ग़बन - मुंशी प्रेमचंद भाग-32
Gaban novel by Munshi Premchand: ठीक दस बजे जालपा और देवीदीन कचहरी पहुंच गए। दर्शकों की काफ़ी भीड़ थी। ऊपर की गैलरी दर्शकों से भरी हुई थी। कितने ही आदमी बरामदों में और सामने के मैदान में खड़े थे। जालपा ऊपर गैलरी में जा बैठी । देवीदीन बरामदे में खड़ा हो गया।
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इजलास पर जज साहब के एक तरफ़ अहलमद था और दूसरी तरफ़ पुलिस के कई कर्मचारी खड़े थे। सामने कठघरे के बाहर दोनों तरफ़ के वकील खड़े मुक़द्दमा पेश होने का इंतज़ार कर रहे थे। मुलजिमों की संख्या पंद्रह से कम न थी। सब कठघरे के बग़ल में ज़मीन पर बैठे हुए थे। सभी के हाथों में हथकड़ियां थीं, पैरों में बेड़ियां। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई आपस में बातें कर रहा था। दो पंजे लड़ा रहे थे। दो में किसी विषय पर बहस हो रही थी। सभी प्रसन्नचित्त थे। घबराहट, निराशा या शोक का किसी के चेहरे पर चिन्ह भी न था।
ग्यारह बजते-बजते अभियोग की पेशी हुई। पहले जाब्ते की कुछ बातें हुई, फिर दो-एक पुलिस की शहादतें हुई। अंत में कोई तीन बजे रमानाथ गवाहों के कठघरे में लाया गया। दर्शकों में सनसनी-सी फैल गई। कोई तंबोली की दुकान से पान खाता हुआ भागा, किसी ने समाचार-पत्र को मरोड़कर जेब में रखा और सब इजलास के कमरे में जमा हो गए। जालपा भी संभलकर बारजे में खड़ी हो गई। वह चाहती थी कि एक बार रमा की आंखें उठ जातीं और वह उसे देख लेती, लेकिन रमा सिर झुकाए खड़ा था, मानो वह इधर-उधर देखते डर रहा हो उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। कुछ सहमा हुआ, कुछ घबराया हुआ इस तरह खड़ा था, मानो उसे किसी ने बांधा रखा है और भागने की कोई राह नहीं है। जालपा का कलेजा धक-धक कर रहा था, मानो उसके भाग्य का निर्णय हो रहा हो।
रमा का बयान शुरू हुआ। पहला ही वाक्य सुनकर जालपा सिहर उठी, दूसरे वाक्य ने उसकी त्योरियों पर बल डाल दिए, तीसरे वाक्य ने उसके चेहरे का रंग फक़ कर दिया और चौथा वाक्य सुनते ही वह एक लंबी सांस खींचकर पीछे रखी हुई कुरसी पर टिक गई, मगर फिर दिल न माना। जंगले पर झुककर फिर उधर कान लगा दिए। वही पुलिस की सिखाई हुई शहादत थी जिसका आशय वह देवीदीन के मुंह से सुन चुकी थी। अदालत में सन्नाटा छाया हुआ था। जालपा ने कई बार खांसा कि शायद अब भी रमा की आंखें ऊपर उठ जाएं, लेकिन रमा का सिर और भी झुक गया। मालूम नहीं, उसने जालपा के खांसने की आवाज़ पहचान ली या आत्म-ग्लानि का भाव उदय हो गया। उसका स्वर भी कुछ धीमा हो गया।
एक महिला ने जो जालपा के साथ ही बैठी थी, नाक सिकोड़कर कहा- ‘जी चाहता है, इस दुष्ट को गोली मार दें। ऐसे-ऐसे स्वार्थी भी इस देश में पड़े हैं जो नौकरी या थोड़े-से धन के लोभ में निरपराधों के गले पर छुरी फेरने से भी नहीं हिचकते’।
जालपा ने कोई जवाब न दिया।
एक दूसरी महिला ने जो आंखों पर ऐनक लगाए हुए थी, ‘निराशा के भाव से कहा, ‘ इस अभागे देश का ईश्वर ही मालिक है। गवर्नरी तो लाला को कहीं नहीं मिल जाती! अधिक-से-अधिक कहीं क्लर्क हो जाएंगे। उसी के लिए अपनी आत्मा की हत्या कर रहे हैं। मालूम होता है, कोई मरभुखा, नीच आदमी है,पल्ले सिरे का कमीना और छिछोरा।’
तीसरी महिला ने ऐनक वाली देवी से मुस्कराकर पूछा, ‘ आदमी फैशनेबुल है और पढ़ा-लिखा भी मालूम होता है। भला, तुम इसे पा जाओ तो क्या करो?’
ऐनकबाज़ देवी ने उद्दंडता से कहा, ‘नाक काट लूं! बस नकटा बनाकर छोड़ दूं।’
‘और जानती हो, मैं क्या करूं?’
