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मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 10

08:00 PM Mar 02, 2024 IST | Guddu KUmar
मनोरमा   मुंशी प्रेमचंद भाग   10
manorama - munshee premachand
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आगरे के हिन्दुओं और मुसलमानों में आये दिन जूतियां चलती रहती थी। जरा-जरा-सी बात पर दोनों दलों के सिर फिर जमा हो जाते और दो-चार के अंग-भंग हो जाते। कहीं बनिये की डण्डी मार दी और मुसलमानों ने उसकी दुकान पर धावा कर दिया, कहीं किसी जुलाहे ने किसी हिन्दू का घड़ा छू लिया और मुहल्ले में फौजदारी हो गयी। निज के रगड़े-झगड़े साम्प्रदायिक संग्राम के क्षेत्र में खींच लाये जाते थे। दोनों ही दल मजहब के नशे में चूर थे।

मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1

होली के दिन थे। गलियों में गुलाल के छींटे उड़ रहे थे। इतने जोश से कभी होली न मनायी गई थी। संयोग से एक मियां साहब मुर्गी हाथ में लटकाये कही से चले जा रहे थे। उनके कपड़े पर दो-चार छींटे पड़ गये। बस, गजब ही तो हो गया। सीधे जामे मस्जिद पहुंचे और मीनार पर चढ़कर बांग दी-ये उम्मते रसूल! आज एक काफिर के हाथों से मेरे दीन का खून हुआ है। उसके छींटे मेरे कपड़ों पर पड़े हुए। या तो काफिरों से इस खून का बदला लो, या मैं मीनार से गिरकर नवी की खिदमत में फरियाद सुनाने जाऊं। बोलो मंजूर है?

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मुसलमानों ने यह ललकार सुनी और उनकी त्योरियां बदल गयीं। शाम होते दस हजार आदमी, तलवारें लिए जामे मस्जिद के सामने आकर जमा हो गये।

सारे शहर में तहलका मच गया। हिन्दुओं के होश उड़ गये। होली का नशा हिरन हो गया। पिचकारियां छोड़-छोड़ लोगों ने लाठियां संभालीं; लेकिन यहां कोई जामे मस्जिद न थी, न वह ललकार, न वह दीन का जोश। सबको अपनी-अपनी पड़ी हुई थी।

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बाबू यशोदानन्दन कभी इस अफसर के पास जाते, कभी उस अफसर के। लखनऊ तार भेजे, दिल्ली तार भेजे, मुस्लिम नेताओं के नाम तार भेजे, लेकिन कोई फल न निकला। और अन्त में जब यह निराश होकर उठे तो मुस्लिम वीर धावा बोल चुके थे। वे ‘ अली'! ‘ अली! ’ का शोर मचाते चले जाते थे कि बाबू साहब नजर आ गये। फिर क्या था। सैकड़ों आदमी, ‘ मारो! ’ कहते हुए लपके। बाबू साहब ने पिस्तौल निकाली और शत्रुओं के सामने खड़े हो गये सवाल-जबाब कौन करता। उन पर चारों तरफ से बार होने लगे।

पिस्तौल चलाने की नौबत भी न आयी, यही सोचते खड़े रह गये कि समझाने से ये लोग शांत हो जाये, तो क्यों किसी की जान लूं। अहिंसा के आदर्श ने हिंसा का हथियार हाथ में होने पर भी उनका दामन न छोड़ा।

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बाबू यशोदानन्दन के मरने की खबर पाते ही सेवा-दल के युवकों का खून खौल उठा। दो-तीन युवक तलवारें लेकर निकल पड़े और मुसलमान मुहल्ले में घुसे। हिन्दू मुहल्लों में जो कुछ मुसलमान कर रहे थे, मुसलमान मुहल्लों में वही हिन्दू करने लगे। अहिंसा ने हिंसा के आगे सिर झुका दिया।

सहसा खबर उड़ी कि यशोदानन्दन के घर में आग लगा दी गयी है और दूसरे घरों में भी आग लगायी जा रही है। सेवा-दल वालों के कान खड़े हुए। दो-ढाई हजार आदमियों का दल डबल मार्च करता हुआ उस स्थान को चला, जहां यह बड़वानल दहक रहा था। यहां किसी मुसलमान का पता नहीं था, आग लगी थी; लेकिन बाहर की ओर। अन्दर जाकर देखा तो घर खाली पड़ा हुआ था वागीश्वरी एक कोठरी में द्वार बन्द किये बैठी थी। इन्हें देखते ही वह रोती बाहर निकल आयी और बोली-हाय! मेरी अहल्या! अरे दौड़ो, उसे ढूंढ़ो, पापियों ने न-जाने उसकी क्या दुर्गति की! हाय! मेरी बच्ची!

