कर्बला - मुंशी प्रेमचंद -20
पहला दृश्य: [समय 9 बजे दिन। दोनों फ़ौजे लड़ाई के लिये तैयार हैं।]
हुर – या हजरत, मुझे मैदान में जाने की इजाजत मिले। अब शहादत का शौक रोके नहीं रुकता।
हुसैन – वाह, अभी आए हो और अभी चले जाओगे। यह मेहमाननेवाजी का दस्तूर नहीं कि हम तुम्हें आते-ही-आते रुखसत कर दें।
हुर – या फ़र्जदे-रसूल, मैं आपका मेहमान नहीं, गुलाम हूं। आपके कदमों पर निसार होने के लिये आया हूं।
हुसैन – (हुर के गले मिलकर आंखों में आंसू भरे हुए) अगर तुम्हारी इसी में खुशी है, तो आओ, खुदा को सौंपा –
दुनिया के शहीदों में तेरा नाम हो भाई,
उकबा में तुझे राहतोआराम हो भाई।
[हुर मैदान की तरफ चलते हैं, हुसैन खेमे के दरवाजे तक उन्हें पहुंचाने आते हैं। खेमे से निकलते हुए हुर हुसैन के कदमों को बोसा देते हैं, और चले जाते हैं।]
हुर – (मैदान में जाकर)
गुलाम हजरते शब्बीर रन में आता है,
वही जो दीन का है बंदा, वह मेरा आका है।
वह आए ठीक के खम, जिसकी मौत आई है,
उसी का पीने को लूँ मेरी तेग आई है।
[सफ़वान उधर से झूमता हुआ आता है।]
हुर – सफवान, कितनी शर्म की बात है कि तुम फ़र्जदे-रसूल से जंग करने आए हो?
सफ़वान – हम सिपाहियों को माल, दौलत, जागीर और रुतवा चाहिए, हमें दीन और आक़बत से क्या काम? संभल जाओ।
[दोनों पहलवानों में चोटें चलने लगती हैं।]
अब्बास – वह मारा। सफवान का सीना टूट गया, जमीन पर तड़पने लगा।
हबीब – सफ़वान के तीनों भाई दौड़े चले आते हैं।
अब्बास – वाह मेरे शेर! एक तलवार से लिया, दूसरा भी गिरा, और तीसरा भागा जाता
हबीब – या खुदा, खैर कर, हुर का घोड़ा गिर गया।
हुसैन – फौरन् एक घोड़ा भेजो।
[एक आदमी हुर के पास घोड़ा लेकर जाता है।]
अब्बास – यह पीरा नासाली और यह दिलेरी! ऐसा बहादुर आज तक नजर से नहीं गुजरा। तलवार बिजली की तरह कौंध रही है।
हसैन – देखो, दुश्मन का लश्कर कैसा पीछे हटा जाता है। मरनेवालों के सामने खड़ा होना आसान नहीं है। दिलेरी को इंतहा है।
अब्बास – अफ़सोस, अब हाथ नहीं उठते। तीरों से सारा बदन चलनी हो गया।
शिमर – तीरों की बारिश करो, मार लो। हैफ़ है तुम पर कि एक आदमी से इतने खायाफ़ हो। वह गिरा, काट लो सिर और हुसैन की फ़ौज में फेंक दो।
[कई आदमी हुर के सिर को काटने को चलते हैं, कि हुसैन मैदान की तरफ दौड़ते हैं।]
एक – वह हुसैन दौड़े चले आते हैं। भागों, नहीं तो जान न बचेगी।
हुसैन – हुर की लाश से लिपटकर
टुकड़े हैं बदन, जख्म बहुत खाए हैं भाई,
हो होश में आ लाश पै हम आए हैं भाई।
[हुर आंखें खोलकर देखते हैं, और अपना सिर उनकी गोद में रख देते हैं।]
हुर – या हजरत, आपके कदमों पर निसार हो गया, जिंदगी ठिकाने लगी।
तकिया तेरे जानू का मयस्सर हुआ आका,
जर्रा था यह सब महरे-मुनौवर हुआ आका।
हुसैन – हाय! मेरा जांबाज रफीक दुनिया से रुखसत हो गया। यह वह दिलावर था, जिसने हक पर अपने रुतबा और दौलत को निसार कर दिया, जिसने दीन के लिये दुनिया को लात मार दी। ये हक पर जान देने वाले हैं, जिन्होंने इस्लाम के नाम को रोशन किया है, और हमेशा रोशन रखेंगे। जा मुहम्मद के प्यारे, जन्नत तेरे लिए हाथ फैलाये हुए है। जा, और हयात अब्दी के लुत्फ उठा। मेरे नाना से यह दीजियो कि हुसैन भी जल्द ही तुम्हारी खिदमत में हाजिर होने वाला हैं, और तुम्हारे कुन्बे को साथ लिए हुए। काबिल ताजीम हैं वे माताएं, जो ऐसे बेटे पैदा करती हैं!