‘नहीं! शायद गोली मार दोगी!’
‘ना! गोली न मारूं। सरे बाज़ार खड़ा करके पांच सौ जूते लगवाऊं। चांद गंजी हो जाए!’
‘उस पर तुम्हें ज़रा भी दया नहीं आएगी?’
यह कुछ कम दया है? उसकी पूरी सज़ा तो यह है कि किसी ऊंची पहाड़ी से ढकेल दिया जाए! अगर यह महाशय अमरीका में होते, तो ज़िन्दा जला दिये जाते!’
एक वृद्धा ने इन युवतियों का तिरस्कार करके कहा, ‘ क्यों व्यर्थ में मुंह ख़राब करती हो? वह घृणा के योग्य नहीं, दया के योग्य है। देखती नहीं हो,उसका चेहरा कैसा पीला हो गया है, जैसे कोई उसका गला दबाए हुए हो अपनी मां या बहन को देख ले, तो ज़रूर रो पड़े। आदमी दिल का बुरा नहीं है। पुलिस ने धमकाकर उसे सीधा किया है। मालूम होता है, एक-एक शब्द उसके हृदय को चीर-चीरकर निकल रहा हो।’
ऐनक वाली महिला ने व्यंग्य किया, ‘ जब अपने पांव कांटा चुभता है, तब आह निकलती है? ’
जालपा अब वहां न ठहर सकी। एक-एक बात चिंगारी की तरह उसके दिल पर फफोले डाले देती थी। ऐसा जी चाहता था कि इसी वक्त़ उठकर कह दे, ‘ यह महाशय बिलकुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ, और इसी वक्त़ इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दबाए हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों वह इसी वक्त़ सारा वृत्तांत नहीं कह सुनाती। पुलिस उसकी दुश्मन हो जाएगी, हो जाए। कुछ तो अदालत को ख़याल होगा। कौन जाने, इन ग़रीबों की जान बच जाए! जनता को तो मालूम हो जाएगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुंह से एक बार आवाज़ निकलते-निकलते रह गई। परिणाम के भय ने उसकी ज़बान पकड़ ली।
आख़िर उसने वहां से उठकर चले आने ही में कुशल समझी।
देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला, ‘ क्या घर चलती हो, बहूजी?’
जालपा ने आंसुओं के वेग को रोककर कहा, ‘हां, यहां अब नहीं बैठा जाता।’
हाते के बाहर निकलकर देवीदीन ने जालपा को सांत्वना देने के इरादे से कहा, ‘ पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुंघा दी, उस पर किसी दूसरी चीज़ का असर नहीं हो सकता।’
जालपा ने घृणा-भाव से कहा, ‘यह सब कायरों के लिए है।’
कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा, ‘क्यों दादा, अब और तो कहीं अपील न होगी? क़ैदियों का यहीं फैसला हो जाएगा।
’ देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया।बोला, ‘नहीं, हाईकोर्ट में अपील हो सकती है।’
फिर कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृक्ष की छांह में खड़ी हो गई और बोली, ‘दादा, मेरा जी चाहता है, आज जज साहब से मिलकर सारा हाल कह दूं। शुरू से जो कुछ हुआ, सब कह सुनाऊं। मैं सबूत दे दूंगी, तब तो मानेंगे?’
देवीदीन ने आंखें गाड़कर कहा-‘जज साहब से!’
जालपा ने उसकी आंखों से आंखें मिलाकर कहा-‘हां!’
देवीदीन ने दुविधा में पड़कर कहा, ‘मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता, बहूजी! हाकिम का वास्ता। न जाने चित पड़े या पट।’
जालपा बोली, ‘क्या पुलिस वालों से यह नहीं कह सकता कि तुम्हारा गवाह बनाया हुआ है?’
‘कह तो सकता है।’
‘तो आज मैं उससे मिलूं। मिल तो लेता है?’
‘चलो, दरियाफ्त़ करेंगे, लेकिन मामला जोखिम है।’
‘क्या जोखिम है, बताओ।’
‘भैया पर कहीं झूठी गवाही का इलजाम लगाकर सज़ा कर दे तो?’
‘तो कुछ नहीं। जो जैसा करे, वैसा भोगे।’
देवीदीन ने जालपा की इस निर्ममता पर चकित होकर कहा, ‘एक दूसरा खटका है। सबसे बड़ा डर उसी का है।’
जालपा ने उद्यत भाव से पूछा, ‘वह क्या?’
