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क्या है निर्जला एकादशी व्रत का महात्म्य ?

01:37 PM Jul 01, 2022 IST | sahnawaj
क्या है निर्जला एकादशी व्रत का महात्म्य
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Importance of Nirjala Ekadashi 2022

एक दिन बिना पानी के रहना भारतीय उपासना पद्धति में कष्ट सहिष्णुता की पराकाष्ठा को ही दर्शाता है। धर्म, आस्था व आत्मसंयम की साधना के इस अनूठे पर्व के बारे में विस्तार से जानें लेख से।

भा रतीय उपासना पद्धति में व्रत व उपवास का बहुत महत्त्व है। हमारे यहां प्रत्येक मास कोई न कोई बड़ा व्रत होता ही है। ऐसा ही एक महान व पुण्यकारी व्रत है निर्जला एकादशी। इस व्रत के करने से आरोग्य की वृद्धि तथा उत्तम लोकों की प्राप्ति होती है।

महाभारत के अनुसार अधिमास सहित एक वर्ष की छब्बीसों एकादशियां न की जा सकें तो केवल निर्जला एकादशी का ही व्रत कर लेने से पूरा फल प्राप्त हो जाता है।

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वृषस्थे मिथुनस्थेऽर्के शुक्ला ह्यïोकादशी भवेत्
ज्येष्ठे मासि प्रयत्रेन सोपाष्या जलवॢजता

निर्जला व्रत करने वाले को अपवित्र अवस्था में आचमन के सिवा बिंदुमात्र भी जल ग्रहण नहीं करना चाहिए। यदि किसी प्रकार जल उपयोग में ले लिया जाए तो व्रत भंग हो जाता है। निर्जला एकादशी को संपूर्ण दिन-रात निर्जल व्रत रहकर द्वादशी को प्रात: स्नान करना चाहिए तथा सामर्थ्य के अनुसार वस्तुएं और जलयुक्त कलश का दान करना चाहिए। इसके अनन्तर व्रत के पारायण का प्रसाद ग्रहण करना चाहिए।

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आत्मसंयम की होती है परीक्षा

निर्जला एकादशी के दिन पानी का वितरण देखकर आप के मन में एक प्रश्न अवश्य आता होगा कि जहां इस दिन के उपवास में पानी न पीने का व्रत होता है तो यह पानी वितरण करने वाले कहीं लोगों का धर्म भ्रष्ट तो नहीं कर रहे हैं लेकिन इसका मूल आशय यह है कि व्रतधारी लोगों के लिए यह एक कठिन परीक्षा की ओर संकेत करता है कि चारों ओर आत्मतुष्टि के साधन रूपी जल का वितरण देखते हुए भी उसकी ओर आपका मन न चला जाए।
साधना में यही होता है कि साधक के सम्मुख सारे भोग पदार्थ स्वयमेव उपस्थित हो जाते हैं। वस्तु प्रदार्थ उपलब्ध होते हुए उनका त्याग करना ही त्याग है। अन्यथा उनके न होने पर तो अभाव कहा जाएगा। अत: अभाव को त्याग नहीं कहा जा सकता। दूसरी ओर जो लोग व्रत नहीं करते, लेकिन गर्मी के कारण व्याकुल हो जाते हैं और उनको ऐसी स्थिति में एक गिलास शीतल पानी मिल जाता है तो उनकी आत्मा प्रसन्न हो जाती है। अत: इस उपासना का सीधा संबंध एक ओर जहां पानी न पीने के व्रत की कठिन साधना है वहीं आम जनता को पानी पिलाकर परोपकार की प्राचीन भारतीय परंपरा से भी है।
पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच तत्त्वों से ही मानव देह निर्मित होती है। अत: पांचों तत्त्वों को अपने अनुकूल बनाने की साधना अति प्राचीन काल से हमारे देश में चली आ रही है। अत: निर्जला एकादशी अन्नमय कोश की साधना से आगे जलमय कोश की साधना का पर्व है। पंचतत्त्वों की साधना को योग दर्शन में गंभीरता से बताया गया है। अत: साधक जब पांचों तत्त्वों को अपने अनुकूल कर लेता है तो उसे न तो शारीरिक कष्ट होते हैं और न ही मानसिक पीड़ा। साथ ही साधना द्वारा कष्टों को सहन करने का अभ्यास हो जाने पर समाज में एक-दूसरे के प्रति सहयोग की भावना जागती है।

जल संरक्षण का संदेश

यह व्रत आयु, आरोग्य और पापों का नाश करने वाला माना गया है। वहीं इसके व्यावहारिक पक्ष पर विचार करें तो पाते हैं कि यह व्रत वास्तव में पानी की अहमियत को बताता है। जल पंच तत्त्वों में से एक माना गया है। चूंकि अक्सर इंसान किसी विषय या वस्तु का महत्त्व उससे शरीर और मन में होने वाले अनुभव के आधार पर ही समझता है। यही कारण है कि इस व्रत का विधान जल का महत्त्व बताने के लिए ही धर्म के माध्यम से परंपराओं में शामिल किया गया। जब व्रती पूरे दिन जल ग्रहण नहीं करता है, तब जल की प्यास से खुद-ब-खुद उसे जल का महत्त्व महसूस हो जाता है। किंतु धर्म भाव के कारण वह दृढ़ता से व्रत संकल्प पूरा करता है। यह समय एक कठिन तप के समान होता है। वह भी गर्मी के ऐसे मौसम में जबकि पानी का अभाव होता है और जल के साथ ठंडक की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है। यह बातें भारतीय मनीषियों की दूरदर्शिता को उजागर करती है।
दरअसल, यह व्रत संदेश देता है कि हम जल का संरक्षण करें। हर व्यक्ति जल उपलब्ध होने पर यह बात भूल जाता है और जल की कमी होने पर हाहाकार मचाता है। इसलिए अगर हम चाहते हैं कि हम जल के साथ और जल हमारे साथ हमेशा रहे तो निर्जला एकादशी के व्रत की मूल भावना को अपनाकर जल का अपव्यय न करने का संकल्प जरूर लें। संकल्प ही व्रत का पर्याय होते हैं।

