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थैलेसीमिया से बचाव के लिए जागरूकता है जरूरी: Thalassemia Cure

07:15 AM May 07, 2023 IST | Rajni Arora
थैलेसीमिया से बचाव के लिए जागरूकता है जरूरी  thalassemia cure
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Thalassemia Cure: थैलेसीमिया एक आनुवांशिक विकार या जेनेटिक डिसऑर्डर है जिसमें मरीज के ब्लड में प्रोटीन का निर्माण नहीं हो पाता। यह प्रोटीन रेड ब्लड सेल्स (आरबीसी) में हीमोग्लोबिन बनाती है जो पूरे शरीर में ऑक्सीजन की सप्लाई के लिए जरूरी है। प्रोटीन की कमी से मरीज के शरीर में आरबीसी के साथ-साथ ऑक्सीजनकी कमी भी हो जाती है। ब्लड की कमी को पूरा करने के लिए बोन मैरो सेल्स फैलने लगती है जिससे उसके चेहरे में विकृति भी आ जाती है। एक स्वस्थ व्यक्ति में रेड ब्लड सेल्स की जीवन अवधि 120 दिन होती है, वहीं थैलेसीमिया में असामान्य हीमोग्लोबिन की वजह से यह अवधि 25-30 दिन की रह जाती है। जिसके चलते थैलेसीमिया मेजर के मरीज को हर 3-4 सप्ताह के भीतर ब्लड ट्रांसफ्यूजन या रक्त चढ़ाने की जरूरत पड़ती है।

जिंदगी भर चलने वाली ब्लड ट्रांसफ्यूजन की प्रक्रिया में प्रोटीन से भरपूर हैल्दी रेड ब्लड सेल्स मरीज की वेन्स में ड्रिप लगाकर पहुंचाए जाते हैं। ये हेल्दी ब्लड सेल्स मरीज के ब्लड में पहुंच कर ऑक्सीजन की सप्लाई ठीक करने में तो मदद करते ही हैं, उसे एनर्जी प्रदान करते हैं। समुचित देखभाल और उपचार के चलते मरीज 50-60 साल तक जिंदा रह सकते हैं। अगर ब्लड ट्रांसफ्यूजन सही समय पर न हो, तो खून की कमी के कारण व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।थैलेसीमिया डिसऑर्डर से बचने के लिए  जगरुकता  जरूरी है। इसलिए शादी से पहले दोनों पार्टनर का ब्लड टेस्ट जरूर कराना चाहिए।

Thalassemia

थैलेसीमिया के प्रकार

थैलेसीमिया को उसकी गंभीरता के आधार पर बांटा जाता है, जो मरीज में हीमोग्लोबिन की स्थिति और समय के हिसाब से बदलती भी रहती है-

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  • थैलेसीमिया मेजर- हीमोग्लोबिन 8 ग्रा/डीएल से भी कम होता है।  इसमें मरीज को हर 25-30 दिन के अंदर रेगुलर ब्लड ट्रांसफ्यूजन की आवश्यकता होती है।
  • थैलेसीमिया इंटरमीडिया-इनमें हीमोग्लोबिन 8-9 ग्रा/डीएल रहता है। इसे हीमोग्लोबिन एच डिजीज भी कहा जाता है। कई मरीजों में ब्लड ट्रांसफ्यूजन की आवश्यकता 3-4 महीने मे एक बार पड़ती है और कई मरीजों में काफी समय तक जरूरत नहीं पड़ती।
  • थैलेसीमिया माइनर- ये थैलेसीमिया कैरियर होते हैं। इनका हीमोग्लोबिन 11 ग्रा/डीएल रहता है। नाॅर्मल व्यक्ति की तरह दिखते हैं। इन्हें पहचानना मुश्किल होता है। 

क्या है लक्षण

गर्भस्थ शिशु के रक्त परीक्षण से यह पता लगाया जा सकता है कि बच्चा मेजर है या माइनर। हालांकि थैलेसीमिया माइनर का कोई खास लक्षण नजर नहीं आते, लेकिन थैलेसीमिया मेजर के लक्षण जन्म के 6 महीने से 2 साल के अंदर दिखने लगते हैं।

इंटरमीडिया और माइनर थैलेसीमिया के मरीजों में कुछ समस्याएं देखने को मिलती हैं- हड्डियां कमजोर होना, स्प्लीन या तिल्ली और लिवर का आकार बढ़ना, चिड़चिड़ापन या भूख की कमी, शरीर में खून की कमी, शरीर के पीला पड़ने से पीलिया या जाॅन्डिस का भ्रम होना, शारीरिक विकास की गति धीमी होना, चेहरे की चमक कम पड़ना।

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थैलेसीमिया मेजर के मरीज गंभीर पीलिया से पीड़ित होते हैं। उनमें कई हेल्थ प्राॅब्लम मिलती हैं- चिड़चिड़ापन या भूख की कमी, इम्यूनिटी कमजोर होना, सुस्त पड़ना, थकावट महसूस होना, पेट में सूजन आना,  स्प्लीन या तिल्ली और लिवर का आकार बढ़ना, हड्डियां विकृत होना (खासकर नाक की हड्डी दबी हुई दिखना, गालों और जबड़ो में असमानता आना, सिर का आकार चैकोर होना), पेट में सूजन आना, लिवर का बड़ा होना, ब्लड की कमी के साथ शरीर में आयरन की मात्रा घटना, बोन मैरो में डिस्फंक्शन की स्थिति पैदा होना।

