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कन्यादान—गृहलक्ष्मी की कहानियां

01:00 PM Jan 30, 2024 IST | Sapna Jha
कन्यादान—गृहलक्ष्मी की कहानियां
Kanyadaan
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Hindi Story: जैसे जैसे लगन का समय नज़दीक आ रहा था गंगा की भूख ही मरती जा रही थी। आज भी चार निवाले से ज्यादा गले से न उतरा की दरवाजे की घंटी बजी। अब इस वक्त भिखारी के अलावा और कौन होगा यही सोच कर दरवाज़ा खोला तो जी धक्क से रह गया। अपने ही घर के दरवाजे पर आज शिवेंद्र याचक बन कुछ मांगने आया था। उसके चरणों की धूल को माथे पर सजा गंगा उन्हें घर के भीतर ले आयी। बेटी की शादी का अवसर था। घर मेहमानों से खचाखच भरा था। ऐसे में लोगों को मुफ्त तमाशा देखने मिल जाता। भला ऐसा होते वह कैसे देख सकती थीं। गंगा तो जैसे सचमुच गंगा सी पवित्र व सरल थीं। उनके चेहरे पर अलग ही ओज था जिसे देखकर कोई नहीं कह सकता था कि उनके जवान बच्चे हैं। वह सचमुच गंगा सी निर्मल लगती थी। उनके होठों पर सुसज्जित मुस्कान अनायास ही शिव के मस्तक सजी पावन गंगा की याद दिलाती।
सच! अगर सुंदरता ही स्त्री की पहचान होती है तो गंगा के पाँव जमीन पर नहीं पड़ने चाहिए थे। मधुर स्वभाव की स्वामिनी विनम्र गंगा जिसने अपने संपूर्ण जीवनकाल में शायद ही किसी से ऊँची आवाज में बात की हो। जिसने केवल अपने बलबूते पूरे परिवार को सस्नेह संभाला हो वह साहसी महिला आखिर आज अकेली क्यों हैं और अनायास ही आ पहुँचे आगंतुक से आखिर उनका क्या नाता है? ऐसे तमाम सवाल लोगों की जुबान पर आते - आते रह गए जब वह उन्हें अपने साथ लेकर भवन के आखिरी कमरे की ओर बढ़ीं।
साथ चलते हुए सात वचन याद आए तो मन व्याकुल हुआ और यादों का पिटारा अनायास ही खुल गया। वह सुबह याद आई जब पूरे परिवार के सामने शिवेंद्र ने कहा था कि अब वह अपनी अलग दुनिया बसाना चाहते हैं। उसके मुंह से अचानक यह सुन सभी सकते में आ गये थे।

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बच्चों का भविष्य अधर में था। काव्या बारहवीं में थी। दोनों लड़के कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म कर चुके थे। बच्चों के विवाह की उम्र में पिता का किसी और स्त्री के साथ घर से पलायन उनकी समझ में नहीं आ रहा था। अपने पैरों पर खड़े होने के लिए उन्हें पिता की ज़रूरत थी।

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उन्होंने माँ की ओर देखा तो चेहरे पर वही माधुर्य विराजमान था। इसका मतलब उन्हें अपनी उजड़ चुकी दुनिया का भान था। आखिर यह सब एक दिन में तो न हुआ होगा। कैसे अपने बच्चों को इसकी भनक तक न लगने दी। यह सब सोचती काव्या मन ही मन रो रही थी। अपनी तड़प अपने ही हृदय में दफन करने वाली की और देखती हुई सोचने लगी कि आख़िर माँ किस धातु की बनी हैं, जो यह सब हँसते-हँसते झेल गईं। आखिर उसका अपराध क्या था.. क्या सुशील,संस्कारी स्वभाव ही बैरी बना है…आखिर पिता को ऐसी कौन सी कमनीय सुंदरी मिल गई कि परिवार का त्याग करने की नौबत आ गई.. सभी चिंतित थे मगर गंगा मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद कर रही थीं। अच्छा हुआ जो होना था पहले ही हो गया। बच्चों की शादी के बाद ये घटना घटती तो और जलालत झेलनी पड़ती।

बेटे सुमित व अंकित से चुप न रहा गया तो उतावलेपन में पिता से प्रश्न कर बैठे कि "हम कहाँ जायेंगे और हमारे बिज़नेस का क्या होगा?"
शिवेंद्र निरूत्तर थे तो गंगा ने जवाब दिया,

