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यादें कुछ पुरानी सी…!—गृहलक्ष्मी की कहानियां

01:00 PM Sep 13, 2023 IST | Sapna Jha
यादें कुछ पुरानी सी… —गृहलक्ष्मी की कहानियां
Yaadein Kuch Purani Si
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Yaadein Hindi Kahani: सामने बरगद अपनी विशाल बाहें फैलाए खड़ा था…मेरे इंतजार में!, मुझे गले लगाने के लिए!
मैं वहां खड़ा था ,उसके नीचे..आज उसकी स्नेहिल छाया मुझे मेरे बाबूजी की याद दिला रही थी।
बाबूजी तो अब थे नहीं मगर उनकी स्मृतियां मेरे साथ थीं।
सूना.. सूना सा घर…!,मिश्री सी खनक अभी भी मेरे कानों में गूंजी।ऐसा लगा …बाबूजी अंदर से बाहर आए और कहने लगे "..आ गया लल्ला!, बहुत दिनों से तुम्हारा ही इंतजार कर रहा था।"

एक ठंडी सी आह मेरे दिल से निकल गई और आंखें नम हो गई।
तभी सामने गेट से बंसी काका, शरद काका और पुजारी काका आते हुए दिखाई दिए।
" अरे लल्ला आ गया बेटा….!,आ जाओ चलो नाश्ता कर लो।"
" नहीं नहीं काका, मैं थोड़ा संकोच में भर गया।
काका मुस्कुराने लगे। हंसते हुए बोले
" शहरी बाबू हो गया है ना, थोड़ा संकोची हो गया है।
देखो पहले कैसे बोलता था.. काका, अपने बगीचे का अमरुद दे देना …!"
"हाँ… ,हंसते हुए पुजारी काका बोले.. ठकुराइन से आकर कहता था… चाची… मुझे भी थोड़ा खुरचन और खीस दे देना …!"
सब लोग हंसने लगे।
"चलो बेटा.. चलो ,तुम्हारी चाची तुम्हारे लिए नाश्ता बना कर रखी है …!"
वहां नाश्ता करते हुए काका ने कहा
"वैष्णव बिल्कुल अपने बाबूजी की परछाई है।एकदम उन्ही पर गया है…!
खूब खुश रहो… बेटा नाम रोशन करो !जुग जुग जियो।
जो जमीन से जड़ से जुड़ा रहता है ,वही सदाबहार होता है हमेशा लहराता रहता है।" पुजारी काका आशीर्वाद देते हुए बोले ।
शर्मा काका ने कहा
"तुम्हारे नए अस्पताल का उद्घाटन कल है ना?"
"और बेटा बहू कब आ रही है?"
"आज शाम तक काका।"
नाश्ता चाय के बाद मैं वापस घर आ गया। बंद दरवाजों को खोलते भी वही पुरानी महक मेरे अंदर सराबोर हो गई… जिनके सहारे मैं आज तक यहां पहुंचा था।
झूले ,बताशो की लड़ियां…आज सब मुझ पर हावी होने लगीं थीं।
कमला झाड़ू लगा कर चली गई थी। उसने कहा
" भैया कल से मैं खाना बना दिया करेगी आप चिंता मत करना।"
" ठीक है!"
मैं बाबूजी के कमरे में जाकर सो गया। पुरानी बातें याद आने लगी थीं।
पुजारी काका ने कहा था मैं अपने बाबूजी की परछाई हूँ बिल्कुल उनपर ही गया हूं।क्या मैं वाकई उनकी परछाई हूं?"
खिड़कियां खुली थीं। मन में खयालातो के बादल मंडरा रहे थे।
मन अतीत में दौड़ने लगा था।
"बाबूजी …बाबूजी…!!!, लगभग रात के 10:30 बजे मैं बाबूजी के घर का दरवाजा पीट रहा था…चारों ओर अंधेरा था। सब लोग सो चुके थे। बत्तियां बुझी हुई थीं।
तभी आँखें मींचते हुए बाबूजी बाहर निकले।मुझे देखकर बोले.."अरे भीमा तू यहां…क्या हुआ?"
" बाबूजी …मेरी मां को बचा लो… बाबूजी.. मेरी मां को बचा लो …!"यह कहते हुए मेरी सांस घबराहट से फूलने लगी थी।
"अरे बेटा, क्या हुआ तुम्हारी अम्मा को ?"
बाबूजी मां को बुखार हो गया है .. ना कुछ बोल रही है और ना आंखें खोल रही है…!"
बाबूजी यानि मनोहर दास जी उतनी ही रात में टॉर्च और दवाइयां की पोटली लेकर मेरे झोपड़ी में आ गए।
अम्मा बुखार से बेहोश थी।
" यह कैसा घर है…!यहां रहते हो तुमलोग?"
वह घर ही नहीं था। उसके नीचे से नाला बहता था।
ऊपर एक लकड़ी का पट्टा लगाकर चारों तरफ प्लास्टिक के दीवार बनाकर हम मां बेटा रहे थे।
बाबूजी ने अम्मा ने दवाई दियाघर से खाना भी मंगवा दिया।
उन्होंने कहा "भीमा ,कोई और जरूरत हो तो बता देना।"
