गुनाहों का सौदागर - राहुल भाग-6
लाला सुखीराम ने जैसे ही दुकान खोली, अचानक एक मोटरसाइकिल दनदनाती हुई तेजी से दुकान के सामने से गुजरी जिस पर तीन लड़के सवार थे। सबसे पीछे वाले लड़के के हाथ में एक पत्थर था, जो उसने खींचकर जो सिर शो केस पर मारा था। शो-केस का शीशा खनखनाकर टूट गया।
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अमृत ठीक उसी समय सीढ़ियों से निकल रहा था। वह झुककर बाहर आया और पत्थर उठाकर मोटरसाइकिल की तरफ फेंकता हुआ चिल्लाया‒“सुअर के बच्चे ! कुत्ते…अपने बाप से पैदा है तो रुक जा…।”
तब तक मोटरसाइकिल कहां की कहां पहुंच चुकी थी। दूसरे दुकानदार भी बाहर आ गये थे और वे पूछने लगे थे‒“क्या हुआ, अमृत ?”
“क्या हो गया ?”
लाला ने गाली देकर कहा‒“होगा क्या ? हरामियों की मौत मंडरा रही है सिर पर।”
“यह शो-केस कैसे टूट गया ?”
“अरे, वही हरामी पत्थर मारकर गए हैं।”
“कौन हरामी ?”
“वे, जो कल रात दुकान लूटकर ले गये थे। मुझे और अमृत को मारा-पीटा भी था।”
प्रोफेसर कॉलेज जाने के लिए तैयार था। वह अपने कम्पाउंड से निकल आया। दूसरे कम्पाउंड में हशमत अपनी गाड़ी स्टार्ट कर रहा था। वह भी आ गया। दुकान के सामने भीड़ जमा हो गई।
लाला सबको बता रहा था।
फिर वह प्रोफेसर और हशमत से बोला‒“आप लोग भी देख लीजिए, साहब। कल क्या किया था और अब आज डेढ़ हजार रुपए का शो-केस बरबाद करके चले गए। यह बात पुलिस को जरूर बताइएगा।”
अमृत ने कहा‒“और यह भी बताइएगा कि कल रात-भर कितना परेशान किया है हम लोगों को।”
प्रोफेसर ने कोमल स्वर में कहा‒“देखिए, लाला ! एक दोस्ताना सलाह दूं ?”
“बोलिए, साहब।”
अच्छा होगा कि आप पप्पी के खिलाफ अपनी रिपोर्ट वापस ले लें।”
लाला ने चौंककर कहा‒“क्या मतलब ?”
हशमत ने आगे बढ़कर कहा‒“मतलब मैं बताता हूं।”
लाला और अमृत उन दोनों की ओर आकर्षित हो गए।
हशमत ने कहा‒“इन लोगों ने रात को जो शोर-शराबा किया था हमें मालूम है। किसी ने पत्थर भी फेंका था और अब आपका शो-केस तोड़ गए।”
“बिल्कुल…!”
“लेकिन इन सब बातों को कल से लूटमार के केस से नहीं जोड़ा जा सकता।”
“क्यों नहीं जोड़ा जा सकता ?”
“इसलिए कि आपके पास क्या सबूत है कि कल रात हल्ला मचाने और पत्थर फेंकने वाले और आज शो-केस तोड़ने वाले पप्पी के साथी थे।”
“उनके सिवा और कौन हो सकता है ?”
“यह तो आप कह रहे हैं न ? क्या पुलिस मान जाएगी ?”
“लेकिन आप लोग तो समझते हैं।”
“लाला, हमारे समझने से अदालत या कानून को नहीं समझाया जा सकता। हम लोग भी क्या कर लेंगे ? क्या हम में से किसी ने पप्पी के साथियों को देखा या पहचाना था ?”
प्रोफेसर ने कहा‒“हशमत साहब ठीक कह रहे हैं, लाला !”
हशमत ने कहा‒“हम लोग तो सिर्फ गवाह हैं। आप मुद्दई हैं। इसके अलावा प्रोफेसर के या मेरे साथ किसी को बदतमीजी करने की जरूरत नहीं हो सकती।”
प्रोफेसर ने का‒“लेकिन आप ठहरे दुकानदार ! हर वक्त दुकान खोले बैठे रहते हैं। खुदा न करे, अगर कोई पत्थर मारने की जग तेजी से गोली चलाता हुआ ही गुजरेगा तो कौन पकड़ लेगा ?”
