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मिथकों से इतिहास तक-एक लेखक और पुरुषेतर चरित्र: Agnikaal Upanyas

08:00 PM Mar 17, 2024 IST | Pinki
मिथकों से इतिहास तक एक लेखक और पुरुषेतर चरित्र  agnikaal upanyas
Agnikaal Upanyas
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Agnikaal Upanyas: 'पता नहीं, यह गड़बड़ शुरू कहां से हुई? पर इसके पहले-पहले सूत्र तो श्रुति में ही मिलेंगे, ना? उन्होंने कॉफी के मग में चीनी घोलते हुई कहा। 'क्यों? वेदों में तो महिलाओं को भी बड़ा महत्व दिया गया है। मैंने पढ़ी-पढ़ाई बात दोहराई। 'क्या बात कहती हैं, आप? उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा। 'अगर सौ पुरुष चरित्रों के बीच दो-चार सशक्त महिला चरित्र भी गिना दिए जाएं, तो आप संतुष्ट हो जाएंगी?
उनकी बात ने मुझे निरुत्तर कर दिया। थोड़ी देर तक मैं भी कॉफी के मग में अनमनी सी चम्मच घुमाती रही। कनॉट प्लेस के कॉफी हाउस में हम दोनों ने उनके प्रकाशित साहित्य पर बात करने की सोची थी। शनिवार की शाम थी, पर दिसम्बर की इस ठंडी शाम में भी कॉफी हाउस में अच्छी-खासी गहमा-गहमी थी। मेरी जिज्ञासा था कि उनकी किताबों का केंद्र महिलाएं ही क्यों होती हैं?
'आप वेदों में महिलाओं की बात कर रहे थे? मैं उन्हें मुद्दे पर खींच लाई। 'यह वेदों की ही बात नहीं है। हर सभ्यता में, हर सभ्यता के पुराने ग्रंथों में पुरुषप्रधान साहित्य ही मिलेगा। परमात्मा की बात होगी तो चाहे कोई भी धार्मिक ग्रंथ हो, ईश्वर की पुरुष रूप में ही कल्पना और स्तुति करता है, भले ही जानता भली-भांति है कि सृजन तो स्त्री ही करती है। 'जी। वर्णाश्रम की जहां पहले-पहल चर्चा है, ऋग्वेद के दशम मंडल में, ईश्वर आखिर पुरुष ही तो है न, पुरुष सूक्त में? मैंने बात आगे बढ़ाई।
उन्होंने बिस्किट की प्लेट मेरी ओर सरकाते हुए कहा, 'जी बिलकुल। हमारे तो गुरु भी हमेशा पुरुष ही थे। गुरुमाताएं तो चौके में ही रहती थीं। हम प्रश्न भी पुरुष से ही करते थे। जब हम जिज्ञासा भी करते थे, 'कितनी अग्नियां हैं? कितने हैं सूर्य? कितनी उषाएं हैं? और कितने जल? पूछते पुरुष से ही थे, वह भी डर-डर कर कि, 'हे पिताओ, मैं तुम्हें चुनौती नहीं दे रहा, बस पूछ भर रहा हूं, हे कवियों, तुम ही बतला दो। 'फिर एक पुरुष होकर आपकी सारी किताबों में स्त्री चरित्र ही प्रधान क्यों हैं? मुझे गरम लोहे पर चोट मारने का अवसर आखिर मिल ही गया तो मैं चूकती क्यों? 'अच्छा? वह यूं मुस्कराए कि जैसी समझ गए हों। फिर यकायक संजीदा हो गए। 'मेरी क्या बिसात? आप सभी शादीशुदा पुरुषों से पूछ लीजिए। जब शेर और शेरनी चहारदीवारी के भीतर वन ऑन वन हों, तो शेरनी ही भारी पड़ती है। बेचारा शेर तो भीगी बिल्ली बन कर रह जाता है। 'यह तो आप लोगों का जोक है। मैंने कहा।