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व्रत कथा

एक बार युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा- जनार्दन! ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये।

भगवान श्रीकृष्ण बोले- राजन्! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवतीनन्दन व्यास जी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं।

तब वेदव्यास जी कहने लगे- दोनों ही पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन न करें। द्वादशी के दिन स्नान आदि से पवित्र हो फूलों से भगवान केशव की पूजा करें। फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहले ब्राह्मïणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करें। राजन्! जननाशौच और मरणाशौच में भी एकादशी को भोजन नहीं करना चाहिए।

यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिये। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि- भीमसेन! तुम भी एकादशी को न खाया करो…! किन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूं कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी।

भीमसेन की बात सुनकर व्यास जी ने कहा- यदि तुम्हें स्वर्ग लोक की प्राप्ति अभीष्ट है और नर्क को दूषित समझते हो तो दोनों पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन न करना।

भीमसेन बोले- महाबुद्धिमान पितामह! मैं आपके सामने सच्ची बात कहता हूं। एक बार भोजन करके भी मुझसे व्रत नहीं किया जा सकता, फिर उपवास करके तो मैं रह ही कैसे सकता हूं, मेरे उदर में वृक नामक अग्नि सदा प्रज्जवलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूं, तभी यह शांत होती है। इसलिए महामुने! मैं वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूं। जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूं, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचित रूप से पालन करूंगा।

व्यास जी ने कहा- भीम! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्ल पक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डालें, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है। एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है। तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मïणों को विधिपूर्वक जल और स्वर्ण का दान करें।

इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मïणों के साथ भोजन करें। वर्षभर में जितनी एकादशियां होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के व्रत से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाए और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है।

एकादशी व्रत करने वाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते। अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाव वाले, हाथ में सुदर्शन धारण करने वाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आखिर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं। अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्री हरि का पूजन करो। स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है।

जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है। उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्ण मुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है। मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है। निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णव पद को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है। इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है ।

जो ज्येष्ठ के शुक्ल पक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्मïहत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं।

कुन्तीनन्दन! निर्जला एकादशी के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य निहित हैं, उन्हें सुनो-उस दिन जल में शयन करने वाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है। पर्याप्त दक्षिणा और भांति-भांति के मिष्ठान्नों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मïणों को सन्तुष्ट करना चाहिए। ऐसा करने से ब्राह्मïण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्री हरि मोक्ष प्रदान करते हैं।

जिन्होंने शम, दम, और दान में प्रवृत हो श्री हरि की पूजा और रात्रि में जागरण करते हुए इस निर्जला एकादशी का व्रत किया है, उन्होंने अपने साथ ही बीती हुई सौ पीढ़ियों को और आने वाली सौ पीढ़ियों को भगवान वासुदेव के परम धाम में पहुंचा दिया है। निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करना चाहिए। जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राह्मïण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्ग लोक में प्रतिष्ठित होता है।

जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है। चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है। पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि-मैं भगवान केशव की प्रसन्नता के लिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करूंगा। द्वादशी को देवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घड़े के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करें-

देवदेव ह्रषीकेश संसारार्णवतारक।
उदकुम्भप्रदानेन नय मां परमां गतिम्॥

संसार सागर से तारने वाले हे देवादिदेव ह्रषीकेश! इस जल के घड़े का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये।

भीमसेन! ज्येष्ठ मास में शुक्ल पक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए। उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मïणों को शक्कर के साथ जल के घड़े दान करने चाहिएं। ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुंचकर आनन्द का अनुभव करता है। तत्पश्चात् द्वादशी को ब्राह्मïण भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करें। जो इस प्रकार पूर्ण रूप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है, वह सब पापों से मुक्त हो आनंदमय पद को प्राप्त होता है। यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया।

दान का माहात्म्य

निर्जला एकादशी के दिन भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। लोग ग्रीष्म ऋतु में पैदा होने वाले फल, सब्जियां, पानी की सुराही, हाथ का पंखा आदि का दान करते हैं। इस उपासना में कौटिल्य अर्थशास्त्र के वस्तु-विनिमय सिद्धांत के भी दर्शन होते हैं, क्योंकि धन की अपेक्षा साधन या वस्तुओं को उपलब्ध कराकर समाज तुरंत लाभांवित होता है। इसलिए इस व्रत के दिन प्राकृतिक वस्तुओं के दान का बड़ा महत्त्व बताया गया है। आर्थिक रूप से सामर्थ्यवान लोग प्राकृतिक वस्तुओं के साथ, धन, द्रव्य आदि का भी दान कर समाज को आत्मबल प्रदान करते हैं।

प्राचीन काल में धर्मज्ञ राजा एवं सामर्थ्यवान लोग निर्जला एकादशी को जल एवं गौ दान करना सौभाग्य की बात मानते थे। इसलिए जल में वास करने वाले भगवान श्रीमन्नारायण विष्णु की पूजा के उपरांत दान-पुण्य के कार्य कर समाज सेवा की जाती रही है। आज भी अधिक नहीं तो थोड़ा ही सही श्रद्धालु लोग इस परंपरा का अपनी सामर्थ्य के अनुसार निर्वाह करते हैं।

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