देवीदीन-‘पुलिस वाले बड़े कायर होते हैं। किसी का अपमान कर डालना तो इनकी दिल्लगी है। जज साहब पुलिस कमिसनर को बुलाकर यह सब हाल कहेंगे ज़रूर। कमिसनर सोचेंगे कि यह औरत सारा खेल बिगाड़ रही है। इसी को गिरफ्त़ार कर लो। जज अंगरेज़ होता तो निडर होकर पुलिस की तफसील करता। हमारे भाई तो ऐसे मुकदमों में चूं करते डरते हैं कि कहीं हमारे ही ऊपर न बगावत का इलज़ाम लग जाए। यही बात है। जज साहब पुलिस कमिसनर से ज़रूर कह सुनावेंगे। फिर यह तो न होगा कि मुक़द्दमा उठा लिया जाए। यही होगा कि कलई न खुलने पावे। कौन जाने तुम्हीं को गिरफ्त़ार कर लें। कभी-कभी जब गवाह बदलने लगता है, या कलई खोलने पर उताई हो जाता है, तो पुलिस वाले उसके घर वालों को दबाते हैं। इनकी माया अपरंपार है।
जालपा सहम उठी। अपनी गिरफ्त़ारी का उसे भय न था, लेकिन कहीं पुलिस वाले रमा पर अत्याचार न करें। इस भय ने उसे कातर कर दिया। उसे इस समय ऐसी थकान मालूम हुई मानो सैकड़ों कोस की मंज़िल मारकर आई हो उसका सारा साहस बर्फ के समान पिघल गया।
कुछ दूर आगे चलने के बाद उसने देवीदीन से पूछा, ‘अब तो उनसे मुलाकात न हो सकेगी?’
देवीदीन ने पूछा, ‘भैया से?’
‘हां’
‘किसी तरह नहीं। पहरा और कड़ाकर दिया गया होगा। चाहे उस बंगले को ही छोड़ दिया हो और अब उनसे मुलाकात हो भी गई तो क्या फ़ायदा! अब किसी तरह अपना बयान नहीं बदल सकते। दरोगा गहलफ़ी में फंस जाएंगे।’
कुछ दूर और चलकर जालपा ने कहा, ‘मैं सोचती हूं, घर चली जाऊं। यहां रहकर अब क्या करूंगी।’
देवीदीन ने करुणा भरी हुई आंखों से उसे देखकर कहा, ‘नहीं बहू, अभी मैं न जाने दूंगा। तुम्हारे बिना अब हमारा यहां पल-भर भी जी न लगेगा। बुढ़िया तो रो-रोकर परान ही दे देगी। अभी यहां रहो, देखो क्या फैसला होता है। भैया को मैं इतना कच्चे दिल का आदमी नहीं समझता था। तुम लोगों की बिरादरी में सभी सरकारी नौकरी पर जान देते हैं। मुझे तो कोई सौ रुपया भी तलब दे, तो नौकरी न करूं। अपने रोज़गार की बात ही दूसरी है। इसमें आदमी कभी थकता ही नहीं। नौकरी में जहां पांच से छः घंटे हुए कि देह टूटने लगी, जम्हाइयां आने लगीं।’
रास्ते में और कोई बातचीत न हुई। जालपा का मन अपनी हार मानने के लिए किसी तरह राज़ी न होता था। वह परास्त होकर भी दर्शक की भांति यह अभिनय देखने से संतुष्ट न हो सकती थी। वह उस अभिनय में सम्मिलित होने और अपना पार्ट खेलने के लिए विवश हो रही थी। क्या एक बार फिर रमा से मुलाकात न होगी? उसके हृदय में उन जलते हुए शब्दों का एक सागर उमड़ रहा था, जो वह उससे कहना चाहती थी। उसे रमा पर ज़रा भी दया न आती थी, उससे रत्ती-भर सहानुभूति न होती थी। वह उससे कहना चाहती थी, ‘ तुम्हारा धन और वैभव तुम्हें मुबारक़ हो, जालपा उसे पैरों से ठुकराती है। तुम्हारे ख़ून से रंगे हुए हाथों के स्पर्श से मेरी देह में छाले पड़ जाएंगे। जिसने धन और पद के लिए अपनी आत्मा बेच दी, उसे मैं मनुष्य नहीं समझती। तुम मनुष्य नहीं हो, तुम पशु भी नहीं, तुम कायर हो! कायर!’
जालपा का मुखमंडल तेजमय हो गया। गर्व से उसकी गर्दन तन गई। यह शायद समझते होंगे, जालपा जिस वक्त़ मुझे झब्बेदार पगड़ी बांध घोड़े पर सवार देखेगी, फूली न समाएगी। जालपा इतनी नीच नहीं है। तुम घोड़े पर नहीं, आसमान में उड़ो, मेरी आंखों में हत्यारे हो, पूरे हत्यारे, जिसने अपनी जान बचाने के लिए इतने आदमियों की गर्दन पर छुरी चलाई! मैंने चलते-चलते समझाया था, उसका कुछ असर न हुआ! ओह, तुम इतने धन-लोलुप हो, इतने लोभी! कोई हरज नहीं। जालपा अपने पालन और रक्षा के लिए तुम्हारी मुहताज़ नहीं। ‘इन्हीं संतप्त भावनाओं में डूबी हुई जालपा घर पहुंची।’