रेस्ट इन पीस-गृहलक्ष्मी की कहानी
Rest in Peace Story: रोशनी की बेरुखी के बाद भी निशांत का प्यार मरा नहीं। वह पिछले हफ्ते मिलने आया मगर वह अपने पुराने आशिक के पास लौट चुकी थी यह जानकर वह टूट गया। भरोसा टूटता है तो इंसान कहां आपे में रह जाता है।
काश! उस जमाने में भी ऐसा कोई ऐप होता जो दोस्त के दिल का हाल बयां करता तो आज वह हमारे बीच होता। सचमुच आज की दुनिया में जहां सभी अपने ही धुन में मशगूल हो गए हैं वहां ऐसे ऐप्पस की सख्त जरूरत है जिससे लोगों के मन को समझा जा सके।
'मां! मेरा प्रोजेक्ट देखो! मैंने एक ऐसा ऐप बनाया है जो फोन रिसीव करने वाले की आवाज सुनकर उसका मूड पहचान लेता है। देखना! यह लोगों के बहुत काम आएगा। मेरे कुछ साथियों ने मशीन लॄनग पर ऐसा प्रोग्राम लिखा है कि जो चेहरे के एक्सप्रेशन से उस व्यक्ति का मन पढ़ सकता है। जानती हो इनकी मदद से हम डिप्रेशन को पहचान सकेंगे और डिप्रेस्ड लोगों की मदद कर पाएंगे।'
'मेरे बच्चे!'
बेटे के मुंह से उसके आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के प्रोजेक्ट की बात सुनकर जेहन में निशांत का चेहरा और 'रेस्ट इन पीस' मैसेज घूम गया। उसकी सफलता से बहुत खुश थी मगर दोस्त का गम दिल पर भारी था। जी तो चाह रहा था कि बेटे के गले लगकर खूब रो लूं मगर खुद को संभाल लिया। उसे भी कहां पता था कि मम्मा का वह सहपाठी तीस मिनट के लिए ही सही उसका भी सहयात्री था।
बात 1998 की है। यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद सभी अपने जीवन में व्यस्त हो गए थे। मैं शादी करके मुंबई आ गई थी। इतने बड़े शहर का कोई आइडिया नहीं था। ज्यादातर पति के साथ ही बाहर निकलती मगर उस रोज उन्होंने 'ताल' की टिकट खरीदी और लैंडलाइन पर फोन कर मुझे छ: से नौ की शो देखने के लिए बुलाया। उनके ऑफिस के बगल वाले थियेटर में पहुंचना था।
ताल की ताल पर मैं पागल हो रही थी। एक तो सिनेमा के पहले दिन का टिकट वह भी अपनी पसंदीदा अभिनेत्री की फिल्म का। पेट में गुदगुदी सी हो रही थी। हम बनारस वाले यूं ही सिनेमा कहां जाते थे। हिरोइन की तरह नहीं तो कम से कम ढंग से तैयार होना तो बनता ही था। अब क्या पहनूं, क्या करूं, कुछ समझ में आना बंद हो गया और घड़ी की टिक-टिक थी कि चलती ही जा रही थी। अपने नए-नवेले पति पर भी गुस्सा आने लगा। फोन पर आने का आदेश दे दिया। ये भी न सोचा कि मैं अकेली कैसे क्या करूंगी मगर हाय री मेरी किस्मत! मेरे वो मुझे गुस्सा करने का भी मौका नहीं देते। बेचारे सदा मेरी ही खुशियों को तरजीह देते हैं तभी तो मेरे लिए सिनेमा के पहले ही दिन की टिकट ली। खैर अपनी नई शादी, नया शहर, नई फिल्म और नया बच्चा इन सबको समेटती- संभालती सबसे पहले मैंने दूध का बॉटल तैयार किया फिर खुद सज-संवरकर बिल्डिंग के नीचे उतर गई।
