For the best experience, open
https://m.grehlakshmi.com
on your mobile browser.

मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 22

08:00 PM Mar 30, 2024 IST | Guddu KUmar
मनोरमा   मुंशी प्रेमचंद भाग   22
manorma munshi premchand
Advertisement

शंखधर के चले जाने के बाद चक्रधर को संसार शून्य जान पड़ने लगा।

सेवा का वह पहला उत्साह लुप्त हो गया। उसी सुन्दर युवक की सूरत आंखों में नाचती रहती। उसी की बातें कानों में गूंजा करतीं। भोजन करने बैठते, तो उसकी जगह थाली देखकर उनके मुंह में कौर न धंसता। हरदम कुछ खोये-खोये से रहते। बार-बार यही जी चाहता था कि उसके पास चला जाऊं।

मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1

Advertisement

बार-बार चलने का इरादा करते, पर रुक जाते। साईगंज से जाने का अब उनका जी नहीं चाहता था। इतने दिनों तक यह एक जगह कभी नहीं रहे। शंखधर जिस कम्बल पर सोता था, उसे यह रोज झाड़-पोछकर तह करते हैं। शंखधर अपनी खंजरी यहीं छोड़कर गया है। चक्रधर के लिए संसार में इससे बहुमूल्य कोई वस्तु नहीं है। शंखधर की पुरानी धोती और फटे हुए कुरते को सिरहाने रखकर सोते हैं। रमणी अपने सुहाग के जोड़े की भी इतनी देख-रेख न करती होगी।

संध्या हो गयी है। चक्रधर मन्दिर की दालान में बैठे हुए चलने की तैयारी कर रहे हैं। अब यहां नहीं रहा जा सकता। उस देवकुमार को देखने के लिए आज वह बहुत बिकल हो रहे हैं।

Advertisement

रात को इन्हें एक भयंकर स्वप्न दिखाई दिया। क्या देखते हैं कि शंखधर एक नदी के किनारे उनके साथ बैठा हुआ है। सहसा दूर से एक नाव आती हुई दिखाई दी। उसमें से मन्नासिंह उतर पड़ा। उसने हंसकर कहा-बाबूजी, यही शंखधर हैं न? मैं बहुत दिनों से खोज रहा हूं। राजा साहब इन्हें बुला रहे हैं। शंखधर उठकर मन्नासिंह के साथ चला। दोनों नाव पर बैठे, मन्नासिंह डांड़ चलाने लगा। चक्रधर किनारे ही खड़े रह गये। नाव थोड़ी ही दूर जाकर चक्कर खाने लगी। शंखधर ने दोनों हाथ उठाकर उन्हें बुलाया। वह दौड़े, पर इतने में नाव डूब गई। एक क्षण में फिर नाव ऊपर आ गयी। मन्नासिंह पूर्ववत डांड़ चला रहा था, शंखधर का पता न चला।

चक्रधर जोर से एक चीख मारकर जग पड़े। उनका हृदय धक- धक कर रहा था। उनके मुख से ये शब्द निकल पड़े-ईश्वर! यह स्वप्न है, या होने वाली बात! उसी वक्त उठ बैठे, बकुचा लिया और चल खड़े हुए।

Advertisement

चांदनी छिटकी हुई थी। चारों ओर सन्नाटा था। पर्वत-श्रेणियां अभिलाषाओं की समाधियों-सी मालूम होती थीं। वृक्षों के समूह श्मशान से उठने वाले धुएं की तरह नजर आते थे। चक्रधर कदम बढ़ाते हुए पथरीली पगडण्डियों पर चले जाते थे।

चक्रधर की इस वक्त वह मानसिक दशा हो गयी थी, जब अपने ही को अपनी खबर नहीं रहती। वह सारी रात पथरीले पथ पर चलते रहे। प्रातःकाल रेलवे स्टेशन मिला। गाड़ी आयी। उस पर जा बैठे। गाड़ी में कौन लोग बैठे थे, उन्हें देख-देखकर लोग उनसे क्या प्रश्न करते थे, उसका वह क्या उत्तर देते थे, रास्ते में कौन-कौन से स्टेशन मिले, कब दोपहर हुई, कब संध्या हुई, इन बातों का उन्हें जरा भी ज्ञान न हुआ। पर वह कर वही रहे थे, जो उन्हें करना चाहिये था। किसी की बात का ऊटपटांग जवाब न देते थे, जिन गाड़ियों पर बैठना न चाहिए था, उन पर न बैठते थे, जिन स्टेशनों पर न उतरना चाहिए था, वहां न उतरते थे। अभ्यास बहुधा चेतना का स्थान ले लिया करता है।