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'नहीं। आप लोगों से पूछिए कि उनके जीवन में कौन व्यक्ति उन्हें सबसे दृढ़, सबसे हिम्मती, सबसे ऊर्जावान और सबसे शक्तिशाली लगा, तो अस्सी प्रतिशत का जवाब मां ही होगा। बचे लोग, पत्नी, बहन या बेटी कहेंगे।उनकी साफगोई में मुझे संदेह नहीं था इसीलिए मैंने अपने मन की बात पूछ डाली, 'फिर ऐसा क्यों है कि हमारे पुराणों में, महाकाव्यों में, इतिहास में बस पुरुष गाथा है। वरदान भी होगा तो शतपुत्रवती भव: होगा। 'मुझे लगता है, पुरुषों को अपनी कमजोरी तो बहुत पहले समझ आ गई थी। पर वह इसे अंजाम दे पाए जब कृषि पर आधारित समाज बनने और बढ़ने लगे। मकान बनने लगे, तो पुरुष काम-धंधों, लड़ाई-झगड़े की आड़ में घर से बाहर आकर संगठित हो गए और उन्होंने महिलाओं को घर और बच्चों की देखभाल के लिए घर के अंदर सीमित कर दिया। ऐसे में, महिलाएं न संगठित हो सकीं, न ही आर्थिक या राजनीतिक ताकत उनके हाथ में आ सकी। धीरे-धीरे पुरुषों ने इन्हें दोयम दर्जे का करार दिया और बना भी दिया। 'फिर कोई कुंती, कोई द्र्रौपदी या कोई दुर्गावती कैसे हो जाती है? और पुरुष उन्हें स्वीकार भी कर लेता है? मैंने पूछा।

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'पुरुष नहीं, पुरुष समाज। वह मुस्कराए। अकेला पुरुष कभी अकेली महिला पर भारी नहीं पड़ता। एक संगठित समाज के रूप में वह अकेली महिला पर भारी पड़ता है। इस सबके बावजूद, इतने पुरुष पक्षपाती लिटरेचर में भी अगर महिला चरित्र इतने सशक्त होकर आते हैं, तो समझिए वह चरित्र कितने दिव्य, कितने महान होंगे।
'कोई उदाहरण दीजिए न? मैंने उन्हें उकसाया। 'सबसे पहला उदाहरण तो अदिति और दिती ही हैं, क्रमश: देवताओं और दैत्यों की माताएं। हमारे पुराणों में दिती और अदिति की अपने पुत्रों के लिए जमीन-आसमान एक करने की कई-कई कथाएं हैं। उनके सामने आदिपुरुष कश्यप ही क्या देवराज इंद्र भी बौने हो जाते हैं। एक बिन-ब्याही मां हैं, जाबाला। वह अपने बेटे को अपना नाम, अपना गोत्र देती हैं। उनका पुत्र है, महान उपनिषदकालीन ऋषि सत्यकाम जाबालि।
'यह सभी सशक्त माताएं आपकी किताब 'बून्स एंड कर्सेस में हैं। उसमें और भी कई कम जाने-सुने चरित्र हैं, जरा बताइए न?
'आपने सही पकड़ा है। किसी लेखक के लिए उसके चरित्रों पर सवाल से बेहतर बटरिंग और कुछ नहीं होती। वह चहके और बताने लगे, 'एक तो तारा हैं। देवताओं के गुरु बृहस्पति की पत्नी। वह अपने पति से प्रसन्न नहीं है, तो वह चंद्रमा से प्रेम कर बैठती हैं और घर से भाग जाती है। दूसरी तारा, वानरराज सुग्रीव और बाली की पत्नी हैं। उनका सुग्रीव पर इतना प्रभाव है कि जब चाहें उसे दीवाना बना कर घर में बिठा दें, और जब चाहें इतना प्रेरित कर दें कि तत्क्षण युद्ध को चला जाए। फिर कैकेयी जैसा पावरफुल पात्र है, जिसकी कहानी तो सभी जानते हैं।
'आपने ऐतिहासिक महिला पात्रों पर भी तो एक किताब लिखी है, 'विमन वॉरीअर्ज इन इंडीयन हिस्ट्री उसमें कौन-कौन से पात्र हैं?
'रजिया सुल्ताना, रानी रुद्रम्बा, दुर्गावती, चांदबीबी, अब्बक्का, ताराबाई, कित्तूर और केलाड़ि की चेंनम्माएं, अवंतीबाई और लक्ष्मीबाई, इन दस महिलाओं के जीवन चरित्र हैं।
'इनके जीवन चरित्र तो कई बार लिखे गए हैं। आपने क्या विशेष लिखा है?