लाला सन्नाटे में रह गया।
हशमत ने कहा‒“लालाजी, जिसके हाथ में हथियार हो, वह शेर होता है और गोली चलने के डर से हजार आदमियों की भीड़ भागती है क्योंकि हर आदमी यही सोचता है, कहीं उस एक गोली पर मेरा ही नाम न लिखा हो।”
प्रोफेसर ने फिर ने कहा‒“अनुभव की बात है, लालाजी आप खुद सोचिए, आजकल हालात कितने खराब हैं।”
हशमत ने कहा‒“आज तो सबसे ज्यादा बहादुर यह है, जो किसी की गोली खाकर सिर झुकाकर चला आए और चांटा खाकर खुद ही माफी भी मांग ले।”
प्रोफेसर ने फिर से कहा‒“फिर शरारती गुंडों से दुश्मनी मोल लेने से क्या लाभ ? आप एक को दंड दिलवा देंगे तो क्या बाकी चुप बैठे रहेंगे ?”
हशमत बोला‒“सिर्फ एक को पकड़वाने के बदले में तो उन लोगों ने यह कयामत बरपा कर रखी है। अगर उसे जेल हो गई तो जरा सोचिए क्या होगा ?”
“बेहतर होगा कि आपका जो नुकसान हो चुका है, उसे अपने बच्चों का सदका समझ लीजिए।”
“आज के नुकसान को आखिरी नुकसान समझ लीजिए।”
“वरना आपके साथ वह अड़ौस-पड़ौस के सारे दुकानदार खतरे में रहेंगे।”
“बदमाशों का न तो कोई ईमान है, न ही धर्म। फिर आजकल पहले जैसे बदमाश रह नहीं। एक साधारण जेबकतरा भी देसी कट्टे से कम नहीं रखता।”
अमृत के चेहरे के रंग बार-बार बदल रहे थे। उसने गुस्से से कहा‒“आपका मतलब है, आज हम हथियार डाल दें ताकि कल वह और भी ज्यादा शेर हो जाएं।”
लाला ने उसे डपटकर कहा‒“तू चुप रह। इन लोगों को बुद्धि से क्या तेरी बुद्धि तेज है ? अरे-अरे ये लोग बड़े काम के सुझाव दे रहे हैं।”
एक दुकानदार ने कहा‒“तुम खुद सोचो, अमृत। अगर वह फेंका हुआ पत्थर लाला के या तुम्हारे सिर पर लग जाता तो क्या होता ?”
दूसरा दुकानदार बोला‒“और फिर सचमुच आज सिर्फ पत्थर फेंका है। कल गोलियां भी चला सकते हैं।”
“क्या खबर तुम्हारी दुकान में ग्राहक ही खड़े हों। उनमें से किसी के लग जाए ?”
“और फिर तुम्हारा बड़ा लड़का, वैसे ही इतनी दूर सर्विस पर जाता है। जब वे लोग दुश्मन बनेंगे तो सभी के दुश्मन बनेंगे।”
लाला ने थूक निगलकर कहा‒“फि…फ…फिर मैं क्या करूं ?”
हशमत ने कहा‒“आप प्रोफेसर और मेरे साथ थाने चलिए और रिपोर्ट वापस ले लीजिए।”
“लेकिन क्या कहकर ?”
“यह हम आपको समझा देंगे। आप चलिए तो सही।”
प्रोफेसर ने कहा‒“मैं गाड़ी लाता हूं।”
कुछ देर बाद वे तीनों गाड़ी में चले गए और अमृत निचला होंठ दातों में दबाए खूंखार नजरों से गाड़ी को देखता रहा।
इन्स्पेक्टर दीक्षित उन तीनों को साथ देखकर खड़ा हो गया। हाथ मिलाकर तीनों बैठ गए तो इन्स्पेक्टर दीक्षित ने पूछा‒“फरमाइए, मेरे योग्य कोई सेवा ?”
प्रोफेसर ने कहा‒“बात यह है, इन्स्पेक्टर साहब। दरअसल लालाजी कल रात की रिपोर्ट वापस लेना चाहते हैं।”
“क्यों ?”
