ऋण-गृहलक्ष्मी की कविता
Hindi Kavita: मानस-जन्म लिया धरा पर, वह तभी ऋणी हो जाता है।
देव,पितृ गुरु,लोक,भूत ऋण हैं भिन्न रूपों में, यही शास्त्र हमें बतलाता है।।
देव ऋण और पितृ ऋण ,ये मुख्य रूप कहलाते हैं।
जो अपने धर्मों का अहित करे, वह विनाश के द्वार पर जाते हैं।।
बहु-बेटा हो, चाहें हो बेटी,यदि वह अपना फ़र्ज़ निभाते हैं।
मात-पिता की सेवा कर वह, सुख, समृद्धि पाते हैं।।
मात-पिता अपने बच्चों को ,कभी ऋणी नहीं बनाते हैं।
वह तो अपने बच्चों में ही, अपनी दुनिया पाते हैं।।
मात-पिता बच्चों के खातिर,जीवन भर संघर्ष भी करते हैं।
अपनी इच्छाओं को मारकर,शिखर तक उन्हें पहुँचाते हैं।।
लेकिन..
मात-पिता की सेवा से फिर, क्यों बच्चे दुखियाते हैं?
क्या हो गयी दुनिया की हालत,तनिक नहीं शर्माते हैं?
अक्सर देखा है मैंने…
जीते-जी तो मात-पिता को ,भूखे पेट सुलाते हैं।
पितृ-पक्ष आने पर देखो, कैसे छप्पन भोग लगाते हैं?
पितृ-पक्ष में श्राद्ध करना भी, तभी फलदायक होता है।
यदि जीते-जी न किया सम्मान , तो फिर वह लानत होता है।।
सिर्फ धर्म-कर्म ऐसा है जगत में,जो सभी को खुश रख पाता है।
प्रसन्न रहती है स्वयं की अंतरात्मा भी, जीवन में कभी नहीं पछताता है।।
जो मानव अपना कर्तव्य समझे, उसका जीवन आनन्दित हो जाता है।
अपने अच्छे कर्मों से वह, उऋण भी हो जाता है।।