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ग़बन - मुंशी प्रेमचंद भाग-34

08:00 PM Jan 08, 2024 IST | Reena Yadav
ग़बन   मुंशी प्रेमचंद भाग 34
gaban hindi novel
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Gaban novel by Munshi Premchand: रमा मोटर पर चला, तो उसे कुछ सूझता न था, कुछ समझ में न आता था, कहां जा रहा है। जाने हुए रास्ते उसके लिए अनजाने हो गए थे। उसे जालपा पर क्रोध न था, ज़रा भी नहीं। जग्गो पर भी उसे क्रोध न था। क्रोध था अपनी दुर्बलता पर, अपनी स्वार्थलोलुपता पर, अपनी कायरता पर। पुलिस के वातावरण में उसका औचित्य-ज्ञान भ्रष्ट हो गया था। वह कितना बड़ा अन्याय करने जा रहा है, उसका उसे केवल उस दिन ख़याल आया था, जब जालपा ने समझाया था। फिर यह शंका मन में उठी ही नहीं। अफसरों ने बड़ी-बड़ी आशाएं बांधकर उसे बहला रखा । वह कहते, अजी बीबी की कुछ फिक़्र न करो। जिस वक्त़ तुम एक जड़ाऊ हार लेकर पहुंचोगे और रुपयों की थैली नज़र कर दोगे, बेगम साहब का सारा गुस्सा भाग जाएगा। अपने सूबे में किसी अच्छी-सी जगह पर पहुंच जाओगे, आराम से ज़िंदगी कटेगी। कैसा गुस्सा! इसकी कितनी ही आंखों देखी मिसालें दी गई। रमा चक्कर में फंस गया। फिर उसे जालपा से मिलने का अवसर ही न मिला। पुलिस का रंग जमता गया। आज वह जड़ाऊ हार जेब में रखे जालपा को अपनी विजय की ख़ुशख़बरी देने गया था। वह जानता था जालपा पहले कुछ नाक-भौं सिकोड़ेगी पर यह भी जानता था कि यह हार देखकर वह ज़रूर ख़ुश हो जाएगी। कल ही संयुक्त प्रांत के होम सेक्रेटरी के नाम कमिश्नर पुलिस का पत्र उसे मिल जाएगा। दो-चार दिन यहां ख़ूब सैर करके घर की राह लेगा। देवीदीन और जग्गो को भी वह अपने साथ ले जाना चाहता था। उनका एहसान वह कैसे भूल सकता था। यही मनसूबे मन में बांधकर वह जालपा के पास गया था, जैसे कोई भक्त फूल और नैवेद्य लेकर देवता की उपासना करने जाए, पर देवता ने वरदान देने के बदले उसके थाल को ठुकरा दिया, उसके नैवेद्य को पैरों से कुचल डाला।से कुछ कहने का अवसर ही न मिला । आज पुलिस के विषैले वातावरण से निकलकर उसने स्वच्छ वायु पाई थी और उसकी सुबुध्दि सचेत हो गई थी । अब उसे अपनी पशुता अपने यथार्थ रूप में दिखाई दी - कितनी विकराल , कितनी दानवी मूर्ति थी । वह स्वयं उसकी ओर ताकने का साहस न कर सकता था। उसने सोचा, इसी वक्त़ ज़ज के पास चलूं और सारी कथा कह सुनाऊं। पुलिस मेरी दुश्मन हो जाए, मुझे जेल में सड़ा डाले, कोई परवाह नहीं। सारी कलई खोल दूंगा। क्या जज अपना फैसला नहीं बदल सकता- अभी तो सभी मुलज़िम हवालात में हैं। पुलिस वाले खूब दांत पीसेंगे, खूब नाचे-कूदेंगे, शायद मुझे कच्चा ही खा जाएं। खा जाएं! इसी दुर्बलता ने तो मेरे मुंह में कालिख लगा दी।

जालपा की वह क्रोधोन्मत्त मूर्ति उसकी आंखों के सामने फिर गई। ओह, कितने गुस्से में थी! मैं जानता कि वह इतना बिगड़ेगी, तो चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाती, अपना बयान बदल देता। बड़ा चकमा दिया इन पुलिस वालों ने, अगर कहीं जज ने कुछ नहीं सुना और मुलज़िमों को बरी न किया, तो जालपा मेरा मुंह न देखेगी। मैं उसके पास कौन मुंह लेकर जाऊंगा। फिर जिंदा रहकर ही क्या करूंगा। किसके लिए?

