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स्त्री दिवस—गृहलक्ष्मी की कविता

01:00 PM Mar 06, 2024 IST | Sapna Jha
स्त्री दिवस—गृहलक्ष्मी की कविता
Stree Divas
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Hindi Poem: होना तो ये चाहिये था ,कि उनकी वेदनाओं पर
रखी जाती, नरम संवेदनाओं की रुई
सबको  स्निग्धता से भरने वालियों के
खुरदरे हाथों को मिलता, प्रेम का कोमल स्पर्श
आँखों में भरे सपने ,साकार करने वाली
आँखों के ,पूरे होते झिलमिल ख्वाब
पर... चाँदनी भरने वाले चेहरों को मिले,
आँखों के नीचे स्याह चाँद
आत्मा भरने वाले तन को मिली
कविताओं में बस उसके तन की माप
नदियोँ की तरह वो समेट ले गयी
अपनी तलछट में उपेक्षाओं की गाद
आँसुओं को सोखने वाला आँचल
भारी हो गया सोखकर, नमकीन अश्रु
और पोंछ न पाया अपना ही विषाद
किसमें सामर्थ्य जो बुझाये
प्रेम के समुद्र की अतृप्त प्यास
उनके हाथ लिखते रहे
मकान पर उंगलियों से घर के निशान
पेट पर  रोटी की कविता
कभी उनकी गति थमी तो
लगी मिली कर्तव्यों की कतार
आत्मा के द्वार प्रतीक्षारत
रहे स्नेहिल  थाप के लिये
वो भी अधिकारिणी थी
अपने दिये गये ऋण के भुगतान की
अफसोस उन्हें सदा ऋण माफ़ करना पड़ा
कोई समझता कि
देवी और स्त्री के मध्य बारीक़ से भेद को
देवी परे है तीनोँ तापों से
पर स्त्री जानती है
रस,रूप ,शब्द ,स्पर्श और गंध
और देवी बनाकर मुक्त हो गये
तुम अपने किये गये वादों से
जिसमें अहम था उसका मनुष्य होना

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