दूसरा दृश्य: [समर-भूमि। साद की तरफ से दो पहलवान आते हैं – यसार और सालिम।]
यसार – (ललकारकर) कौन निकलता है, हुर का साथ देने के लिये। चला जाए, जिसे मौत का मजा चखना हो। हम वह हैं, जिनकी तलवार से क़ज़ा की रूह भी क़जा होती है।
[अब्दुल्लाह कलवी हुसैन के लश्कर से निकलते हैं।]
यसार – तू कौन है?
अब्दुल्लाह – मैं अब्दुल्लाह बिन अमीर कलवी हूं, जिसकी तलवार हमेशा बेदीनों के खून की प्यासी रहती है।
यसार – तेरे मुकाबले में तलवार उठाते हमें शर्म आती है। जाकर हबीब या जहीर को भेज।
अब्दुल्लाह – तू उन सरदार के-फौज से क्या लड़ेगा, जिनकी जिंदगी जियाद की गुलामी में गुजरी। तुझे उन रईसों को ललकारते हुए शर्म भी नहीं आती। तुझ जैसों के लिये मैं ही काफी हूं।
[यसार तलवार लेकर झपटता है। अब्दुल्लाह एक ही वार में उसका काम तमाम कर देते हैं। तब सालिम उन पर टूट पड़ता है। अब्दुल्लाह की पांचों उंगलियां कट जाती हैं, तलवार जमीन पर गिर पड़ती है वह बाएं हाथ में नेजा ले लेते हैं, और सालिम के सोने में नेजा चुभा देते हैं। वह भी गिर पड़ता है। जियाद की फौज से निकलकर लोग अब्दुल्लाह को घेर लेते हैं। इधर से कमर लकड़ी लेकर दौड़ती है।]
कमर – मेरी जान तुम पर फ़िदा हो, रसूल के नवासे के लिये लड़ते-लड़ते जान दे दो। मैं भी तुम्हारी मदद को आई।
अब्बदुल्लाह – नहीं-नहीं, कमर मेरे लिये तुम्हारी दुआ काफी है; इधर मत आओ।
कमर – मैं इन शैतानों को लकड़ी से मारकर गिरा दूंगी। एक के लिये दो भेजे, जब दोनों जहन्नुम पहुंच गए, जो सारी फौज़ निकल पड़ी। यह कौन-सी जंग है?