तीसरे दिन प्रातःकाल गाड़ी काशी जा पहुंची। ज्यों ही गाड़ी गंगा के पुल पर पहुंची, चक्रधर की चेतना जाग उठी। संभल बैठे। गंगा के बायें किनारे पर हरियाली छायी हुई थी। दूसरी ओर काशी का विशाल नगर, ऊंची अट्टालिकाओं और गगनचुम्बी मन्दिर-कलशों से सुशोभित, सूर्य के स्निग्ध प्रकाश से चमकता हुआ खड़ा था। मध्य में गंगा मन्दगति से अनन्त की ओर दौड़ी चली जा रही थी। आज बहुत दिनों के बाद यह चिर-परिचित दृश्य देखकर चक्रधर का हृदय उछल पड़ा। भक्त का उद्गार मन में उठा। एक क्षण के लिए वह अपनी सारी चिन्ताएं भूल गये, गंगा-स्नान की प्रबल इच्छा हुई। इसे वह किसी तरह न रोक सके।

स्टेशन पर कई पुराने मित्रों से उनकी भेंट हो गयी। उनकी सूरतें कितनी बदल गयी थीं। वे चक्रधर को देखकर चौंके, कुशल पूछी और जल्दी से चले गये। चक्रधर ने मन में कहा-कितने रूखे लोग हैं कि किसी की बातें करने की भी फुरसत नहीं।

दशाश्वमेध घाट पहुंचकर तांगे से उतरे। इसी घाट पर यह पहले भी स्नान किया करते थे। सभी पण्डे उन्हें जानते थे; पर आज किसी ने भी प्रसन्नचित्त से उनका स्वागत नहीं किया। ऐसा जान पड़ता था कि उन लोगों को उनसे बातें करते जब हो रहा है किसी ने न पूछा, कहां-कहां घूमे? क्या करते रहे!

स्नान करके चक्रधर फिर तांगे पर बैठे और राजभवन की ओर चले। ज्यों-ज्यों भवन निकट आता था। उसका आशंकित हृदय अस्थिर होता जाता था।

तांगा सिंह-द्वार पर पहुंचा। वह राज्य-पताका, जो मस्तक ऊंचा किये लहराती रहती थी, झुकी हुई थी। चक्रधर का दिल बैठ गया। इतने जोर से धड़कन होने लगी, मानो हथौड़े की चोट पड़ रही हो।

तांगा देखते ही एक बूढ़ा दरबान आकर खड़ा हो गया, चक्रधर को ध्यान से देखा और भीतर की ओर दौड़ा। एक क्षण में अन्दर हाहाकार मच गया। चक्रधर को मालूम हुआ कि वह किसी भयंकर जन्तु के उदर में पड़े हुए तड़फड़ा रहे हैं।

किससे पूछें, क्या विपत्ति आयी है? कोई निकट नहीं आता। सब दूर सिर झुकाए खड़े हैं। वह कौन लाठी टेकता हुआ चला आता है? अरे! यह तो मुंशी वज्रधर हैं। चक्रधर तांगे से उतरे और दौड़कर पिता के चरणों पर गिर पड़े।

मुंशीजी ने तिरस्कार भाव से कहा-दो-चार दिन पहले न आते बना कि लड़के का मुंह तो देख लेते। अब आये हो; जबकि सर्वनाश हो गया! क्या बैठे यही मना रहे थे।

चक्रधर रोये नहीं-गम्भीर एवं सुदृढ़ भाव से बोले- ईश्वर की इच्छा! मुझे किसी ने एक पत्र तक न लिखा। बीमारी क्या थी?