“परेशानी यह है कि पुलिस हर वक्त न तो दुकान पर खड़ी रह सकती है और न ही लालाजी के परिवार के हर व्यक्ति के साथ एक गार्ड रह सकता है।”
“फिर…?”
“अब कानून की और कानून के रक्षकों की अपनी मजबूरियां हैं। अपराध और गुन्डागर्दी इतनी बढ़ गई हैं कि फोर्स कम पड़ने लगी है। कहां-कहां दौड़ते फिरेंगे आप ?”
हशमत ने कहा‒“अब आप ही कोई ऐसा रास्ता निकालिए कि यह मामला आसानी से सुलझ जाए।”
इन्स्पेक्टर दीक्षित ने ठंडी सांस ली और बोला‒“मैं नहीं कह सकता कि लाला का फैसला गलत है या सही। लेकिन आपका यह कहना भी दुरुस्त है कि हम हर वक्त और हर जगह लाला के परिवार की रक्षा नहीं कर सकते। अब कल रात में ही नगर और उसके आसपास के इलाके में पूरे दस केस हुए हैं।”
“ओहो…!”
“खैर ! लालाजी रिपोर्ट वापस लेने का एक ही तरीका है।”
“वह क्या ?”
“लालाजी की दुकान पर जिन बदमाशों ने डाका डाला था, वे भाग गये थे। पप्पी को बाद में कांस्टेबल अमरसिंह और उसके साथी संदेह में पकड़ लाए। जल्दी में लाला और इनके बेटे ने इसे ठीक से नहीं देखा। आज जब खानापूर्ती के लिए यहां आए तो लाला ने पप्पी को ध्यान से देखा और बताया कि यह तो वह लड़का नहीं है, जिसने डाके में हिस्सा लिया था।”
प्रोफेसर ने लाला से कहा‒“क्यों, लाला ?”
लाला ने सिर हिलाकर कहा‒“ठीक है, साहब। मैं कह दूंगा।”
इन्स्पेक्टर दीक्षित ने कहा‒“आपकी रिपोर्ट दर्ज रहेगी। हम लोग छानबीन करते रहेंगे बाद में देखेंगे। लेकिन फिलहाल आपकी समस्या हल हो जाएगी।”
“जैसा आप कहें ?”
“तो आप लिखकर दे दीजिए कि पप्पी वह लड़का नहीं है, जिसने डाके में हिस्सा लिया था। एक जैसे कपड़ों के कारण रात में भ्रम हो गया। आप असल मुजरिम को देख लें तो जरूर पहचान लेंगे।”
“ठीक है।”
इन्स्पेक्टर दीक्षित ने एक कांस्टेबल को बुलाकर लाला का बयान लिखवाया और उस पर लाला के दस्तखत ले लिए।
फिर वह बोला‒“बस, आपका काम खत्म।”
लाला ने कहा‒“लेकिन अब तो ये लोग मुझे और मेरे परिवार को नहीं सताएंगे ?”
“आप जाइए, आराम से दुकान खोलिए।”
वे लोग जब चले गये तो इन्स्पेक्टर दीक्षित मुस्कराया और एक कांस्टेबल ने बोला‒“प्रेमप्रताप को बाहर लाओ।
कुछ देर बाद प्रेमप्रताप इन्स्पेक्टर दीक्षित के सामने कुर्सी पर बैठा था और दीक्षित रिसीवर उठाकर डायल घुमा रहा था।
दूसरी तरफ से किसी ने कहा‒“यस…!”
“कौन, शेरवानी साहब ?”
“स्पीकिंग…।”
“मैं इंस्पेक्टर दीक्षित हूं।”
“क्या लाला ने रिपोर्ट वापस ले ली ?”
“जी, हां। प्रोफेसर साहब और हशमत साहब को आपने फोन कर दिया था उन्हीं दोनों के साथ लाला आया था। रिपोर्ट तो है, लेकिन गिरफ्तारी कोई नहीं और किसी की भी शिनाख्त नहीं।”
“पप्पी कहां है ?”