अब्बदुल्लाह – मैं एक ही हाथ से इन सबको मार गिराऊंगा। तुम खेमे में जाकर बैठो।
कमर – मैं जब तक जिंदा हूं, तुम्हारा साथ छोडूंगी। तुम्हारे साथ ही रसूल पाक की खिदमत में हाजिर हूंगी।
हुसैन – (कमर से) ऐ नेक खातून, तुझ पर अल्लाह ताला रहम करे। तुम वहां जाओगी, तो यहां मस्तूरात की खबर कौन लेगा? औरतों को जिहाद करना मना है। लौट आओ, और देखो, तुम्हारा जांबाज शौहर एक हाथ से कितने आदमियों का मुकाबला कर रहा है। आफ़रीं है तुम पर, मेरे शेर। तुमने अपने रसूल की जो खिदमत की है, उसे हम कभी न भूलेंगे। खुदा तुम्हें उसकी सजा देगा। आह! जालिमों ने तीर मारकर गरीब को गिरा दिया! खुदा उसे जन्नत दे। ।
कमर – या हज़रत इसका गम नहीं। वह आप पर निसार हो गए, इससे बेहतर और कौन-सी मौत हो सकती थी। काश मैं भी उनके साथ चली जाती। मेरे जांबाज! सच्चे दिलावर जा, और जन्नत में आराम कर। तू वह था जिसने कभी सायल को नहीं फेरा, जिसकी नीयत कभी खराब और निगाह कभी बुरी नहीं हुई। जा, और जन्नत में आराम कर।
हुसैन – कमर सब्र करो कि इसके सिवा कोई चारा नहीं है।
कमर – मुझे उनके मरने का गम नहीं है। मैं खुश हूं कि उन्होंने हक़ पर जान दी। इस वक्त अगर मेरे सौ बेटे होते, तो मैं इसी तरह उन्हें भी आपके कदमों पर निसार कर देती। काश वहब इतना जनपरस्त न होता…।
[वहब का प्रवेश]
वहब – अस्सलामअलेक या हज़रत हुसैन।
कमर – (वहब को गले लगाकर) जरा देर पहले ही क्यों न आ गए बेटा कि अपने बाप का आखिरी दीदार कर लेते। नसीमा कहां है?
वहब – यहीं खेमों के पीछे खड़ी है?
कमर – मैं अभी तुम्हारा ही जिक्र कर रही थी। क्यों बेटा, अपने बाप का नाम रोशन न करोगे? मेरा तुम्हारे ऊपर बड़ा हक़ है। तुम मेरे जिगर का खून पीकर पले हो। मेरा दूध हलाल न करोगे! मेरी तमन्ना है कि हुसैन पर अपनी जान निसार करो, ताकि दुनिया में कमर का नाम क़मर की तरह चमके, जिसका शौहर और बेटा, दोनों की हक़ पर शहीद हुए।
वहब – अम्माजान, मेरी भी दिली तमन्ना यह थी और है। मैं अपने बाप के नाम को दाग नहीं लगाना चाहता, मगर नसीमा को क्या करूं? उसकी मुसीबतों का ख़याल हिम्मत को पस्त कर देता है। जाता हूं, अगर उसने इजाजत दे दी, तो मेरे लिये उससे बढ़कर खुशी नहीं हो सकती।
कमर – बेटा, तुम उसकी आदत से वाकिफ होकर फिर उसी से पूछने जाते हो। इसके मानी इसके सिवा और कुछ नहीं है कि तुम खुद मैदान में जाते हुए डरते हो।
[वहब नसीमा के पास जाता है।]
नसीमा – काश जरा देर कब्ल आ जाते, तो अब्बाजान की आखिरी दुआएं मिल जाती।
वहब – हमारी बदनसीबी
नसीमा – मैं जानती हूं, तुम हमेशा के लिये खैरबाद कहने आए हो। जाओ प्यारे, और एक सपूत बेटे की तरह अपने वालिद का नाम रोशन करो। काश औरतों पर जिहाद हराम न होता, तो मैं भी तुम्हारे ही साथ अपने को हक़ की हिमायत में निसार कर देती। जब से मैंने फ़र्जदें-रसूल की पाक सूरत देखी है, मुझे ऐसा मालूम हो रहा है कि मेरा दिल रोशन हो गया है, और उस रोशनी में जिंदगी की तमन्नाएं और ख्वाहिशें नज़र से मिटती जाती हैं। जाओ प्यारे, जाओ, और हक पर कुर्बान हो जाओ। नसीमा जब तक जिएगी, तुम्हारी मज़ार पर फ़ातिहा और दरूद पढ़ेगी। जाओ, जन्नत में मुझे भूल न जाना। मैंने हवस के दाम में फंसकर तुम्हें फ़र्ज के रास्ते से हटा दिया था। रसूल पाक से कहना, मेरा गुनाह मुआफ करें। जाओ, इन आंसुओं का खयाल न करो, वरना ये आंसू तुम्हारे जोश को बुझा देंगे। मैं अभी बहुत दिन तक रोऊंगी, तुम इसका गम न करना। जाओ, तुम्हें खुदा को सौंपा – आह! दिल फटा जाता है। कैसे सब्र करूं?
