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कर्बला - मुंशी प्रेमचंद -19

08:00 PM Jan 10, 2024 IST | Reena Yadav
कर्बला   मुंशी प्रेमचंद  19
Karbala novel by Munshi Premchand
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आठवाँ दृश्य: [प्रातः काल हुसैन के लश्कर में जंग की तैयारियां हो रही हैं।]

अब्बास – खेमे एक दूसरे से मिला दिए गए, और उनके चारों तरफ खंदके खोद डाली गई, उनमें लकड़ियां भर दी गई। नक्कारा बजवा दूं?

हुसैन – नहीं, अभी नही। मैं जंग में पहले कदम नहीं बढ़ाना चाहता। मैं एक बार फिर सुलह की तहरीक करूंगा। अभी तक मैंने शाम के लश्कर से कोई तकरीर नहीं की, सरदारों ही से काम निकालने की कोशिश करता रहा। अब मैं जवानों से दूबदू बातें करना चाहता हूं। कह, दो सांड़नी तैयार करे।

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अब्बास – जैसा इर्शाद।

[बाहर जाते हैं।]

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हुसैन – (दुआ करते हुए) ऐ खुदा! तू ही डूबती हुई किश्तियों को पार लगाने वाला है। मुझे तेरी ही पनाह है, तेरा ही भरोसा है; जिस रंज से दिल कमजोर हो, उसमें तेरी ही मदद मांगता हूं। जो आफत किसी तरह सिर से न टले, जिसमें दोस्तों से काम न निकले, जहां कोई हीला न हो, वहां तू ही मेरा मददगार है।

[खेमे से बाहर निकलते हैं। हबीब और जहीर आपस में नेजेवाजी का अभ्यास कर रहे हैं।]

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हबीब – या हजरत, खुदा से मेरी यही दुआ है कि यह नेजा साद के जिगर में चुभ जाये, और ‘रै’ की सूबेदारी का अरमान उसके खून के रास्ते निकल जाये।

जहीर – उसे सूबेदारी जरूर मिलेगी। जहन्नुम की या ‘रै’ की, इसका फैसला मेरी तलवार करेगी।

हबीब – वाह! वह मेरा शिकार है, उधर निगाहें न उठाइएगा। आपके लिये मैंने शिमर को छोड़ दिया।

जहीर – बखुदा, वह मेरे मुकाबिले आए, तो मैं उसकी नाक काटकर छोड़ दूं। ऐसे बदनीयत आदमी के लिये जहन्नुम से ज्यादा तकलीफ दुनिया ही में है।

अब्बास – और मेरे लिये कौन-सा शिकार तजवीज किया?

जहीर – आपके लिये जियाद हाजिर है।

हुसैन – और मेरे लिये? क्या मैं ताकता ही रहूंगा?

जहीर – आपको कोई शिकार न मिलेगा।

हुसैन – मेरे साथ यह ज्यादती क्यों?

जहीर – इसलिए कि आप भी शिकारियों की जाल में आ जायेंगे, तो जन्नत की नियामतों में भी साझा बटाएंगे। आपके लिये रसूल-पाक की कुर्बत काफ़ी है। जन्नत की नियामतों में हम आपको शरीक नहीं करना चाहते।

हुसैन – मैं जरा साद के लश्कर से बातें करके आ जाऊं, तो इसका फैसला हो।

हबीब – उन गुमराहों की फ़रमाइश करना बेकार है। उनके दिल इतने सख्त हो गए हैं कि उन पर कोई तकरीर असर नहीं कर सकती।

हुसैन – ताहम कोशिश करना मेरा फर्ज है।

[परदा बदलता है। हुसैन अपनी सांड़नी पर साद की फौज के सामने खड़े हैं।]

हुसैन – ऐ लोगों, कूफ़ा और शाम के दिलेर जवानों और सरदारो! मेरी बात सुनो, जल्दी न करो। मुसलमान अपने भाई की गर्दन पर तलवार चलाने में, जितनी देर करे, ऐन सवाब है। मैं उस वक्त तक खुरेजी नहीं करना चाहता, जब तक तुम्हें इतना न समझा लूं, जितना मुझ पर वाजिब है। मैं खुदा और इंसान दोनों ही के नजदीक इस जंग की जिम्मेदारी से पाक रहना चाहता हूं, जहां भाई की तलवार भाई की गर्दन पर होगी। तुम्हें मालूम है, मैं यहां क्यों आया? क्या मैंने इराक या शाम पर फौजकसी की? मेरे अजीज़, दोस्त और अहलेबैत अगर फौज कहे जा सकते हों, तो बेशक मैंने फौजकसी की। सुनो और इंसाफ करो, अगर तुम्हें ख़ुदा का खौफ और ईमान का लिहाज है कि मैं यहां के झगड़ों से अलग रहकर खुदा की इबादत में अपनी जिंदगी के बचे हुए दिन गुजारूंगा। मगर तुम्हारी ही फरियाद ने मुझे अपने गोशे से निकाला, रसूल की फरियाद सुनकर मैं कानों से उंगली न डाल सका। अगर इस हिमायत की सज़ा क़त्ल है, तो यह सिर हाजिर है, शौक से कत्ल करो। मैं हज्जाज से पूछता हूं – क्या तुमने मुझे खत नहीं लिखे थे?

