मां अब बूढ़ी हो चली है—गृहलक्ष्मी की कविता
Hindi Poem: मां अब बूढी हो चली है!
एक रोज मैंने मां को गौर से देखा,
उसके रेशमी बालों से झांक रही थी चांदी की रेखा!
मैं एक पल को डर गई, सहम गई, अरे!यह क्या मेरी मां बूढी हो चली है!
मैंने पास जाकर उसका हाथ थामा,
तो अकस्मात ही दिख गई मुझे उसके चेहरे की झुर्रियां,
मैं अंदर तक दहल गई!
मैंने जोर से उसका हाथ पकड़ कर उसके आंचल में अपना सिर रख दिया!
मां ने प्यार से कहा तू तो "मेरी जूही की कली है!"
अकस्मात ही मुंह से निकल पड़ा "मां तू बूढी हो चली है!"
सुनते ही वह खिलखिला उठी पगली यह तो सभी को होना है!
मैंने कहा मां पर मुझे तुझे नहीं खोना है!
तूने मुझे भले ही ब्याह कर कर दिया दूर, पर मैं तो तेरी गोदी से उतर ही नहीं पाई!
रह लेते होंगे लोग अपनों के बिना,
पर मैं तो तेरे बिना जीना सीख ही नहीं पाई!
तेरी आवाज में जाने कैसा जादू है मां,
मीलो दूर होकर भी तू मेरे सबसे करीब है!
सच में जिसके पास मां नहीं वह कितना गरीब है!
मां तुझसे ही मायका, तुझसे ही खाने में जायका,
तुझसे होकर ही गुजरती मेरी बचपन की गली है!
सच में "मां तू बूढी हो चली है"
सच में "मां तू बूढी हो चली है!"
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