[वहब आंसू पोंछता हुआ बाहर जाता है।]
कमर – (अंदर आकर) बेटी, तुझे गले से लगा लूं, और तुझ पर अपनी जान फ़िदा, तूने खानदान की आबरू रख ली।
नसीमा – अम्माजान, रसूल पाक ने अगर कोई बेइंसाफी की, तो वह यही है कि औरतों पर जियाद हराम कर दिया, वरना इस वक्त मैं वहब के पहलू में होती। देखिए, दुश्मन उन पर चारों तरफ से कितनी बेदर्दी से नेजे और तीर फेंक रहे हैं। किसी की हिम्मत नहीं है कि उनके सामने खम ठोककर आए। आह! देखिए, उनके हाथ कितनी तेजी से चल रहे हैं। जिस पर उनका एक हाथ पड़ जाता है, वह फिर नहीं उठता, दुश्मन भागे जाते हैं। हा बुजदिलो, नामर्दो! वह इधर चले आ रहे हैं, बदन खून से तर हैं, जिस पर भी जख्म लगे हैं।
[वहब आकर खेमे के सामने खड़ा हो जाता है।]
वहब – अम्माजान, मुझसे राजी हुई?
कमर – बेटा, तुझ पर हजार जान से निसार हूं। तुमने बाप का नाम रोशन कर दिया, लेकिन मैं चाहती हूं कि जब तक तेरे हाथों में ताकत है, तब तक दुश्मनों को आराम न लेने दे।
वहब – (स्वगत) आह! हक़ पर जान देना भी उतना आसान नहीं है, जितना लोग खयाल करते हैं। (प्रगट) अम्मा, यही मेरा भी इरादा है, लेकिन नसीमा के आसुओं की याद मुझे खींच लाई है।
[कमर चली जाती है।]
नसीमा, तुम्हें आखिरी बार देखने की तमन्ना मैदान से खींच लाई। सनम का पुजारी सनम ही पर कुर्बान हो सकता है, दीन और ईमान, हक़ और इंसाफ, ये सब उसकी नजरों में खिलौने की तरह लगते हैं। मुहब्बत दुनिया की सबसे मजबूत बेड़ी है, सबसे सख्त जंजीर। (चौंककर) कोई पहलवान मैदान में आकर ललकार रहा है। हाय! लानत हो उन पर, जो हक़ को पामाल करके हजारों को नामुराद मरने पर मजबूर करते हैं। नसीमा, हमेशा के लिये रूखसत? मेरी तरफ एक बार मुहब्बत की निगाहों से देख लो, उनमें मुहब्बत का ऐसा जाम हो कि उसका नशा मेरे सिर से क़यामत तक न उतरे।
नसीमा – मेरी जान आह! दिल निकला जाता है…।
[वहब मैदान की तरफ चला जाता हैं।]
खुदा! काश मुझे मौत आ जाती कि वह दिलखराश नज़ारा आंखों से न देख पड़ता। मेरा जवान दिलेर जांबाज शौहर मौत के मुंह में जा रहा है, और मैं बैठी देख रही हूं। जमीन, तू क्यों नहीं फट जाती कि मैं उसमें समा जाऊं, बिजली आसमान से गिरकर क्यों मेरा खातमा नहीं कर देती! वह देव उन पर तलवार लिए झपटा, या खुदा, मुझ नामुराद पर रहम कर। दूर हो जालिम, सीधा जहन्नुम को चला जा। अब कोई आगे नहीं आता है। हाय! जालिमों ने घेर लिया। खुदा, तू यह बेइंसाफी देख रहा है, और इन मूजियों पर अपना कहर नहीं नाजिल करता। एक के लिये एक फ़ौज भेज देना कौन-सा आईने-जंग है। हाय! खुदा गजब हो गया। अब नहीं देखा जाता।