पर मां का बुखार खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था।
दूसरे दिन बाबूजी फिर से हमारे घर आए।
मां संकोच से गड़ गई। वह कराहती हुई बोली
" बाबूजी मेरे प्राण निकलने वाले हैं पर इस बच्चे के कारण अटके हुए हैं ।इस बच्चे को कृपा करके किसी अनाथालय में डाल देना या अपने घर ले जाकर इसे नौकर बना लेना ताकि मेरे प्राण आसानी से निकल जाए!"
" यह क्या बोल रही हो तुम रति ..क्यों तुम्हारे प्राण निकलने लग गए ?"
सुबकते हुए मां ने कहा
" इसका बाबा एक दूसरी छोरी उठा कर ले आया। दारू से निकलता नहीं।
उसने हमको इतना मारा इतना मारा ..कि…! उन्होंने अपने जख्म दिखाते हुए कहा।
फिर हम दोनों को धक्के मार कर घर से निकाल कर बाहर कर दिया।
बड़ी मुश्किल से इस नाले पर जगह मिली ।किसी से उधार पॉलिथीन लेकर एक छत डाली…!"
वह हांफने लगी थी।
" गरीब का कोई नहीं होता बाबूजी..!"
" ऐसा नहीं है रति… हम पुलिस स्टेशन जाएंगे और तुम्हें न्याय दिलाएंगे।"
" नहीं बाबूजी उसकी जरूरत नहीं! बस इस अनाथ को गले से लगा लो….!" यह कहते हुए उसके हाथ लटक गए और गर्दन एक तरफ लुढ़क गई।
बाबूजी की आंखें भर आईं।
मैं तब बहुत छोटा था मुश्किल से आठ नौ साल का।मगर यह सच मेरा पीछा कभी नहीं छोड़ने वाला।
बाबूजी ने मां का अंतिम संस्कार किया। मुझे विधिवत गोद लिया।
अपने तीनों बच्चों के साथ मुझे भी अपना लिया।
बाबूजी एक सरकारी स्कूल के एक मास्टर थे। जब तक वह नौकरी पर रहे तब तक किसी को हिम्मत नहीं थी कुछ भी कहने की। सब ने मुझे सहर्ष उनका बेटा स्वीकार कर लिया था ।
अपनी नौकरी के बाद उन्होंने दूसरे गांव में जमीन खरीदा और वही घर बनाकर रहने लगे।
सारी जिंदगी उन्होंने समाज सेवा को अर्पण कर दिया।वह गांव-गांव घूमते ,जरुरत मंदों की मदद करते।लोगों को साक्षर करते। गांव गांव शिक्षा का प्रचार करते।
उनकी हार्दिक इच्छा थी.. जीते जी एक जन सेवा के लिए एक ऐसा अस्पताल बने जिसमें सभी जरूरतमंदों का एक आंशिक शुल्क पर इलाज हो …मगर उनकी इच्छा पूरी नहीं हो पाई उससे पहले ही वे गुजर गए।
अपनी जिंदगी की अधिकांश पूंजी उन्होंने मेरी पढ़ाई में खर्च कर दी ।मुझे पढ़ाई लिखाया,काबिल बनाया। एक सुशील लड़की के साथ विवाह कराया।
मुझे जिंदगी देने वाले बाबूजी अब इस दुनिया में नहीं है।
आज मुझे देखते ही सब लोग अदब से सर झुका कर खड़े हो जाते हैं। डीएम वैष्णव कुमार!,
यह नामकरण भी बाबूजी ने ही किया था। अगर बाबूजी साथ नहीं देते… उस समय आगे नहीं बढ़ते तो आज मेरा क्या होता…. यह सोचकर मेरी आत्मा तक सिहर जाती है!"
बाबू जी !,आपकी हर इच्छा को मैं पूरी करूंगा। आपके रग रग को प्रणाम!" मैं अंधेरे में से सिसक उठा था।
तभी दरवाजे में आहट हुई ।करुणा बच्चों के साथ आ चुकी थी।
"अरे आप अंधेरे में क्यों सो रहे हैं?"
" नहीं बस ऐसे ही!" मैं उसने कहा
" आज रात तो बाहर से खाना होगा!"
"चिंता मत करिए जी मैं बना कर लेती आई हूं।"
जनसेवा अस्पताल का उद्घाटन करते हुए बाबूजी की फोटो में माला अर्पण करते हुए मेरी आंखें भर आईं।
उनकी फोटो के आगे घी का दिया जलाकर आंख मूंद कर खड़ा रहा।
" बाबूजी ,सब लोग जानते हैं कि मैं आपकी परछाई हूं।मैं हर जन्म में आपकी परछाई बनकर जन्म लेना चाहता हूं…! मेरी आंखें बहने लगीं।
" अरे लल्ला दिल क्यों छोटा करते हो! तुम्हारे बाबू जी कहीं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकते हैं..!देखो हमेशा तुम्हारे ही साथ रहते हैं…. भला शरीर अपने परछाईं छोड़ सकता है क्या?"
मैं बाबूजी को याद कर सिसक उठा।

यह भी देखे-आज ब्याज भी चुका दिया..-गृहलक्ष्मी की कहानियां

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