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"जाने दो इन्हें! इस रिश्ते से आज़ाद कर दो! तुम्हारे बिज़नेस के लिए पैसे मैं दूंगी !"
गंगा अपने परिवार की इकलौती बेटी थी। माँ के सारे गहने इसके हिस्से ही आए थे। बैंक में जमा कर लोन की अर्जी दी तो अच्छा- खासा धन मिल गया। हौसले को बुलंद कर कपड़ों का दुकान खोल लिया। माँ और बेटे बारी- बारी से दुकान पर बैठते हुए अपने कठिन परिश्रम से बिज़नेस को चरम तक पहुँचाया। बेटी को अच्छी शिक्षा दी और रिश्तेदारों की मदद से उसका विवाह तय किया।

अब जबकि पूरा परिवार संभल चुका है। ऐसे में गृहस्थ की वापसी ने वापस संशय में डाल दिया। अतीत की गलियों से गुजरती आंगन के पार आखिरी कमरे में आईं जहां काव्या हल्दी में लिपटी बैठी थी।

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शिवेंद्र को काव्या के सम्मुख खड़ा कर दिया और उनकी ओर मुखातिब होकर कहा कि
"आपको जो भी मांगना है इससे मांगिये क्योंकि आपको देने के लिए अब मेरे पास कुछ भी शेष नहीं!" आवाज में अजीब दृढ़ता थी।

"बेटी! एक पिता का हक उसे दे दो। तुम्हारा कन्यादान कर मैं उॠण होना चाहता हूँ।" बेटी काव्या से उसका कन्यादान करने का अधिकार मांग रहे थे।

"आपने जिस रोज़ हमें छोड़ा था उस दिन ही मैंने यह प्रतिज्ञा ली थी की मैं आजीवन आपको क्षमा नहीं करूंगी। जहां तक कन्यादान का प्रश्न है तो मैं विवाह तभी करूंगी जब माँ कन्यादान करेंगी अन्यथा नहीं। हमें तो माता- पिता दोनो का प्यार माँ ने दिया है। रात -दिन परिश्रम करके हमें जीवन -यापन करने योग्य बनाया है। हमें तो जीवन से कोई शिकायत नहीं मगर आपको अपनाना अपनी माँ का अपमान करना होगा। जिसकी ईमानदारी के बदले आपने धोखा दिया है उसके लिए आपको पिता का दर्ज़ा देना भी मैं उचित नहीं समझती! आपसे करबद्ध प्रार्थना है कि आप वहीं लौट जाएँ,जिनके लिए हमें छोड़ गए थे।" बड़ी ही दृढ़ता से काव्या ने अपनी प्रतिज्ञा दोहराई तो वह उल्टे पांव लौट गये।

ऐसे भी उनके बारे में उड़ती- उड़ती खबर आई थी कि वह अपनी नयी गृहस्थी में आये दिन होने वाले झगड़ों से क्षुब्ध हो चुके हैं और वापस आना चाहते हैं। होशमंद बच्चे भला ये कैसे होने देते। एक पिता के प्रति जो आदर व स्नेह होना चाहिए वह तो दूर पर वे उन्हें देखना तक पसंद नहीं करते थे। जिन्होंने किसी और के लिए उनकी माँ को भरी जवानी में मंझधार में छोड़ दिया था। उनके लिये उसके पास कोई विकल्प शेष न था। पिता होने के नाते क्षमा कर भी देते पर माँ का अपमान कैसे सहते। जिस माँ ने सारी जवानी जी-तोड़ मेहनत करते हुए बिताया,उस त्याग को कैसे भूल जाते। अब उन्हें छोड़ कर जाने वाले को सम्मान देकर,अपनी माँ को भला कैसे दुखी करते?

एक-दूसरे के प्रति प्रेम व समर्पण ही तो उस परिवार की एकमात्र पूँजी थी। काव्या भला उसे कैसे लुटने देती। उसने जिस सूझबूझ से अपने परिवार को संभाला,उसके लिये माँ और दोनों भाई सदा के लिए उसके क़ायल हो गए। लौट आये पति को लौटाने का गर्व आज एक विजयी मुस्कान के रूप में गंगा के चेहरे की शोभा बढ़ा रहा था

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