[छाती पीटकर रोने लगती है, शिमर वहब का सिर काट कर फेंक देता है, कमर दौड़कर सिर को गोद में उठा लेती है, और उसे आंखों से लगाती हैं।]
कमर – मेरे सपूत बेटे, मुबारक है यह घड़ी कि मैं तुझे अपनी आंखों से हक़ पर शहीद होते देख रही हूं। आज तू मेरे कर्ज से अदा हो गया, आज मेरी मुराद पूरी हो गई, आज मेरी जिंदगी सफल हो गई, मैं अपनी सारी तकलीफ़ का सिला पा गई। खुदा तुझे शहीदों के पहलू में जगह दे। नसीमा, मेरी जान, आज तूने सच्चा सोहाग पाया है, जो कयामत तक तुझे सुहागिन बनाए रखेगा। अब हूरें तरे तलुओं-तले आंखें बिछांएगी, और फरिश्ते तेरे क़दमों की खाक का सुरमा बनाएंगे।
[वहब का सिर नसीमा की गोद में रख देती है, नसीमा सिर को गोद में रखे हुए बैठ करके रोती है।]
काजल बना-बनाके तेरी खाके – दर को मैं
रोशन करूंगी अपनी सवादे-नजर को मैं।
आंसू भी खश्क हो गए, अल्लाह रे सोज़े-गम,
क्योंकर बुझाऊँ आतिशे-दागे जिगर को मैं।
तेरे सिवा है कौन, जो बेकस की ले खबर,
आती न तेरे दर पर, तो जाती किधर को मैं।
तलवार कह रही है जवानी-क़ौम से –
मुद्दत से ढूंढती हूं तुम्हारी कमर को मैं।
बाज आई मैं दुआ ही से, या रब कि कब तलक
करती फिरूं तलाश जहां में असर को मैं।
गर-तेरी खाके दर से न मिलता यह इफ्तखार,
करती न यों बुलंद कभी अपने सिर को मैं।
हाय प्यारे! तुम कितने बेवफ़ा हो, मुझे अकेले छोड़कर चले जाते हो! लो, मैं भी आती हूं। इतनी जल्दी नहीं, जरा ठहरो।
[साहसराय का प्रवेश]
साहसराय – सती, तुम्हें नमस्कार करता हूं।
नसीमा – साहब, आप खूब आए। आपका शुक्रिया तहेदिल से शुक्रिया आपने ही मुझे आज इस दर्जे पर पहुंचाया। आपके वतन में औरतें अपने शौहरों के बाद जिंदा नहीं रहती। वे बड़ी खुशनसीब होती हैं।
साहस० – सती, हम लोगों को आशीर्वाद दो।
नसीमा – (हंसकर) यह दरजा! अल्लाह रे मैं, यह वहब की बदौलत, उसकी शहादत के तुफ़ैल, खुदा, तुमसे मेरी दुआ है, मेरी क़ौम में कभी शहीदों की कमी न रहे, कभी वह दिन न आए कि हक़ को जांबाजों की जरूरत हो, और उस पर सिर कटाने वाले न मिले। इस्लाम, मेरा प्यारा इस्लाम शहीदों से सदा मालामाल रहे!
[अपने दामन से एक सलाई निकालकर वहब के खून में डुबाती।]
क्यों, साहसराय, तुम्हारे यहां सती के जिस्म से आग निकलती है, और वह उसमें जल जाती है। क्या बिला आग के जान नहीं निकालती?
साहस० – नसीमा, तू देवी है। ऐसी देवियों के दर्शन दुर्लभ होते हैं। आकाश से देवता तुझ पर पुष्प वर्षा कर रहे हैं।
[नसीमा आंखों में सलाई फेर लेती है, और एक आह के साथ उसकी जान निकल जाती हैं।]