मन की मांग संसारी सुख से बड़ी है: Spiritual Lessons
Spiritual Lessons: समय के साथ लोगों की पसंद बदल जाती है। किसी एक विशेष प्रकार के संगीत की सौ वर्ष पहले बहुत पंसद किया जाता था और अब उसको अधिक लोग पसंद नहीं करते। आज की पसंद कल फिर बदल जाती है। तुमने जीवन में अनुभव किया है न, कि तुम्हारी शारीरिक आवश्यकताएं तो पूरी हो सकती हैं, परंतु मन की इच्छाएं किसी भी छोटी या सीमित वस्तु से पूरी नहीं हो सकती, इसलिए ही कहीं संतुष्टिï नहीं मिलती, क्योंकि इन्द्रियों की भोग की क्षमता सीमित है और हमारी खुशी पाने की आकांक्षा असीम है। इसलिए कोई भी इन्द्रिय मन को पर्याप्त संतुष्टिï नहीं दे सकती, क्योंकि तुम्हारा मन इन्द्रियों से बहुत बड़ा है और इसलिए मन की मांग भी संसार से मिलने वाले सुखï से बहुत बड़ी है। तुम्हारी चेतना की संतुष्टि की सामर्थ्य असीम है और संसार जो कुछ दे पाता है, वह बहुत सीमित और तुच्छ है।
Also read : साधना से परिवर्तन: Spiritual Thoughts
भगवान शब्द के छ: गुण कहे गए हैं। हमारी चेतना रूपी पुष्प की छ: पंखुड़ियों की खिलावट इन्हीं छ: गुणों से हुई है। इनमें से सर्वप्रथम है 'उपस्थिति। भगवत्ता की उपस्थिति की प्यास। और यही प्यास प्रार्थना बन जाती है। यह प्रार्थना किसी देवी-देवता के प्रति हो सकती है और नहीं भी। परंतु तुम्हारा प्रार्थनामय होना ही पर्याप्त है।
पहला चरण है उसकी उपस्थिति को अनुभव करना और दूसरे चरण में तुम्हारा उस उपस्थिति के साथ एकरूप हो जाना। तुम ही वह उपस्थिति बन जाओ। उसकी उपस्थिति और तुममें कोई भेद न रह जाए। और वही उपस्थिति ही भगवान है।
दूसरा गुण है सार्वभौमिक कीर्ति। कीर्ति का अर्थ विभिन्न स्थानों, विभिन्न विचारों के लोगों में सर्वमान्यता अलग-अलग देशों में भिन्न-भिन्न लोगों के प्रसिद्धि के मापदंड भिन्न-भिन्न होते हैं। अब समय के साथ लोगों की पसंद बदल जाती है। किसी एक विशेष प्रकार के संगीत की सौ वर्ष पहले बहुत पंसद किया जाता था और अब उसको अधिक लोग पसंद नहीं करते। आज की पसंद कल फिर बदल जाती है। परंतु उपनिषद की शिक्षा या भगवान कृष्ण के उपदेश, जो पांच हजार वर्ष पुराने हैं, जो समय, स्थान, उम्र, जाति, संस्कृति और मतों की सीमाओं से पार हो। वही सच्ची कीर्ति है। वही भगवान है। जो लोगों के मन में अपना स्थान बना लेती है। यह सारा अस्तित्त्व उस दिव्यता, उस भगवत्ता के यश की गाथा है, जो सदा से है- समय और स्थान से पार। जो कल भी थी, आज भी है और आगे भी रहेगी। ऐसी कीर्ति को भगवान का दूसरा गुण कहा है।
तीसरा गुण है धन (धनलक्ष्मी)- हर प्रकार की समृद्धि। संसार मे धन के बारे में बहुत बड़ी भ्रांति है। यह माना जाता है कि धन तुम्हारे प्रयास का फल है और तुम उसे कमाते हो। ऊपर से देखने में यह बात तर्कसंगत लगती है कि धन तो कमाकर इकट्ठा किया जाता है, परंतु वास्तव में धन आपको उसकी देन है।
धर्म: भगवान का चौथा गुण है धर्म। धर्म की व्याख्या करना बहुत कठिन है। धर्म अर्थात जो धारण करता है, जो जीवन को संभालता है। जो सारे अस्तित्त्व की संभाल करता है। प्रज्ञा: जब ज्ञान पूर्ण अनुभव में स्थापित हो जाता है तो उसे प्रज्ञा कहते हैं। इस प्रकार का ज्ञान तुम्हारे मस्तिष्क से नहीं जन्मता, बल्कि इसका संबंध तुम्हारे अंतरतम से है। यह तुम्हारे कण-कण में व्याप्त है। जो विवेक शक्ति तुम से अलग न हो सके, उसे प्रज्ञा कहते हैं।
छठवां है त्याग: त्याग का अर्थ है तुम्हारी हर चीज छोड़ सकने की सामर्थ्य। वह चाहे कुछ भी क्यों न हो। किसी भी वस्तु के साथ या विचार के साथ अटक जाना ही चिंता है। और यही पकड़ हमें त्याग या उन्मुक्ति में उतरने नहीं देती- चिंता इसी पकड़ का नाम है। ऐसा है कि नहीं?