड़ता है। पैदल कहाँ तक दौड़े?'

‘पैर गाड़ी पर तो चल सकते हैं। यह कुछ बात नहीं है। ये लोग शान दिखाना चाहते हैं, जिसमें लोग समझें कि यह भी बहुत बड़े आदमी हैं। हमारी संस्था गरीबों की संस्था है। यहाँ मोटर पर उसी वक्त बैठना चाहिए, जब और किसी तरह काम ही न चल सके और शराबियों के लिए तो यहाँ स्थान ही न होना चाहिए। आप तो चंदा माँगने जाते नहीं। हमें कितना लज्जित होना पड़ता है, आपको क्या मालूम।'

मैंने गम्भीर होकर कहा- ‘तुम्हें लोगों से कह देना चाहिए, यह सरासर गलत है। हम और तुम इस संस्था के शुभचिन्तक हैं। अपने कार्यकर्ताओं का अपमान करना उचित नहीं। हमें तो इतना ही देखना चाहिए कि वे हमारी कितनी सेवा करते हैं। मैं यह नहीं कहता कि क, ख, ग, में बुराइयाँ नहीं हैं। संसार में ऐसा कौन है, जिसमें बुराइयाँ न हो, लेकिन बुराइयों के मुकाबले में उनमें गुण कितने हैं, यह तो देखो। हम सभी स्वार्थ पर जान देते हैं-मकान बनाते हैं, जायदाद खरीदते हैं। और कुछ नहीं, तो आराम से घर में सोते हैं। ये बेचारे चौबीसों घंटे देश-हित की चिन्ता में डूबे रहते हैं। तीनों ही साल-साल भर की सजा काटकर, कई महीने हुए, लौटे हैं। तीनों ही के उद्योग से अस्पताल और पुस्तकालय खुले। इन्हीं वीरों ने आंदोलन करके किसानों का लगान कम कराया। अगर इन्हें शराब पीना और धन कमाना होता, तो इस क्षेत्र में आते ही क्यों?'

बालिका ने विचारपूर्ण दृष्टि से मुझे देखा। फिर बोली- ‘यह बतलाइए, महाशय ‘ग' शराब पीते हैं या नहीं?'

मैंने निश्चयपूर्वक कहा- ‘नहीं। जो यह कहता है, वह झूठ बोलता है।'

भगवती देवी का मकान आ गया। बालिका चली गई। मैं आज झूठ बोलकर जितना प्रसन्न था, उतना कभी सच बोलकर भी न था। मैंने एक बालिका के निर्मल हृदय को कुत्सा के पंक में गिरने से बचा लिया था।


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