“मेरे सामने बैठा है। मगर लाला बहुत आतंकित है। इन लोगों को समझा दीजिए कि जो होना था हो गया, अब लाला का पीछा छोड़ दें।”
“लाला को अब कोई नहीं सताएगा।”
“शुक्रिया, शेरवानी साहब ! मैं प्रेमप्रपात को भेज रहा हूं।”
“ठीक है।”
दूसरी तरफ से लाइन कट गई।
इंस्पेक्टर दीक्षित ने रिसीवर रखा और पप्पी की तरफ देखते हुए मुस्कराकर बोला‒“तुम जा सकते हो।”
पप्पी कुर्सी से उठा और बाहर निकल आया।
ठीक उसी समय साइकिल से अमरसिंह ने कम्पाउंड में प्रवेश किया और पप्पी को बरामदे से उतरते देखकर वह गड़-बड़ाकर झट साइकिल से उतर गया।
पप्पी उसे देखकर रुक गया। विजयी ओर जहर भरे अन्दाज में मुस्कराया। अमरसिंह ने साइकिल उसके नजदीक लाकर कहा‒“अबे, तुझे किसने छोड़ दिया ?”
पंडित ने तुरन्त आगे बढ़कर कहा‒“ओए अमरसिंह ! तेरा भेजा तो नहीं फिर गया ?”
“तुम चुप रहो, पंडितजी।”
“अबे, इन्हें इंस्पेक्टर साहब ने छोड़ा है।”
“क्या ? इंस्पेक्टर साहब ने ?”
“हां, जाकर पूछ ले अन्दर।”
फिर पंडित पप्पी से बोला‒“जाइए साहब…आप जाइए।”
पप्पी ने जहरीले अन्दाज में अमरसिंह को घूरा और बोला‒“मैं तो छूट गया अमरसिंह लेकिन मुझे एक इस रात का कर्जा चुकाना पड़ेगा, जो मैंने हवालात में गुजारी है तेरे कारण से।”
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अमरसिंह ने पप्पी के गिरेबान की तरफ हाथ बढ़ाकर कहा‒“अबे, धमकी देता है पुलिसवाले को ?”
पंडित ने जल्दी से उसका हाथ पकड़ते हुए कहा‒“अबे, काहे कूं मरने का है ?”
पप्पी ने फिर अमरसिंह से कहा‒“तेरे जैसे जाने कितने पुलिसवाले मेरे तलबे चाटते हैं और यह भी सुन ले, जिसे तू धमकी समझ रहा है, जब वह असलियत में बदलेगी तो तू अपनी इस मूर्खता पर बुरी तरह पछताएगा। मुझ पर जितना मार पड़ी है, उसके एक-एक चांटे का हिसाब देना पड़ेगा।”
अमरसिंह गुर्राकर बोला‒“अबे, तेरी तो मैं…”
पंडित ने फिर भुजा पकड़ ली और पप्पी से बोला‒“जाइए साहब। काहे को मुंह लगते हैं नादान के।”
पप्पी बड़े आराम से पतलून की जेबों में हाथ डाले हुए चला गया। अमरसिंह उसे फाटक के बाहर तक खूंखार नजरों से घूरता रहा।
फिर वह पंडित से बोला‒“कैसे छोड़ दिया, इंस्पेक्टर साहब ने ? यह तो रंगे हाथों पकड़ा गया था।”
अमरसिंह साइकिल खड़ी करके तीर की तरह अन्दर की तरफ गया। पंडित ने पप्पी को अन्दर वापस आते देखा तो तुरन्त बोला‒“क्या हुआ, साहब ?”
पप्पी ने गम्भीरता से कहा‒“कुछ नहीं। यह साइकिल उसी की है ?”
पप्पी ने गम्भीरता से कहा‒“कुछ नहीं। यह साइकिल उसी की है ?”
“जी, हां।”
साइकिल में ताला नहीं था। पप्पी ने आराम से साइकिल स्टैंड से उतारी और उस पर सवार होकर कम्पांउड से बाहर निकल आया। पंडित ने उसे रोका भी नहीं। वह दूसरी तरफ मुड़ गया।
दूसरी तरफ अमरसिंह ने अन्दर पहुंचकर इंस्पेक्टर दीक्षित से कहा‒“साहब ! आपने उस बदमाश को छोड़ दिया ?”
इंस्पेक्टर दीक्षित ने उसे घूरकर कहा‒“किस बदमाश को ?”