'मेरी किताब में यह पात्र जीवंत हैं, इसीलिए जीवंत कि यह उनके ही समकालीनों की सुनाई गई कहानियां हैं। जैसे- मलिक काफूर रजिया की कहानी कहता है, तो मार्को पोलो रुद्रम्बा की। जहांगीर दुर्गावती की कहानी नूरजहां को सुनाता है तो पीएट्रो डेला वेल अब्बक्का की। तो यह उस समय के इतिहास का जीवंत हिस्सा बन जाता है। और ऐसा लगता है जैसे आप उसी समय में ट्रांसपोर्ट हो गए हैं। तब आप उन महिलाओं के सामर्थ्य को, उस बेहद रूढ़िवादी समाज में कहीं बेहतर तरीके से अप्रीशीएट कर सकते हैं।
'तब आपने अपनी नई किताब क्यों महिलाओं पर नहीं लिखी? यह तो एक ट्रान्सजेंडर, एक हिजड़े की कहानी है।
'हिजड़े या क्लीव, इन्हें कहीं-कहीं पावैय्या भी कहते हैं, तो हमारे समाज में अभी भी हाशिए पर ही हैं। हमारे पुराणों में, महाकाव्यों में हिजड़ों का जिक्र आता है। पर इतिहास में हमारे यहां इन पर बहुत अधिक शोध नहीं हुआ। इन पर आधारित कुछ फिल्में जरूर पिछले कुछ दशकों में आईं हैं, पर वह सब इनके संस्कृति, इनकी परम्परा पर चुप रह जाती हैं जबकि हिजड़े हमारे समाज का एक अभिन्न अंग रहे हैं।
'हिजड़े यानी किन्नर क्यों मुख्यधारा का हिस्सा नहीं हैं?
'इसके ऐतिहासिक कारण हैं। आरम्भ से ही किन्नर या हिजड़े एक अलग तरह के इवॉल्व्ड समाज में रहते आए हैं। इनके यहां गुरु-चेला की बड़ी स्थाई परम्परा रही है। गुरु घराने का नेता होता है और घराने में उसी का अनुशासन चलता है। हमारे प्राचीन साहित्य में तीन वर्ग आते हैं, जो नाचने-गाने का काम करते हैं- अप्सरा, गंधर्व और किन्नर। इनमें से अप्सरा स्त्रीलिंग है, गंधर्व पुल्लिंग और किन्नर उदासीन। अल्पसंख्यक होने और स्त्री या पुरुष के खांचे में फिट न हो पाने के कारण इन्हें समाज के भेदभाव का सामना करना पड़ता ही था। धीरे-धीरे इसीलिए इन्होंने अपनी दुनिया घरानों तक सीमित कर ली।
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक तीनों स्तरों पर हिजड़े हाशिए पर ही रहे हैं। आम जन इन्हें ऐब्नॉर्मल समझते हैं, लिहाजा हिजड़े शारीरिक और भावनात्मक दोनों तरह के शोषणो का शिकार होते आए हैं। शिक्षा से लेकर रोजगार तक यह हर प्रकार के भेदभाव के भी शिकार हैं। शायद इसीलिए, भारतवर्ष में हिजड़े बड़ी संख्या या तो सेक्स वर्कर हैं, या भीख मांगते हैं। 2011 की जनगणना में इनकी आबादी करीब पांच लाख थी। कुछ वर्ष पहले सरकार इनकी हिफाजत के लिए ट्रान्सजेंडेरस पर्सोंज (प्रोटेक्शन ओफ राइट्स) ऐक्ट लाई है, जिससे इनकी स्थिति में सुधार की आशा है।
'एक हिजड़े को अपनी कहानी का नायक क्यों चुना आपने? मैंने पूछा।
'इस तरह के शोषित समाज में से अगर कोई तमाम चुनौतियों, द्वेष, संघर्षों और अंतहीन भेदभाव के बाद भी इस स्थिति में आता है कि न सिर्फ स्वयं को एक बड़ा प्रशासक बल्कि मुगलपूर्व मुस्लिम राज का सबसे सफल सेनापति बनकर उभरता है, इतना ही नहीं हिंदुस्तान का अपरोक्ष शासक बन बैठता है, तो यह कहानी कितनी फैसिनेटिंग होगी। जरा सोचिए? यह एक अद्भुत चरित्र है।