पति ने टैक्सी लेने के लिए कहा था। वह ऑफिस से निकलकर हॉल के बाहर खड़े होंगे यह सोचकर ही मन में अनगिनत लड्डू फूटने लगे। भले ही मेरी अरेंज मैरिज हुई थी पर ऐसा शौकीन पति तो लव मैरिज वालों को भी नसीब नहीं होता। हर वीकेंड कुछ-न-कुछ स्पेशल करते ही रहते। मेरे चेहरे की मुस्कान देखकर उत्साहित रहते और मैं उनकी हरकतों पर वारी जाती। एक अच्छी शादी के लिए यही जरूरी होता है। एक-दूसरे की खुशी की वजह बनना और हम दोनों इस मामले में बेहद भाग्यशाली हैं। खैर! बात टैक्सी की हो रही थी। हम महिलाएं स्वभाव से ही मितव्ययी होती हैं। एक गोदी का बच्चा और एक मैं, फिर टैक्सी में पैसे क्यों बर्बाद करती। हाथ हिलाकर एक ऑटो रोक लिया।
फिल्म देखने के जोश में यह ध्यान ही नहीं गया कि किसी और ने भी उसी ऑटो को रोका था। उसे भी मलाड तक जाना था। साढ़े पांच बज चुके थे। मेरे पास तीस ही मिनट थे जो थिएटर पहुंचने में लग जाते। बहस करने की बजाय मैंने शांति से समझौता कर लिया। वह चुपचाप बायीं और मैं दायीं ओर मुंह घुमाए बैठी रही। शायद यह भी पहली ही बार था जो मैं कुछ नहीं बोल रही थी। लगता था उसे भी मेरी ही तरह कहीं पहुंचने की जल्दी थी। दोनो चुपचाप अपने-अपने कोनों में सिमटे रहे। मलाड पहुंचकर जब मैंने भाड़ा निकाला तो सहयात्री ने टोका, 'ये ऑटो मैंने रोका था। भाड़ा मैं ही दूंगा।'
'मुफ्त की सवारी मैं भी नहीं करती।'
बड़े आए भाड़ा देने वाले, मन में बड़बड़ाती मैं पैसे निकालकर ऑटो ड्राइवर की हथेली पर रखने लगी तो मुझे देखकर वह चौंका, 'आशना...तुम...?'
'माय गॉड...निशांत....तुम...?'
दोनों जो अभी तक किराया देने के लिए झगड़ रहे थे अचानक ऐसे घुल-मिल कर बातें करने लगे जैसे बचपन के बिछड़े साथी मिले हों।
'यकीन नहीं हो रहा कि आधे घंटे से हम साथ थे और पहचान भी न सके।'
'बड़ा शहर और अनगिनत लोग हैं यहां...सभी अजनबी से!'
'हम्म!'
'हमारा किराया तो दीजिए साहब!'
इतनी देर से चुप बैठा ड्राइवर चीखा तो हम दोनों हंस पड़े। हां, पहले की तरह ही आधा-आधा किराया दिया। हम पुराने दोस्त थे। पूरे तीन साल साथ-साथ फाइन आर्ट्स किया था और ग्रुप में साथ बैठकर ही खाते-पीते आए थे। मम्मी के हाथों बनी सेवई का तो वह दीवाना था। तभी बेटे ने कुछ कूं-कंू किया तो सहसा मिस्टर याद आ गए।
'निशांत घर आओ! बैठकर आराम से बात करेंगे। अभी मूवी के लिए लेट हो रही हूं।'
'हां-हां...जाओ! मैं घर आता हूं।'
उसे भी पता था कि खेल, आर्ट्स और फिल्में यही मुझे जिंदादिल बनाए रखती थीं। मैं लगभग भागती हुई थियेटर पहुंची और फिल्म का पूरा मजा लिया। घर आकर जब इन्हें पूरी बात बताई तो बेटे को गोद में लेकर उछालने लगे।
'शाबाश! मेरे लाल! बाप का एजेंट बनकर ऐसे ही अपनी मां को हमेशा मेरे पास ले आना।'
'क्या आकाश...आप भी...!'