“पप्पी…जिसे रात ही मैंने इतनी मुश्किल से पकड़ा था।”
“जानते हो, पप्पी कौन है ?”
“एक लुटेरा और कातिलाना हमले का मुजरिम।”
“पप्पी के पिता जगताप, ज्योति आयल मिल के मालिक हैं।”
“वह जमशेदजी टाटा या बिड़ला के खानदान से ही क्यों न हों। मगर मैंने उसे लुटेरे की हैसियत से पकड़ा था कल रात को।”
“क्या तुमने उसे लूटमार करते देखा था ?”
“मैंने नहीं देखा तो क्या हुआ ? और लोगों ने तो देखा था।”
“किस-किसने ?”
प्रोफेसर साहब ने…हशमत ने…”
“रिपोर्ट पढ़ो। उनके बयान पर विचार करो। जब वे लाग बाहर आए तो लुटेरे मोटरसाइकिल पर सवार होकर भाग रहे थे और उन लोगों ने उन्हें पीठ की तरफ से देखा था।”
![](https://grehlakshmi.com/wp-content/uploads/2023/02/Resized-1-1024x739.jpeg)
“मगर मैंने तो सामने से देखा था। व लोग मोटरसाइकिल पर आ रहे थे भागते हुए और मैंने पप्पी की भुजा पकड़कर उसे खींच लिया था।”
“तुम सिर्फ एक सवाल का जवाब दो। तुमने उन्हें लूटमार करते देखा था ?”
“नहीं…।”
“और गवाहों ने उसे पीठ की तरफ से देखा था। शोर सुनकर तुम आकर्षित हुए थे। तुम्हें जो मोटरसाइकिल सामने आती नजर आई, उसी पर से तुमने एक को घसीट लिया।”
“अरे साहब, पंडित और दूसरे लोग भी तो मेरे साथ थे।”
“लेकिन पप्पी को तुमने अकेले पकड़ा था। बोलो, हां या न ?”
“जी…।”
“जब तुमने पप्पी को पकड़ लिया था तो वे तीनों भी यही समझे थे कि तुमने असली मुजरिम को पकड़ा है।”
“तो क्या वह असली मुजरिम नहीं था ?”
“यह तो हमारा विचार नहीं खुद लाला सुखीराम का बयान है।”
“क्या…लाला सुखीराम का बयान ?”
“हां‒अभी लाला सुखीराम, प्रोफेसर और हशमत साहब आए थे। लाला सुखीराम ने पप्पी को बुलाकर देखा और खुद ही कहने लगा कि यह वह लड़का नहीं है, जो दुकान में लूटमार कर रहा था। हां, उसके कपड़े जरूर पप्पी के कपड़ों से मिलते-जुलते थे।”
“नहीं…।”
“लाला सुखीराम खुद बयान लिखवाकर दे गए हैं। अब हमें असल अपराधी खोजने हैं।”
अमरसिंह सन्नाटे में खड़ा रह गया था। इंस्पेक्टर ने घंटी की आवाज सुनकर रिसीवर उठा लिया और किसी से बातें करने लगा।
अमरसिंह मुड़कर बाहर निकल आया। उसका खून रह-रहकर खौल रहा था। बाहर आकर उसने बरामदे के सामने से साइकिल गायब देखी तो चौंक पड़ा। इधर-उधर देखा। फिर तेज-तेज चलता हुआ पंडित के पास गया और तेज स्वर में बोला‒“पंडितजी ! मेरी साइकिल कौन ले गया है ?”
“कौन-सी साइकिल ?”
“मेरी क्या दो-चार साइकिलें हैं ?”
“अरे, तो क्या मैं तेरी साइकिल की रखवाली पर नौकर हूं ? ताला लगाता है तू। ताले के साथ भला कहां चली जाएगी ?”
“मैंने जल्दी में ताला नहीं लगाया था।”
“कहां खड़ी थी ?”
“अरे, तुम्हारे सामने ही तो छोड़ी थी बरामदे के सामने।”
“मुझे नहीं मालूम।” पंडित लापवाही से बीड़ी सुलगाने लगा।
अमर के होंठ सख्ती से भिंचे रहे। फिर वह तेजी से कम्पाउंड से बाहर निकल आया।