थैलेसीमिया कैरियर मरीज में माइल्ड एनीमिया के अलावा बीमारी के दूसरे संकेत कम मिलते हैं। उन्हें देखकर कोई पहचान नहीं सकता कि वो थैलेसीमिया कैरियर हैं। माइनर थैलेसीमिया कैरियर नाॅर्मल स्वस्थ जिंदगी जीते हैं।

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क्या है कारण

बच्चों में विकृत हीमोग्लोबिन जीन्स उनके पेरेंट्स से आते हैं। उनके माता-पिता दोनों थैलेसीमिया कैरियर होते हैं यानी वो थैलेसीमिया माइनर से ग्रस्त होते है। जब दो थैलेसीमिया कैरियर मरीज की शादी हो जाती है, तब गर्भस्थ शिशु थैलेसीमिया मेजर भी हो सकता है, थैलेसीमिया माइनर भी। शिशु को अगर एक पेरेंट से विकृत हीमोग्लोबिन जीन्स और दूसरे से नाॅर्मल हीमोग्लोबिन जीन्स मिलते हैं- तो वो थैलेसीमिया कैरियर या माइनर हेाते हैं। जबकि दोनों पेरेट के विकृत हीमोग्लोबिन जीन्स पाने वाले शिशु थैलेसीमिया मेजर पीड़ित होते हैं। जन्म लेने वाले 25 प्रतिशत शिशु थैलेसीमिया मेजर, 50 प्रतिशत थैलेसीमिया माइनर और 25 प्रतिशत शिशु पूरी तरह स्वस्थ हो सकते हैं।

जांच के लिए टेस्ट

  • स्त्री-पुरुष में से कोई एक थैलेसीमिया माइनर है, तो जरूरी है कि शादी से पहले ही पार्टनर की जांच कराई जाए। हाई परफार्मेंस लिक्विड क्रोमेटोग्राफी (एचपीएलसी) और म्यूटेशन टेस्ट किया जाता है।
  • अगर दोनों पार्टनर थैलेसीमिया माइनर हैं तो थैलेसीमिया कैरियर बन सकते हैं। जरूरी है कि गर्भधारण के 3 महीने पूरे होने से पहले ही भ्रूण की जांच कराई जाए। एंटी नेटाॅल डायग्नोसिस, कोरियोरिनक विल्स सैंप्लिंग टेस्ट (सीवीएस) और म्यूटेशन टेस्ट किया जाता है। यूटरस में नीडल डालकर भ्रूण का छोटा-सा टिशू निकाल कर उसकी जेनेटिक टेस्टिंग की जाती है। 
  • बच्चों में थैलेसीमिया डायग्नोज के लिए स्पेशल ब्लड टेस्ट-रेड ब्लड सेल्स के मीन काॅर्पसकुलर वाॅल्यूम (एमसीवी) और पेरिफरल स्मीयर किया जाता है। 

कैसे होता है इलाज

बच्चे में थैलेसीमिया मेजर की पुष्टि होने पर बच्चे को 4-6 महीने से ही ब्लड ट्रांसफ्यूजन कराना पड़ता है। हीमोग्लोबिन का लेवल मेंटेन करने के लिए थैलेसीमिया मेजर के मरीज को नियमित रूप से 20-30 दिन में और थैलेसीमिया इंटरमीडिएट व्यक्ति को 3-4 महीने में ब्लड ट्रांसफ्यूजन किया जाता है। ट्रांसफ्यूजन के समय मरीज का हीमोग्लोबिन लेवल 8.5 – 10 ग्रा/डीएल और बाद में 14ग्रा/डीएल से अधिक नहीं होना चाहिए।

थैलेसीमिया पीड़ित मरीज इंफेक्शन के हाई रिस्क पर होते हैं। इंफेक्शन से बचाने के लिए स्पेशल वैक्सीनेशन शेड्यूल फोलो किया जाता है जिसमें हिमोफिलस इंफ्लूंजा टाइप बी (एचआईबी), न्यूमोकोकल और मेनिंगोकोकल वैक्सीन दी जाती हैं।

शरीर में जमा अतिरिक्त आयरन या लौह की मात्रा कम करने के लिए चेलेशन थेरेपी की जाती है। इसमें मरीज की स्थिति के हिसाब से डिफेराक्सिराॅक्स, डिफेरिपरोन  मेडिसिन और इंजेक्शन दी जाती है जिससे शरीर में जमा आयरन यूरिन के रास्ते बाहर निकल जाता है।

मरीज की बोन मैरो या पेरिफेरल ब्लड स्टेम सेल ट्रांसप्लांट सर्जरी भी की जाती है। स्टेम सेल ट्रांसप्लांटेशन से बोन मैरो में हेल्दी ब्लड स्टेम सेल्स को इम्प्लांट या प्रत्यारोपण किया जाता है।

ब्लड ट्रांसफ्यूजन के है साइड इफेक्ट

कई मामलों में बार-बार ब्लड चढ़ाने से शरीर में आयरन की मात्रा अधिक हो जाती है। ब्लड सेल्स टूटने से आयरन बाॅडी में ज्यादा मात्रा में पहुंच जाता है और शरीर के विभिन्न अंगों में जमा होकर कई तरह के विकार पैदा करता है। त्वचा के अंदर जमा होकर कालापन लाता है। किडनी, लिवर, हार्ट जैसे ऑर्गन को भी प्रभावित करता हैं जिससे मरीज की मौत तक हो सकती है। बढ़ा हुआ लौह तत्व एंडोक्राइम ग्लैंड्स में जमा होने से शरीर का विकास रुक जाता है, डायबिटीज का खतरा रहता है।

(डॉ अमिता महाजन, सीनियर कंसल्टेंट, हीमोटोलॉजी एंड ऑन्कोलॉजी, अपोलो अस्पताल, दिल्ली)

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