'बीवी! आप हैं हीं इतनी खूबसूरत कि आपके लिए कोई भी पागल हो जाए!'
'ये सब न बोलो! हम सिर्फ दोस्त हैं!'
'चलिए मान लिया...'
फिर बहुत दिनों तक उसकी कोई खोज-खबर नहीं मिली। उन दिनों लैंडलाइन के सिवा कोई विकल्प नहीं था और मेरे पास उसका नंबर भी नहीं था। बस इतना तय था कि वह कहीं नजदीक ही काम करता था। इस बात के भी लगभग दो साल गुजर गए। एक दिन दोपहर को दरवाजे की घंटी बजी तो देखा निशांत था। इस बीच मैं दो बच्चों की मां बन चुकी थी। उस दिन वह बहुत उदास दिख रहा था। उसकी गोद में बेटी को पकड़कर मैं चाय बना लाई।
'तुम्हें इतने दिनों बाद मेरी याद आई!' मैंने शिकायत की।
'उस रोज फोन नंबर न ले सका और फिर कामकाज में ऐसा खोया कि कुछ याद ही नहीं रहा।'
'फिर अब कैसे सही पते पर आ गए...' मुझे मस्ती सूझ रही थी। पत्नी को मायके छोड़कर बनारस गया था। वहीं नेहा से तुम्हारा पता लिया तो मिलने चला आया। फिर उसने एक-एक कर अपनी शादी, नौकरी व परिवार की सभी बातें साझा की। रोशनी के पिता नहीं थे। रिश्तेदारों की मदद से उसकी मां ने यह रिश्ता तय किया। मगर रौशनी के चाल-चलन की बात जानने के बाद निशांत के घरवाले शादी से इंकार करने लगे।
निशांत के अपने आदर्श थे। वह अड़ गया। उन दिनों लड़की को देखकर छोड़ना ठीक नहीं माना जाता था। इस कारण ही सबसे लड़कर उसने रोशनी से शादी कर ली और उसे साथ लेकर मुंबई आ गया। नौकरी बहुत अच्छी नहीं थी फिर भी यथासंभव उसे खुश रखने की कोशिश कर रहा था। उसकी बातों से यही लगा कि रौशनी मुंबई की चकाचौंध से प्रभावित थी। घर गृहस्थी के रोजमर्रे के संघर्ष के लिए बिल्कुल तैयार न थी या शायद उसे निशांत से प्यार ही नहीं था वरना प्यार में तो लोग क्या-कुछ नहीं कर गुजरते हैं। निशांत ही उससे एकतरफा दिल लगा बैठा था।
प्यार दोतरफा हो तो मजा देता है वरना बस सजा देता है। यहां फ्रस्ट्रेशन के सिवा कुछ भी नहीं दे रहा था। पैसों का अभाव भी एक कारण था। अभाव में स्वभाव का खराब होना लाजिमी ही है। खैर रोज-रोज के झगड़े से परेशान होकर निशांत ने कह दिया कि उसे जो ठीक लगे करने के लिए वह स्वतंत्र है। रौशनी को तो जैसे इसी बात की प्रतीक्षा थी। आव देखा न ताव तत्काल सेवा से मायके की टिकट कटा आई। वह अकेली कैसे जाएगी बस इसी फिक्र में निशांत भी उसके साथ गया।
उसकी आपबीती सुनकर बहुत बुरा लग रहा था मगर मनोबल बढ़ाने के अलावा मैं क्या कर सकती थी। कोई भी किसी के लिए क्या कर सकता है? ज्यादा से ज्यादा सकारात्मक बातें कर उत्साहित ही तो कर सकता है और वही मैंने भी किया। उस मुलाकात के लगभग आठ साल बाद फेसबुक पर श्रद्धांजलि संदेश देखा तो मन को जोरदार धक्का लगा था। रेस्ट इन पीस का वह मनहूस मैसेज देखकर जब तस्वीर देखी तो निशांत निकला। दु:ख और बेचैनी से मन व्यथित होने लगा तो आंखें मूंद ली।