मुंशी-अजी, सिर तक न दुखा, बीमारी होना किसे कहते हैं? बस, होनहार! तकदीर! रात को भोजन; करके बैठे एक पुस्तक पढ़ रहे थे कि स्वर्ग की राह ली। किसी हकीम बैद्य की अक्स काम नहीं करती कि क्या हो गया था। जो सुनता है, दांतों तले अंगुली दबाकर रह जाता है। बेचारे राजा साहब भी इस शोक में चल बसे। तुमने उसे भुला दिया था; पर उसे तुम्हारे नाम की रट लगी हुई थी। इस दुनिया में क्या कोई रहे! जी भर गया। अब तो जब तक जीना है, तक तक रोना है। ईश्वर बड़ा ही निर्दयी है।

चक्रधर ने लम्बी सांस खींचकर कहा-मेरे कर्मों का फल है। ईश्वर को दोष न दीजिए।

मुंशी-तुमने ऐसे कर्म किए होंगे; मैंने नहीं किए। मुझे क्यों इतनी बड़ी चोट लगायी? मैं भी अब तक ईश्वर को दयालु समझता था; लेकिन अब वह श्रद्धा नहीं रही। गुणानुवाद करते सारी उम्र बीत गयी। उसका यह फल! उस पर कहते हो, ईश्वर को दोष न दीजिए। ऐसे निर्दयी की महिमा कौन गाये और क्यों गाये? मुरदे आदमी तुम्हारी आंखों से आंसू भी नहीं निकलते, खड़े ताक रहे हो। मैं कहता हूं-रो लो, नहीं तो कलेजे में नासूर पड़ जाएगा। बड़े-बड़े त्यागी देखें हैं; लेकिन जो पेट भरकर रोया नहीं, उसे फिर हंसते नहीं देखा। आओ, अन्दर चलो। बहू ने दीवार से सिर पटक दिया, पट्टी बांधे पड़ी हुई है। तुम्हें देखकर उसे धीरज हो जाएगा। मैं डरता हूं कि वहां जाकर कहीं तुम भी रो न पड़ो, नहीं तो उसके प्राण ही निकल जायेंगे।

यह कहकर मुंशीजी ने उनका हाथ पकड़ लिया और अंतःपुर तक ले गये। अहल्या को उनके आने की खबर मिल गयी। उठना चाहती थी, पर उठने की शक्ति न थी।

चक्रधर ने सामने आकर कहा-अहल्या?

अहल्या ने फिर चेष्टा की। बरसों की चिंता, कई दिनों के शोक और उपवास एवं बहुत-सा रक्त निकल जाने के कारण शरीर जीर्ण हो गया था। करवट घूमकर दोनों हाथ पति के चरणों की ओर बढ़ाए; पर वह चरणों को स्पर्श न कर सकी, हाथ फैले रह गये; और एक क्षण में भूमि पर लटक गये। चक्रधर ने घबराकर उसके मुख की ओर देखा। निराशा मुरझाकर रह गयी थी। नेत्रों में करुण याचना भरी हुई थी।

चक्रधर ने रुंधे हुए स्वर में कहा-अहल्या; मैं आ गया, अब कही न जाऊंगा। ईश्वर से कहता हूं, कहीं न जाऊंगा। हाय ईश्वर! क्या तू मुझे यही दिखाने के लिए यहां लाया था।

अहल्या ने एक बार तृषित, दीन एवं तिरस्कामय नेत्रों से पति की ओर देखा। आंखें सदैव के लिए बन्द हो गयीं।

उसी वक्त मनोरमा आकर द्वार पर खड़ी हो गयी। चक्रधर ने आंसुओं को रोकते हुए कहा-रानीजी, जरा आकर इन्हें चारपाई से उतरवा दीजिए।

मनोरमा ने अन्दर आकर अहल्या का मुख देखा और रोकर बोली-आपके दर्शन बदे थे, नहीं तो प्राण तो कब के निकल चुके थे। दुखिया का कोई भी अरमान पूरा न हुआ।

यह कहते-कहते मनोरमा की आंखों से आंसुओं की झड़ी लग गयी।

Advertisement
Tags :
Advertisement