मेरा कसूर क्या था? - गृहलक्ष्मी कविता
नवजीवन के स्वप्न आंखों में
संजोये अर्जुन की नववधू बन
तेरे द्वार पे आई
बांट दिया अज्ञानवश मुझको पांचों पांडवो में और जीवन पर्यन्त
‘पांचाली’ मैं कहलाई
तब हे! हस्तिनापुर तू बता कि
माता कुंती की उस भूल में
भला मेरा कसूर क्या था?
सत्तामोह के वशीभूत कौरवों ने
युद्धभूमि में षड्यंत्र रचाया
पांडवों से प्रतिशोध की
खातिर अश्वत्थामा ने
मेरे सपूतों का रक्त बहाया
खो दिए सब लाल अपने
और निपूती मैं ही कहाई
तब हे! हस्तिनापुर तू बता कि
महाभारत के उस युद्ध में
भला मेरा कसूर क्या था?
कोख मेरी उजड़ी, हुई मैं कलंकित
निर्लज्जों ने परिहास बनाया
निरपराध बनीं अपराधी
युद्ध का दोषी भी मुझे ही ठहराया
नियति का ये खेल निराला
मुझको तनिक समझ न आया
स्वामियों संग इस अंतिम यात्रा पर
क्यूं पापिन जान,
धर्मराज ने भी ठुकराया
अब हे! हस्तिनापुर तू बता कि
ईश्वर की रची इस लीला में
भला मेरा कसूर क्या था?
यह भी पढ़ें –नम्मो की शादी – गृहलक्ष्मी कहानियां
-आपको यह कविता कैसी लगी? अपनी प्रतिक्रियाएं जरुर भेजें। प्रतिक्रियाओं के साथ ही आप अपनी कहानियां भी हमें ई-मेल कर सकते हैं-Editor@grehlakshmi.com
-डायमंड पॉकेट बुक्स की अन्य रोचक कहानियों और प्रसिद्ध साहित्यकारों की रचनाओं को खरीदने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें-https://bit.ly/39Vn1ji