इतने अच्छे लड़के का यह अंत तो कल्पना के भी परे है। नहीं! यह बिल्कुल नहीं होना चाहिए था। निशांत एक अच्छा लड़का था। उसकी अच्छाइयों ने ही उसकी जान ले ली। सबकी खुशी में खुश रहने वाला खुशहाल जीवन डिजर्व करता था। यही ख्याल दिमाग में घूम रहा था कि नेहा का फोन आया।
'क्या सोचा था...क्या हो गया...तुझे कुछ पता है निशांत के बारे में?' मैंने पहल की।
'तुम्हें नहीं पता? वह पिछले पांच सालों से डिप्रेशन में था।'
'अच्छा! यहां मिला तो भला-चंगा था।'
'उसकी बीवी उसके साथ नहीं रहती थी। जब भी लेने आता बहाने बनाती। दरअसल रौशनी किसी और से प्यार करती थी। उसके घरवालों ने उसकी शादी निशांत से करा दी। मुंबई के नाम पर इसने शादी कर लिया मगर निभाने का कोई इरादा नहीं था। हमेशा उससे दूर-दूर रहती और अंतत: कलह-क्लेश कर वापस देवरिया आ गई और अपने पुराने यार-दोस्तों से मिलने-जुलने लगी।'
'निशांत जानता था?'
'नहीं! उसे कुछ पता न था। अलबत्ता उसके घरवालों को भनक लग गई थी। निशांत को लड़की पसंद आई तो उसने अपनी जिद्द से शादी कर ली और अपने ही घरवालों से रिश्ता तोड़ दिया। और सुनो! जिसके लिए सबको छोड़ा वही उसकी नहीं हुई।'
'उसे लगा होगा कि समय के साथ रौशनी उसके प्यार को समझेगी और उसके पास वापस आएगी। मतलबपरस्त रोशनी के धोखे ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा।' 'इतना ही नहीं रोशनी की बेरुखी के बाद भी निशांत का प्यार मरा नहीं। वह पिछले हफ्ते मिलने आया मगर वह अपने पुराने आशिक के पास लौट चुकी थी यह जानकर वह टूट गया। भरोसा टूटता है तो इंसान कहां आपे में रह जाता है। अकेलेपन से तंग आकर उसने...'
'नहीं! और कुछ न कहो! मैं सुन नहीं पाऊंगी। इतने अच्छे लड़के का ऐसा दुखद अंत...।' मन पुरानी गलियों में भटकता थक चला था। भूली-बिसरी यादों से लिपटा कराह रहा था कि बेटे की आवाज पर तंद्रा टूटी।
'मम्मा कहां खो गईं आप?'
'कहीं नहीं बेटा!' क्या कहती! इस सफलता के मौके पर अपनी असफलता का रोना लेकर क्यों बैठती जबकि मन निशांत के इर्द-गिर्द ही चक्कर काट रहा था। काश! उस जमाने में भी ऐसा कोई ऐप होता जो दोस्त के दिल का हाल बयां करता तो आज वह हमारे बीच होता। सचमुच आज की दुनिया में जहां सभी अपने ही धुन में मशगूल हो गए हैं वहां ऐसे ऐप्पस की सख्त जरूरत है जिससे लोगों के मन को समझा जा सके, मदद पहुंचाई जा सके, जाने वाले को रोका जा सके। फिर किसी की याद रूह को रुलाएगी नहीं बल्कि महकाएगी। वह हमारी खुशियों का सबब होगा न कि अफसोस का।