एक युवक ने पूछा-क्या अहल्या को उठा ले गये?

बागीश्वरी-हां भैया! उठा ले गये। मना कर रही थी कि एरी बाहर मत निकल; अगर मरेंगे तो साथ ही मरेंगे, लेकिन न मानी। जाकर ख्वाजा महमूद से कहो, उसका पता लगायें। कहना, तुम्हें लाज नहीं आती? जिस लड़की को बेटी बनाकर मेरी गोद में सौंपा था, जिसके विवाह में पांच हजार खर्च करने वाले थे, उसकी उन्हीं के पिछलगुओं के हाथों वह दुर्गति! हाय भगवान!

लोग ख्वाजा साहब के पास पहुंचे, तो देखते हैं कि मुंर्श यशोदानन्दन की लाश रखी हुई और ख्वाजा साहब बैठे रो रहे हैं। इन लोगों को देखते ही बोले -तुम लोग समझते होगे, यह मेरा दुश्मन था। खुदा जानता है, मुझे अपना भाई और बेटा भी इससे ज्यादा अजीज नहीं। फिर भी हम दोनों की जिंदगी के आखिरी साल मैदानबाजी में गुजरे। आज उसका यह अंजाम हुआ। हम दोनों दिल से मेल करना चाहते थे; पर हमारी मरजी के खिलाफ कोई गैबी ताकत हमको लड़ाती थी। आप लोग नहीं जानते हो, मेरी इससे कितनी गहरी दोस्ती थी। कौन जानता था, उस दोस्ती का यह अंजाम होगा।

एक युवक-हम लोग लाश को क्रिया-कर्म के लिए ले जाना चाहते हैं।

ख्वाजा-ले जाओ भाई, मैं भी साथ चलूंगा। मेरे कन्धा देने में कोई हरज है! इतनी रिआयत तो मेरे साथ करनी पड़ेगी। मैं पहले मरता, तो यशोदा सिर पर खाक उड़ाता हुआ मेरी मजार तक जरूर जाता।

युवक-अहल्या को भी उठा ले गये। माताजी ने आपसे…

ख्वाजा-क्या अहल्या! मेरी अहल्या को! कब?

युवक-आज ही। घर में आग लगाने से पहले।।

ख्वाजा-कलामे मजीद की कसम, जब तक अहल्या का पता न लगा लूंगा, मुझे दाना-पानी हराम है। तुम लोग लाश ले जाओ; मैं अभी आता हूं। सारे शहर की खाक छान डालूंगा। भाभी से मेरी तरफ से अर्ज कर देना मुझसे मलाल न रखें। यशोदा नहीं है; लेकिन महमूद है। जब तक उसके दम में दम है, उन्हें कोई तकलीफ न होगी। कह देना, महमूद यों तो अहल्या को खोज निकालेगा या मुंह में कालिख लगाकर डूब मरेगा।

यह कहकर ख्वाजा साहब उठ खड़े हुए, लकड़ी उठायी और बाहर निकल गये।

चक्रधर को आगरे के उपद्रव, बाबू यशोदानन्दन की हत्या और अहल्या के अपहरण का शोक-समाचार मिला, तो उन्होंने व्यग्रता में आकर पिता को वह पत्र सुना दिया और बोले-मेरा वहां जाना बहुत जरूरी है।

वज्रधर-जाकर करोगे ही क्या? जो कुछ होना था, हो चुका; अब जाना व्यर्थ है।

चक्रधर-कम-से-कम अहल्या का पता तो लगाना ही होगा।

वज्रधर-यह भी व्यर्थ है। पहले तो उसका पता लगना ही मुश्किल है, और लग भी गया, तो तुम्हारा अब उससे क्या सम्बन्ध। अब वह मुसलमानों के साथ रह चुकी, तो कौन हिन्दू उसे पूछेगा?