हज्जाज – मैंने आपको कोई खत नहीं लिखा था।

हुसैन – कीस, तुम्हें भी खत लिखने से इंकार है?

कीस – मैंने कब आपसे फ़रियाद की थी?

शिमर – सरासर गलत है, झूठ है।

हुसैन – खुदा गवाह है कि मैं अपनी जिंदगी में कभी झूठ नहीं बोला, लेकिन आज यह दाग भी लगा।

कीस – आप यजीद की बैयत क्यों नहीं कर लेते कि इस्लाम हमेशा के लिये फ़ितना और फसाद-पाक हो जाये?

हुसैन – क्या इसके सिवा मसालहत की और कोई सूरत नहीं है?

शिमर – नहीं, और कोई दूसरी सूरत नहीं है।

हुसैन – तो इस शर्त पर सुलह करना मेरे लिये गैरमुमकिन है। खुदा की कसम, मैं जलील होकर तुम्हारे सामने सिर न झुकाऊंगा, और न खौफ़ मुझे यजीद की बैयत कबूल करने पर मजबूर कर सकता है। अब तुम्हें अख्तियार है। हम भी जंग के लिये तैयार हैं।

शिमर – पहला तीर चलाने का सबाब मेरा है।

[हुसैन पर तीर चलाता है।]

किसी तरफ से आवाज आती है – “जहन्नुम में जाने का फख्र भी पहले तुझी की होगा।”

[हुसैन ऊँटनी को अपनी फौज की तरफ़ फेर देते हैं। हुर अपनी फौज से निकलकर आहिस्ता-आहिस्ता हुसैन के पीछे चलते हैं।

शिमर – वल्लाह, हुर, तुम्हारा इस तरह आहिस्ता-आहिस्ता अपने तई तौल-तौलकर चलना मेरे दिल में शुबहा पैदा कर रहा है। मैंने तुमको कभी लड़ाई में इस तरह काँपते हुए चलते नहीं देखा।

हुर – अपने को जन्नत और जहन्नुम के लिये तौल रहा हूं, और हक़ यह है कि मैं जन्नत के मुकाबले में किसी चीज को नहीं समझता, चाहे कोई मार ही क्यों न डाले। (घोड़े को एक ऐड लगाकर हुसैन के पास पहुंच जाते हैं) ऐ फर्जन्दे रसूल! मैं भी आपके हमराह हूं। खुदावंद मुझे आप पर फिदा करे, मैं वही हूं, जिसने आपको रास्ते से वापस करने की कोशिश की थी। खुदा की कसम, मुझे उम्मीद न थी कि ये लोग आपके साथ यह बर्ताव करेंगे, और सुलह की कोई शर्त न कबूल करेंगे, वरना मैं आपको इधर आने ही न देता, जब तक आप मेरे सिर पर न आते। अब इधर से मायूस होकर आपकी खिदमत में हाज़िर हुआ हूं कि आपकी मदद करते हुए अपने तईं आपके कदमों पर निसार कर दूं। क्या आपके नज़दीक मेरी तौबा कबूल होगी?

हुसैन – खुदा से मेरी दुआ है, तुम्हारी तौबा कबूल करें।

हुर – अब मुझे मालूम हो गया कि मैं यजीद से अपनी बैयत वापस लेने में कोई गुनाह नहीं कह रहा हूं।

[दोनों चले जाते हैं। तीरों की वर्षा होने लगती है।]

नवाँ दृश्य: [कूफ़ा का वक्त। कूफा का एक गांव। नसीमा खजूर के बाग में जमीन पर बैठी हुई गाती है।]

गीत

दबे हुओं को दबाती है ऐ जमीने-लहद,

यह जानती है कि दम जिस्म नातवां में नहीं।

क़फस में जी नहीं लगता है आह! फिर भी मेरा,

यह जानता हूं कि तिनका भी आशियां में नहीं।

उजाड़ दे कोई या फूंक दे उसे बिजली,

यह जानता हूं कि रहना अब आशियां में नहीं।

खुदा अपने दिल से मेरा हाल पूछा लो सारा,

मेरी जवां से मजा मेरी दास्तां में नहीं।

करेंगे आज से हम जब्त, चाहे जो कुछ नहीं।

यह क्या कि लब पै फुगां और असर फुगां में नहीं।

खयाल करके खुदा अपनी किए को रोता हूं,

तबाहियों के सिवा कुछ मेरे मकां में नहीं।

[वहब का प्रवेश]

नसीमा – बड़ी देर की। अकेले बैठे-बैठे जी उकता गया। कुछ उन लोगों की खबर मिली?