उसने मोटर रोकी और इधर-उधर देखने लगा। कुछ समझ में न आया, कहां आ गया। सहसा एक चौकीदार नज़र आया। उसने उससे जज साहब के बंगले का पता पूछा- चौकीदार हंसकर बोला, ‘हुज़ूर तो बहुत दूर निकल आए। यहां से तो छः-सात मील से कम न होगा, वह उधर चौरंगी की ओर रहते हैं।’

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रमा चौरंगी का रास्ता पूछकर फिर चला। नौ बज गए थे। उसने सोचा,जज साहब से मुलाकात न हुई, तो सारा खेल बिगड़ जाएगा। बिना मिले हटूंगा ही नहीं। अगर उन्होंने सुन लिया तो ठीक ही है, नहीं कल हाईकोर्ट के जजों से कहूंगा। कोई तो सुनेगा। सारा वृत्तांत समाचार-पत्रों में छपवा दूंगा, तब तो सबकी आंखें खुलेंगी।

मोटर तीस मील की चाल से चल रही थी। दस मिनट ही में चौरंगी आ पहुंची। यहां अभी तक वही चहल-पहल थी, मगर रमा उसी ज़न्नाटे से मोटर लिये जाता था। सहसा एक पुलिसमैन ने लाल बत्ती दिखाई। वह रुक गया और बाहर सिर निकालकर देखा, तो वही दारोग़ाजी!

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दारोग़ा ने पूछा, ‘क्या अभी तक बंगले पर नहीं गए? इतनी तेज़ मोटर न चलाया कीजिए। कोई वारदात हो जाएगी। कहिए, बेगम साहब से मुलाकात हुई? मैंने तो समझा था, वह भी आपके साथ होंगी। ख़ुश तो ख़ूब हुई होंगी!’

रमा को ऐसा क्रोध आया कि मूंछें उखाड़ लूं, पर बात बनाकर बोला, ‘जी हां, बहुत ख़ुश हुई।’

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‘मैंने कहा था न, औरतों की नाराज़ी की वही दवा है। आप कांपे जाते थे। ’

‘मेरी हिमाक़त थी।’

‘चलिए, मैं भी आपके साथ चलता हूं। एक बाज़ी ताश उड़े और ज़रा सरूर जमे । डिप्टी साहब और इंस्पेक्टर साहब आएंगे। ज़ोहरा को बुलवा लेंगे। दो घड़ी की बहार रहेगी। अब आप मिसेज़ रमानाथ को बंगले ही पर क्यों नहीं बुला लेते। वहां उस खटिक के घर पड़ी हुई हैं।’

रमा ने कहा, ‘अभी तो मुझे एक ज़रूरत से दूसरी तरफ़ जाना है। आप मोटर ले जाएं ।मैं पांव-पांव चला आऊंगा।’

दारोग़ा ने मोटर के अंदर जाकर कहा, ‘नहीं साहब, मुझे कोई जल्दी नहीं है। आप जहां चलना चाहें, चलिए। मैं ज़रा भी मुख़िल न हूंगा। रमा ने कुछ चिढ़कर कहा,लेकिन मैं अभी बंगले पर नहीं जा रहा हूं।’

दारोग़ा ने मुस्कराकर कहा, ‘मैं समझ रहा हूं, लेकिन मैं ज़रा भी मुख़िल न हूंगा। वही बेगम साहब-‘

रमा ने बात काटकर कहा, ‘जी नहीं, वहां मुझे नहीं जाना है।’

दारोग़ा -‘तो क्या कोई दूसरा शिकार है? बंगले पर भी आज कुछ कम बहार न रहेगी। वहीं आपके दिल-बहलाव का कुछ सामान हाज़िर हो जाएगा।’

रमा ने एकबारगी आंखें लाल करके कहा, ‘क्या आप मुझे शोहदा समझते हैं?मैं इतना जलील नहीं हूं।’

दारोग़ा ने कुछ लज्जित होकर कहा, ‘अच्छा साहब, गुनाह हुआ, माफ़ कीजिए। अब कभी ऐसी गुस्ताखी न होगी लेकिन अभी आप अपने को खतरे से बाहर न समझें । मैं आपको किसी ऐसी जगह न जाने दूंगा, जहां मुझे पूरा इत्मीनान न होगा। आपको ख़बर नहीं, आपके कितने दुश्मन हैं। मैं आप ही के फायदे के ख़याल से कह रहा हूं।’

