क्या कहते हैं शिव के प्रतीक?: Signs of Lord Shiva
Signs of Lord Shiva: शिव भारतीय धर्म के मुख्य देवता हैं। ब्रह्मा, विष्णु के समूह में उनकी गणना होती है। पूजा-उपासना में शिव और उनकी शक्ति की ही प्रमुखता है। शिवरात्रि के दिन सब ओर हर-हर महादेव की गूंज सुनाई देती है। हम सभी शिव के चरणों में मस्तक झुकाते हैं, जल चढ़ाते हैं और पूजा-प्रार्थना करते तथा आरती उतारते हैं। शिवालयों में नंदी, नाग व शिवलिंग जैसे रहस्यमय प्रतीक शिव के दर्शन की सार्थकता एवं गंभीरता का संदेश देते हैं। अत: शिवरात्रि आत्म जागरण एवं शिव-दर्शन का सुअवसर बन जाता है। शिवालयों में इन प्रतीकों का एक सुनिश्चित सा क्रम रहता है। सर्वप्रथम नंदी के दर्शन होते हैं। नंदी महादेव का वाहन है, महादेव इसी पर सवारी करते हैं। इसी प्रकार हमारी आत्मा का वाहन शरीर है।
शरीर को नंदी और शिव को आत्मा माना जा सकता है। नंदी का मुख हमेशा शिव की ओर रहता है, इसी प्रकार हम भी आत्माभिमुख बनें। शिव का अर्थ है- कल्याण। शिवभक्त को सबके प्रति कल्याण की मंगल कामना के भाव रखने चाहिए। इसी को शिव-पूजा मान सकते हैं। जब शरीर शिव भाव से ओत-प्रोत होगा, तभी कल्याण का भाव भी जागेगा। इंद्रियों के कार्य आत्मा के लिए ही हों। हमारा मन भी आत्मा की ओर लगा रहे, हम भौतिक नहीं आध्यात्मिक बने रहें। यह शिव पूजा का रहस्य है।
शरीर व मन से करें शिव की पूजा
शिवालय के द्वार पर द्वारपाल के रूप में प्राय: गणेश और हनुमान जी की उपस्थिति रहती है। अगर मूर्ति न भी हो तो गणेश जी एवं हनुमान जी की उपस्थिति को अनुभव किया जा सकता है। हम शरीर और मन से शिव पूजा करें। गणेश एवं हनुमान जी के दिव्य आदर्श शिवभक्त में होंगे तभी कल्याण होगा तभी शिव कृपा कर सकते हैं।
गणेश व हनुमान के आदर्श अपनाएं
गणेश जी बुद्धि-विवेक के प्रतीक हैं, बुद्धि एवं धन का सदुपयोग करना इनका सिद्धांत है। गणेश जी से जुड़े प्रतीक उनके इसी गुण को व्यक्त करते हैं। अंकुश-संयम और आत्म नियंत्रण का, कमल- पवित्रता व निर्लिप्तता का, पुस्तक- श्रेष्ठï, उदार विचारधारा एवं मोदक- मधुर स्वभाव का प्रतीक हैं। वे मूषक जैसे अल्प जीव को भी चाहते, अपनाते हैं। ऐसे गुण हम रख सकें तभी आत्म दर्शन एवं शिवदर्शन की पात्रता हममें आएगी। लोक और विश्व के कल्याण के कार्य में 'रामकाज कीन्हे बिना मोहि कहां विश्रामÓ तत्परता से लगे हुए हनुमान जी का आदर्श अगर हम अपना सकते हैं तो शिव पूजा सफल जरूर होगी। हनुमान जैसे राम के कार्य में सहयोगी रहे वैसे ही हमें भी समाज-कल्याण के लिए, सेवा के कार्यों के लिए समय देना चाहिए।
अहंकार से बचें

कभी-कभी व्यक्ति को अपने शिवभक्त होने और अपने शरीर के स्वामी आत्मा का भी ज्ञान कुछ-कुछ हो जाता है तो अहंकार आ जाता है। मैं बड़ा हूं, श्रेष्ठï भक्त हूं। यह भाव आत्मा-परमात्मा के मिलन में बाधक बनता है। इसी बात को याद दिलाने के लिए शिवालय के मंदिर का प्रवेश द्वार सोपान-भूमि से कुछ ऊंचा ही रखा जाता है। द्वार भी कुछ छोटा ही रहता है। अत: मंदिर का द्वार पार करते समय अत्यंत विनम्रता व सावधानी बरतनी पड़ती है, सिर भी झुकाना पड़ता है। मनुष्य का अहंकार जब नष्टï हो जाता है तो बाहर-भीतर सब जगह शिवत्व के दर्शन होने लगते हैं, सब मंगलमय लगने लगता है।
शिवालय के मंदिर में जो शिवलिंग है उसे आत्मलिंग, ब्रह्मïलिंग कहते हैं। यहां मंदिर में विश्व कल्याण हेतु साक्षात विश्वाकार में परम आत्मा ही स्थित है, ऐसा भाव रखना चाहिए। हिमालय सा शांत, प्रचंड, तपस्वी, वैराग्य, ज्ञान संपन्न और कोई नहीं हो सकता, केवल शिव ही हो सकते हैं।