वहब – हां नसीमा, मिली। तभी तो देर हुई। तुम्हारा खयाल सही निकला। हजरत हुसैन के साथ है।

नसीम – क्या हजरत-हुसैन की फौज़ आ गई?

वहब – कैसी फ़ौज़? कुल बूढ़े, जवान और बच्चे मिलाकर 72 आदमी हैं। दस-पांच आदमी कूफ़ा से भी आ गए हैं। कर्बला के बेपनाह मैदान में उनके खेमे पड़े हैं। जालिम जियाद ने बीस-पच्चीस हजार आदमियों से उन्हें घेर रखा है। न कहीं जाने देता है, न कोई बात मानता है, यहां तक कि दरिया से पानी भी नहीं लेने देता। पांच हजार जवान दरिया की हिफाजत के लिये तैनात कर दिए हैं। शायद कल तक जंग शुरू हो जाये।

नसीमा – मुट्ठी-भर आदमियों के लिये 20-25 हजार सिपाही! कितना गजब! ऐसा गुस्सा आता है, जिया को पाऊं, तो सिर कुचल दूं।

वहब – बस, उसकी यही जिद है कि यजीद की बैयत कबूल करो। हजरत हुसैन कहते हैं, यह मुझसे न होगा।

नसीमा – हजरत हुसैन नबी के बेटे है, कौल पर जान देते हैं। मैं होती तो जियाद को ऐसा जुल देती कि वह भी याद करता। कहती – हां, मुझे बैयत कबूल है। वहां से आकर बड़ी फ़ौज जमा करती, और यजीद के दांत खट्टे कर देती। रसूल पाक को शरआ में ऐसी आफ़तों के मौके के लिये कुछ रियायत रखनी चाहिए थी। तो हजरत की फ़ौज में बड़ी घबराहट फैली होगी?

वहब – मुतलक नहीं नसीमा। सब लोग शहादत के शौक में मतवाले हो रहे हैं। सबसे ज्यादा तकलीफ़ पानी की है। जरा-जरा से बच्चे प्यासे तड़प रहे हैं।

नसीमा – आह जालिम! तुझसे खुदा समझे।

वहब – नसीमा, मुझे रुखसत करो। अब दिल नहीं मानता, मैं भी हज़रत हुसैन के कदमों पर निसार होने जाता हूं। आओ, गले मिल ले। शायद फिर मुलाकात न हो।

नसीमा – हाय वहब! क्या मुझे छोड़ जाओगे। मैं भी चलूंगी।

वहब – नहीं नसीमा, उस लू के झोंकों में यह फूल मुरझा जायेगा। (नसीमा को गले लगाकर) फिर दिल कमजोर हुआ जाता है। सारी राह कंबख्त को समझाता आया था। नसीमा, तुम मुझे दुत्कार दो। खुदा, तूने मुहब्बत को नाहक पैदा किया।

नसीमा – रोकर वहब, फूल किस काम आएगा। कौन इसको सूंघेगा, कौन इसे दिल से लगाएगा? मैं भी हजरत जैनब के कदमों पर निसार हूंगी।

वहब – वह प्यास की शिद्दत, वह गरमी की तकलीफ, वह हंगामे, कैसे ले जाऊं?

नसीमा – जिन तकलीफों को सैदानियां झेल सकती है, क्या मैं न झेल सकूँगी? हीले मत करो वहब, मैं तुम्हें तनहा न जाने दूंगी।

वहब – नसीमा, तुम्हें निगाहों से देखते हुए मेरे कदम मैदान की तरफ न उठेंगे।

नसीमा – (वहब के कंधे पर सिर रखकर) प्यारे! क्यों किसी ऐसी जगह नहीं चलते, जहां एक गोशे में बैठकर इस जिंदगी का लुत्फ उठाएं। तुम चले जाओगे, खुदा न ख्वास्ता दुश्मनों को कुछ हो गया, तो मेरी जिन्दगी रोते ही गुजरेगी। क्या हमारी जिंदगी रोने ही के लिये है? मेरा दिल अभी दुनिया की लज्जतों का भूखा है। जन्नत की खुशियों की उम्मीद पर इस जिंदगी को कुर्बान नहीं करते बनता। हज़रत हुसैन की फतह तो होने से रही। पच्चीस हज़ार के सामने जैसे सौ, वैसे ही एक सौ एक।