इस चरित्र और तत्कालीन समाज जिसमें यह चरित्र विकसित होता है, पर अधिक जानकारी या शोध नहीं है। इसीलिए इस चरित्र ने मुझे बांध दिया कि मैं इसकी कहानी दुनिया को सुनाऊं। अग्निकाल इसी चरित्र की जीवन गाथा है।
'माई गॉड। यह तो बहुत रोचक है। थोड़ा और बताइए न इसके बारे में।
'जरा सोचिए न? एक हिंदू बालक, परिस्थितिवश हिजड़ा बना कर गुलाम बनने को विवश कर दिया जाता है। एक बाजार से दूसरे बाजार में बिकता है, एक हरम से दूसरे हरम में जाकर जलील होता है। योग्यता के बावजूद हर कदम पर उसका तिरस्कार होता है। उसकी प्रेमिका की निर्मम हत्या हो जाती है। इन सबके बावजूद वह हर चुनौती को हराता है, सल्तनत का सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाता है। वह अचानक बोलते-बोलते ठहर गए। मैंने उनकी निगाह का पीछा किया तो पाया कि कॉफी हाउस में एक महिला हाथ में एक किताब पकड़े अंदर आ रही थी।
मैंने आंखें बड़ी करते हुए मुस्कराहट में ही पूछा, 'यही किताब है?
उनके चेहरे पर बच्चों जैसी हंसी खेल गई। लाजिम था कि मैं महिला के पास जाऊं और उसे बताऊं कि इस उपन्यास का लेखक इसी कॉफी हाउस में मौजूद है। पर उन्होंने मुझे रोक दिया। पाठिका हमारे पास की ही एक मेज-कुर्सी पर बैठ गईं और किताब खोल कर पन्ने पलटने लगी।
'इस उपन्यास का नाम अग्निकाल क्यों रखा आपने।
'इसकी वजह है। और वजह बहुत ठोस है। इस उपन्यास में कई बड़े-बड़े चरित्र हैं, कुछ ऐतिहासिक हैं, कुछ कल्पना की उपज। कैनवास भी बहुत बड़ा है। महमूद गजनवी, अलाउद्दीन खिलजी, अमीर खुसरो, निजामुद्दीन औलिया, राजा रामचंद्र, पांड्या राजकुमार, प्रतापरूद्र और स्वयं मलिक काफूर। इस उपन्यास का हर चरित्र लेकिन उस समय के हाथों विवश है, उस समय के लिबास को ओढ़ने के लिए। और वह समय इतना क्रूर है कि इंसान को इंसान रहने नहीं देता, इसीलिए यह अग्निकाल है।
'तो अग्निकाल पाठक किस आशा से पढ़े? मैंने उपन्यास के बहुत ही आकर्षक कवर को देखते हुए पूछा।
'अगर आप फास्ट पेस्ड थ्रिलर पढ़ना चाहती हैं, आप एक रहस्यभरा उपन्यास पढ़ना चाहती हैं, आप इतिहास के उस हिस्से में जाकर उसे छूना, महसूस करना चाहती हैं, या फिर बस आप एक रोचक कहानी पढ़ना चाहती हैं, तो यह उपन्यास आपके लिए है। वो टाइम मशीन होती है न? यह किताब वही है, सीधे आपको तेरहवीं सदी में ले जाएगी और इतना मेरा विश्वास है, आप पूरा पढ़े बिना इसे रखेंगी नहीं। बहुत आत्मविश्वास से उन्होंने जवाब दिया।
पाठकों, इस आत्मविश्वास में कुछ भी अतिरेक नहीं था। क्योंकि मैंने यह किताब पढ़ ली थी। लिहाजा वह एक काम मैंने किया जो रह गया थाए श्एक हस्ताक्षर करिए न इस पर।श् कहते हुए मैंने अपने बैग से उपन्यास निकालते हुए उनके सामने रख दिया।

(लेखक संप्रति नीति आयोग में जल तथा भूमि स्रोतों, संचार तथा स्पथ्म् मिशन के सलाहकार हैं।)

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