शिव से जुड़ी प्रत्येक वस्तु का महत्त्व
शिव जब उल्लास मस्त होते हैं तो मुंडों की माला गले में धारण करते हैं और उन्होंने मृत्यु को अपना मित्र बना रखा है, यह शिव ही कर सकते हैं। इसीलिए वे कालातीत महाकाल कहलाते हैं। शिव कपाल, कमंडल धारण करते हैं। ये पदार्थ संतोषी, तपस्वी, अपरिग्रही साधना मय जीवन के प्रतीक हैं। चिता की भस्म शरीर पर लेप करते हैं, यह ज्ञान, वैराग्य और विनाशशील संसार के स्वरूप की ओर संकेत करते हैं। यह भस्म यह बताती है कि अंत में सबको एक मुट्ïठी राख ही हो जाना है। वे हर व्यक्ति को मरण के रूप में शिव सत्ता का ज्ञान बता रहे हैं। डमरू की आवाज आत्मानंद या कहें कि स्वयं में ही आनंद मग्न रहने का प्रतीक है। वे बाघ चर्म ही धारण करते हैं। जीवन में ऐसे ही साहस की जरूरत है कि दुष्टïों की चमड़ी उधेड़ी जा सके और कमर में कस कर बांधी जा सके।
त्रिदल का बेल पत्र, तीन नेत्र, त्रिपुंड, त्रिशूल आदि सत्व गुण, रजो तथा तमो गुण इन तीनों को बराबर मात्रा में रखने का संकेत देते हैं। शिव का तीसरा नेत्र जाग्रत आज्ञा चक्र का प्रतीक है। विवेक-बुद्धि, भविष्य-दर्शन कामनाओं पर रोक रखने की ओर संकेत करता है। शिव को नीलकंठ भी कहते हैं। उन्होंने समुद्र मंथन के समय निकले जहर को गले में धारण कर लिया। इससे संदेश मिलता है कि विषाक्तता को न तो आत्मसात करें, न ही विकार उत्पन्न कर उसे उगलें। अपमान और कटुता को पचा लेना ही शिव भक्त को सीखना चाहिए।
शिव परिवार से सीखें समानता का भाव
शिव का परिवार भूत-पलीतों जैसे अनगढ़ों का परिवार है। पिछड़ों, अपंगों व विक्षिप्तों को हमेशा साथ लेकर चलने से ही सेवा-सहयोग का प्रयोजन बनता है। मां पार्वती शिव की छाया के रूप में हमेशा उनके साथ बनी रहती हैं। इसका उद्ïदेश्य यही है कि कल्याणमयी आत्मा की आत्मशक्ति भी छाया की तरह उनका अनुसरण करती है, प्रेरणा और सहयोगिनी बनी रहती है। सिर पर निरंतर टपकने वाली जल धारा जटा में स्थित गंगा का प्रतीक है। यह ज्ञान गंगा है। त्रिकाल संध्या-गायत्री है। शिवालय की जलधारा उत्तर दिशा में ही बहती है। उत्तर में स्थित धु्रव तारा उच्च स्थिर लक्ष्य का प्रतीक है। शिवमय कल्याणकारी आत्मा का चित्त प्रवाह हमेशा उच्च लक्ष्य की ओर भी गतिशील प्रतीक से ज्ञान लेना चाहिए। स्थिरता तो जड़ता है। शिव को निष्क्रियता नहीं सुहाती, गतिशीलता ही उन्हें पसंद है। गति के साथ परिवर्तन अनिवार्य है। शिव तत्त्व को संसार की निरन्तर परिवर्तन प्रक्रिया में आंकते देखा जा सकता है। शिवजी का मस्तक ऐसी विभूतियों से सुसज्जित है, जिन्हें हर नजर से उत्कृष्टï एवं आदर्श कहा जा सकता है।
मस्तक पर चंद्रमा जैसी संतुलन शीलता धारण की हुई है। मस्तक पर चंद्रमा का अर्थ हुआ शांति-संतुलन। चंद्रमा मन की मुद्रितावस्था तथा पूर्ण ज्ञान का प्रतीक है अर्थात् अनेक कठिन परिस्थितियों में भी विवेक से काम लेना चाहिए। भगवान शंकर की गोल पिंडी विश्व ब्रह्माण्ड प्रतीक है। हम जो अपने लिए चाहते हैं, वहीं दूसरों के साथ करें। भक्त अगर इन प्रतीकों के तत्त्व को, रहस्यों को चिंतन-मनन कर साधना, पूजा-व्रत-उपवास करें तभी शिवरात्रि का पर्व सफल सिद्धि देने वाला हो सकता है। महा शिवरात्रि पर्व पर साधक अपने व्यक्तित्व को और सर्वश्रेष्ठ प्रचंड विवेक से पूर्ण बना सकें तो ही इस पर्व की सार्थकता है।