वहब – आह नसीमा। तुमने दिल के सबसे नाजुक हिस्से पर निशाना मारा। मेरी यही दिली तमन्ना है कि हम किसी आफियत के गोशे में बैठकर जिंदगी की बहार लूटें। पर जालिम की यह बेदर्दी देखकर खून में जोश आ जाता है, और दिल बेअख्तियार यहीं चाहता है कि चलकर हजरत हुसैन की हिमायत में शहीद हो जाऊं। जो आदमी अपनी आंखों से जुल्म होते देखकर जालिम का हाथ नहीं रोकता, वह भी खुदा की निगाहों में जालिम का शरीक है।

नसीमा – मैं अपनी आंखें तुम पर सदके करूं, मुझे अजाब व सवाब के मुखमसों में मत डालो। सोचो, क्या यह सितम नहीं है कि हमारी जिंदगी की बहार इतनी जल्द रुखसत हो जाये? अभी मेरे उरूसी कपड़े भी नहीं मैले हुए, हिना का रंग भी नहीं फीका पड़ा, तुम्हें मुझ पर जरा भी तर्स नहीं आता? क्या ये आंखें रोने के लिये बनाई गई हैं? क्या ये हाथ दिल को दबाने के लिये बनाए गए हैं? यही मेरी जिंदगी का अंजाम है?

[वहब के गले में हाथ डाल देती है।]

वहब – (स्वगत) खुदा संभालियों, अब तेरा ही भरोसा है। यह आशिक की दिल बहलानेवाली इल्तजा नहीं मालूम का ईमान गारत करने वाला तकाजा है।

[साहसराय की सेना सामने से चली आ रही है।]

नसीमा – अरे! यह फौज कहां से आ रही है? सिपाहियों का ऐसा अनोखा लिबास तो कहीं नहीं देखा। इनके माथों पर ये लाल-लाल बेल-बूटे कैसे बने हैं? कसम है इन आंखों की, ऐसे सजीले, कसे हसीन जवान आज तक मेरी नजर से नहीं गुजरे।

वहब – मैं जाकर पूछता हूं, कौन लोग है। (आगे बढ़कर एक सिपाही से पूछता है) ऐ जवानों! तुम फरिश्ते हो या इंसान? अरब में तो हमने ऐसे आदमी नहीं देखे। तुम्हारे चेहरों से जलाल बरस रहा है। इधर कहां जा रहे हो?

सिपाही – तुमने सुलतान साहसराय का नाम सुना हैं। हम उन्हीं के सेवक हैं, और हजरत हुसैन की सहायता करने जा रहे हैं, जो इस वक्त कर्बला के मैदान में घिरे हुए हैं। तुमने यजीद की बैयत ली है या नहीं?

वहब – मैं उस जालिम की बैयत क्यों कबूल करने लगा था।

सिपाही – तो आश्चर्य है कि तुम हज़रत हुसैन की फौज में क्यों नहीं हो। तुम सूरत से मनचले जवान मालूम होते हो, फिर यह कायरता कैसी?

वहब – (शरमाते हुए) हम वहीं जा रहे हैं।

सिपाही – तो फिर आओ, साथ चलें।

वहब – मेरे साथ मस्तूरात भी हैं। तुम लोग बढ़ो, हम भी आते हैं।

[फौज चली जाती है।]

नसीमा – यह साहसराय कौन है?

वहब – यह तो नहीं कह सकता, पर इतना कह सकता हूं कि ऐसा हकपरस्त दिलेर, इंसान पर निसार होने वाला आदमी दुनिया में न होगा। वेकसों की हिमायत में कभी उसे पीछे कदम हटाते नहीं देखा। मालूम नहीं, किस मजहब का आदमी है, पर जिस मजहब और जिस क़ौम में ऐसी पाक रूहें पैदा हों, वह दुनिया के लिये बरकत है।

नसीमा – इनके भी बाल बच्चे होंगे?

वहब – बहुत बड़ा खानदान है। सात तो भाई भी हैं।

नसीमा – और मुसलमान न होते हुए भी ये लोग हजरत हुसैन की इमदाद के लिए जा रहे हैं?

वहब – हां, और क्या!

नसीमा – तो हमारे लिये कितनी शर्म की बात है कि हम यों पहलूतिही करें।

वहब – प्यारी नसीमा, चले चलेंगे। दो-चार दिन तो जिंदगी की बहार लूट लें।

नसीमा – नहीं वहब, एक लम्हें की भी देर न करो। खुदा हमें जन्नत में फिर मिलाएगा, और अब अब्द तक जिंदगी की बहार लूटेंगे।

वहब – नसीमा आज और सब्र करो।

नसीमा – एक लम्हा भी नहीं। वहब, अब इम्तहान में न डालो, सांड़नी लाओ, फौरन चलो।


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