रमा ने होंठ चबाकर कहा, ‘बेहतर हो कि आप मेरे फायदे का इतना ख़याल न करें। आप लोगों ने मुझे मटियामेट कर दिया और अब भी मेरा गला नहीं छोड़ते। मुझे अब अपने हाल पर मरने दीजिए।मैं इस गुलामी से तंग आ गया हूं। मैं मां के पीछे-पीछे चलने वाला बच्चा नहीं बनना चाहता। आप अपनी मोटर चाहते हैं, शौक़ से ले जाइए। मोटर की सवारी और बंगले में रहने के लिए पंद्रह आदमियों को कुर्बान करना पड़ा है। कोई जगह पा जाऊं, तो शायद पंद्रह सौ आदमियों को कुर्बान करना पड़े। मेरी छाती इतनी मज़बूत नहीं है। आप अपनी मोटर ले जाइए।’

यह कहता हुआ वह मोटर से उतर पड़ा और जल्दी से आगे बढ़ गया। दारोग़ा ने कई बार पुकारा, ‘ज़रा सुनिए, बात तो सुनिए, ‘ लेकिन उसने पीछे फिरकर देखा तक नहीं। ज़रा और आगे चलकर वह एक मोड़ से घूम गया। इसी सड़क पर जज का बंगला था। सड़क पर कोई आदमी न मिला। रमा कभी इस पटरी पर और कभी उस पटरी पर जा-जाकर बंगलों के नंबर पढ़ता चला जाता था। सहसा एक नंबर देखकर वह रुक गया। एक मिनट तक खड़ा देखता रहा कि कोई निकले तो उससे पूछूं साहब हैं या नहीं। अंदर जाने की उसकी हिम्मत न पड़ती थी। ख़याल आया, जज ने पूछा, तुमने क्यों झूठी गवाही दी, तो क्या जवाब दूंगा। यह कहना कि पुलिस ने मुझसे ज़बरदस्ती गवाही दिलवाई, प्रलोभन दिया, मारने की धमकी दी, लज्जास्पद बात है। अगर वह पूछे कि तुमने केवल दो-तीन साल की सज़ा से बचने के लिए इतना बड़ा कलंक सिर पर ले लिया, इतने आदमियों की जान लेने पर उतारू हो गए, उस वक्त़ तुम्हारी बुद्धि कहां गई थी, तो उसका मेरे पास क्या जवाब है? ख्वामख्वाह लज्जित होना पड़ेगा। बेवकूफ़ बनाया जाऊंगा। वह लौट पड़ा। इस लज्जा का सामना करने की उसमें सामर्थ्य न थी। लज्जा ने सदैव वीरों को परास्त किया है। जो काल से भी नहीं डरते, वे भी लज्जा के सामने खड़े होने की हिम्मत नहीं करते। आग में झुक जाना, तलवार के सामने खड़े हो जाना, इसकी अपेक्षा कहीं सहज है। लाज की रक्षा ही के लिए बड़े-बड़े राज्य मिट गए हैं, रक्त की नदियां बह गई हैं, प्राणों की होली खेल डाली गई है। उसी लाज ने आज रमा के पग भी पीछे हटा दिए। शायद जेल की सज़ा से वह इतना भयभीत न होता।

रमा आधी रात गए सोया, तो नौ बजे दिन तक नींद न खुली । वह स्वप्न देख रहा था,दिनेश को फांसी हो रही है। सहसा एक स्त्री तलवार लिये हुए फांसी की ओर दौड़ी और फांसी की रस्सी काट दी । चारों ओर हलचल मच गई। वह औरत जालपा थी । जालपा को लोग घेरकर पकड़ना चाहते थे,पर वह पकड़ में न आती थी। कोई उसके सामने जाने का साहस न कर सकता था । तब उसने एक छलांग मारकर रमा के ऊपर तलवार चलाई। रमा घबड़ाकर उठ बैठा देखा तो दारोग़ा और इंस्पेक्टर कमरे में खड़े हैं, और डिप्टी साहब आरामकुर्सी पर लेटे हुए सिगार पी रहे हैं ।

दारोग़ा ने कहा, ‘आज तो आप ख़ूब सोए बाबू साहब! कल कब लौटे थे ?’

रमा ने एक कुर्सी पर बैठकर कहा, ‘ज़रा देर बाद लौट आया था। इस मुक़द्दमे की अपील तो हाईकोर्ट में होगी न?’

इंस्पेक्टर, ‘अपील क्या होगी, ज़ाब्ते की पाबंदी होगी। आपने मुक़द्दमे को इतना मज़बूत कर दिया है कि वह अब किसी के हिलाए हिल नहीं सकता हलफ़ से कहता हूं, आपने कमाल कर दिया। अब आप उधर से बेफिक़्र हो जाइए। हां, अभी जब तक फैसला न हो जाए, यह मुनासिब होगा कि आपकी हिफ़ाज़त का ख़याल रखा जाए। इसलिए फिर पहरे का इंतज़ाम कर दिया गया है। इधर हाईकोर्ट से फैसला हुआ, उधर आपको जगह मिली।’

डिप्टी साहब ने सिगार का धुआं फेंक कर कहा,यह डी. ओ. कमिश्नर साहब ने आपको दिया है, जिसमें आपको कोई तरह की शक न हो । देखिए,यू. पी. के होम सेक्रेटरी के नाम है । आप वहां यह डी. ओ. दिखाएंगे, वह आपको कोई बहुत अच्छी जगह दे देगा ।

इंस्पेक्टर-कमिश्नर साहब आपसे बहुत ख़ुश हैं, हलफ़ से कहता हूं ।

डिप्टी-बहुत ख़ुश हैं। वह यू. पी. को अलग ड़ायरेक्ट भी चिट्ठी लिखेगा। तुम्हारा भाग्य खुल गया।’

यह कहते हुए उसने डी. ओ. रमा की तरफ़ बढ़ा दिया। रमा ने लिफाफा खोलकर देखा और एकाएक उसको फाड़कर पुर्जे-पुर्जे कर डाला । तीनों आदमी विस्मय से उसका मुंह ताकने लगे ।

दारोग़ा ने कहा, ‘रात बहुत पी गए थे क्या? आपके हक़ में अच्छा न होगा!’

इंस्पेक्टर- ‘हलफ़ से कहता हूं, कमिश्नर साहब को मालूम हो जाएगा, तो बहुत नाराज होंगे।’

डिप्टी- ‘इसका कुछ मतलब हमारे समझ में नहीं आया ।इसका क्या मतलब है?’

रमानाथ-‘इसका यह मतलब है कि मुझे इस ड़ी. ओ. की ज़रूरत नहीं है और न मैं नौकरी चाहता हूं। मैं आज ही यहां से चला जाऊंगा।’

डिप्टी-‘जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जाए, तब तक आप कहीं नहीं जा सकता।’

रमानाथ-‘क्यों?’

डिप्टी-‘कमिश्नर साहब का यह हुक्म है।’

रमानाथ-‘मैं किसी का गुलाम नहीं हूं।

इंस्पेक्टर-‘बाबू रमानाथ, आप क्यों बना-बनाया खेल बिगाड़ रहे हैं?जो कुछ होना था, वह हो गया। दस-पांच दिन में हाईकोर्ट से फैसले की तसदीक़ हो जाएगी आपकी बेहतरी इसी में है कि जो सिला मिल रहा है, उसे ख़ुशी से लीजिए और आराम से ज़िंदगी के दिन बसर कीजिए। ख़ुदा ने चाहा, तो एक दिन आप भी किसी ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाएंगे। इससे क्या फ़ायदा कि अफसरों को नाराज़ कीजिए और क़ैद की मुसीबतें झेलिए। हलफ़ से कहता हूं, अफसरों की ज़रा-सी निगाह बदल जाए, तो आपका कहीं पता न लगे। हलफ़ से कहता हूं, एक इशारे में आपको दस साल की सज़ा हो जाए। आप हैं किस ख़याल में? हम आपके साथ शरारत नहीं करना चाहते। हां, अगर आप हमें सख्त़ी करने पर मज़बूर करेंगे, तो हमें सख्त़ी करनी पड़ेगी। जेल को आसान न समझिएगा। ख़ुदा दोज़ख में ले जाए, पर जेल की सज़ा न दे। मार-धाड़, गाली-गुफ्त़ा वह तो वहां की मामूली सज़ा है। चक्की में जोत दिया तो मौत ही आ गई। हलफ़ से कहता हूं, दोज़ख से बदतर है जेल! ’

दारोग़ा -‘यह बेचारे अपनी बेगम साहब से माज़ूर हैं । वह शायद इनके जान की ग्राहक हो रही हैं। उनसे इनकी कोर दबती है ।’

इंस्पेक्टर, ‘क्या हुआ, कल तो वह हार दिया था न? फिर भी राज़ी नहीं हुई ?’

रमा ने कोट की जेब से हार निकालकर मेज़ पर रख दिया और बोला,वह हार यह रखा हुआ है।

इंस्पेक्टर- ‘अच्छा, इसे उन्होंने नहीं कबूल किया।’

डिप्टी-‘कोई प्राउड लेडी है ।’

इंस्पेक्टर-‘कुछ उनकी भी मिज़ाज़-पुरसी करने की ज़रूरत होगी ।’

दारोग़ा -‘यह तो बाबू साहब के रंग-ढंग और सलीके पर मुनहसर है। अगर आप ख्वामख्वाह हमें मज़बूर न करेंगे, तो हम आपके पीछे न पड़ेंगे ।’

डिप्टी-‘उस खटिक से भी मुचलका ले लेना चाहिए ।’

रमानाथ के सामने एक नई समस्या आ खड़ी हुई, पहली से कहीं जटिल, कहीं भीषण। संभव था, वह अपने को कर्तव्य की वेदी पर बलिदान कर देता, दो-चार साल की सज़ा के लिए अपने को तैयार कर लेता। शायद इस समय उसने अपने आत्म-समर्पण का निश्चय कर लिया था, पर अपने साथ जालपा को भी संकट में डालने का साहस वह किसी तरह न कर सकता था। वह पुलिस के शिकंजे में कुछ इस तरह दब गया था कि अब उसे बेदाग निकल जाने का कोई मार्ग दिखाई न देता था ।उसने देखा कि इस लड़ाई में मैं पेश नहीं पा सकता पुलिस सर्वशक्तिमान है, वह मुझे जिस तरह चाहे दबा सकती है । उसके मिज़ाज़ की तेज़ी गायब हो गई। विवश होकर बोला, ‘आख़िर आप लोग मुझसे क्या चाहते हैं? ’

इंस्पेक्टर ने दारोग़ा की ओर देखकर आंखें मारीं, मानो कह रहे हों, ‘आ गया पंजे में’, और बोले, ‘बस इतना ही कि आप हमारे मेहमान बने रहें, और मुक़द्दमे के हाईकोर्ट में तय हो जाने के बाद यहां से रुख़सत हो जाएं । क्योंकि उसके बाद हम आपकी हिफाज़त के ज़िम्मेदार न होंगे। अगर आप कोई सर्टिफिकेट लेना चाहेंगे, तो वह दे दी जाएगी, लेकिन उसे लेने या न लेने का आपको पूरा अख्तियार है। अगर आप होशियार हैं, तो उसे लेकर फ़ायदा उठाएंगे, नहीं इधर-उधर के धक्के खाएंगे। आपके ऊपर गुनाह बेलज्ज़त की मसल सादिक आएगी। इसके सिवा हम आपसे और कुछ नहीं चाहते हलफ़ से कहता हूं, हर एक चीज़ जिसकी आपको ख्वाहिश हो, यहां हाज़िर कर दी जाएगी, लेकिन जब तक मुक़द्दमा खत्म हो जाए, आप आज़ाद नहीं हो सकते ।

रमानाथ ने दीनता के साथ पूछा, ‘सैर करने तो जा सकूंगा, या वह भी नहीं?’

इंस्पेक्टर ने सूत्र रूप से कहा, ‘जी नहीं! ’

दारोग़ा ने उस सूत्र की व्याख्या की, ‘आपको वह आज़ादी दी गई थी, पर आपने उसका बेज़ा इस्तेमाल किया । जब तक इसका इत्मीनान न हो जाए कि आप उसका जायज इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं, आप उस हक़ से महरूम रहेंगे।’

दारोग़ा ने इंस्पेक्टर की तरफ़ देखकर मानो इस व्याख्या की दाद देनी चाही,जो उन्हें सहर्ष मिल गई।

तीनों अफसर रुख़सत हो गए और रमा एक सिगार जलाकर इस विकट परिस्थिति पर विचार करने लगा ।

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