चक्रधर-इसीलिए तो मेरा जाना और भी जरूरी है।

वजधर-ऐसी बहू के लिए हमारे घर में स्थान नहीं है।

चक्रधर ने निश्चयात्मक भाव से कहा-वह आपके घर में न आयेगी।

वज्रधर ने भी उतने ही निर्दय शब्द से उत्तर दिया-अगर तुम्हारा खयाल हो कि पुत्र-स्नेह के वश होकर मैं उसे अंगीकार कर लूगा, तो तुम्हारी भूल है। अहल्या कुल-देवी नहीं हो सकती, चाहे इसके लिए मुझे पुत्र-वियोग ही सहना पड़े।

चक्रधर पीछे घूमे ही थे कि निर्मला ने उसका हाथ पकड़ लिया और स्नेह पूर्ण तिरस्कार करती हुई बोली-बच्चा, तुमसे ऐसी आशा न थी। अब भी हमारा कहना मानो, हमले कुल के मुंह में कालिख न लगाओ।

चक्रधर ने हाथ छुड़ाकर कहा-मैंने आपकी आज्ञा कभी भंग नहीं की लेकिन इस विषय में मजबूर हूं।

वज्रधर-यह तुम्हारा अन्तिम निश्चय है?

चक्रधर-जी हां, अन्तिम!

यह कहते हुए चक्रधर बाहर निकल आये और कुछ कपड़े साथ लेकर स्टेशन की ओर चल दिये।

चक्रधर आगरे पहुंचे तो सवेरा हो गया था। एक क्षण तक वह खड़े सोचते रहे, कहां जाऊं? बाबू यशोदानन्दन के घर जाना व्यर्थ था। अन्त को उन्होंने ख्वाजा महमूद के घर चलना निश्चय किया।

ख्वाजा साहब के द्वार पर पहुंचे, तो देखा कि हजारों आदमी एक लाश को घेरे खड़े हैं और उसे कब्रिस्तान ले चलने की तैयारी हो रही है। चक्रधर तुरंत तांगे से उतर पड़े और लाश के पास जाकर खड़े हो गये। कहीं ख्वाजा साहब तो नहीं कत्ल कर दिये गए। बह किसी से पूछने ही जाते थे कि सहसा ख्वाजा साहब ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आंखों में आंसू भरकर बोले-खूब आये बेटा, तुम्हें आंखें ढूंढ़ रही थीं, जानते हो वह किसकी लाश है? यह मेरा इकलौता बेटा है, जिस पर जिन्दगी की सारी उम्मीदें कायम थीं। लेकिन खुदा जानता है, उसकी मौत पर मेरी आंखों से एक बूंद आंसू भी न निकला। उसने वह खेल किया, जो इन्सानियत के दरजे से गिरा हुआ था। तुम्हें अहल्या के बारे में तो खबर मिली होगी?

चक्रधर-जी हां, शायद बदमाश लोग पकड़ ले गये।

ख्वाजा-वह यही बदमाश है, जिसकी लाश तुम्हारे सामने पड़ी हुई है। वह इसी की हरकत थी। मैं तो सारे शहर में अहल्या को तलाश करता फिरता था; और वह मेरे ही घर में कैद थी। यह जालिम उस पर जब्र करना चाहता था। आज उसने मौका पाकर इसे जहन्नुम का रास्ता दिखा दिया-छुरी सीने में भोंक दी।

चक्रधर-मुझे यह सुनकर बहुत अफसोस हुआ। मुझे आपके साथ कामिल हमदर्दी है, आपका-सा इंसाफ-परवर, हकपरस्त आदमी इस वक्त दुनिया में न होगा। अहल्या अब कहां है?

ख्वाजा-इसी घर में। सुबह से कई बार कह चुका हूं कि चल तुझे तेरे घर पहुंचा आऊं, पर जाती ही नहीं। बस बैठी रो रही है।

लाश उठायी गयी। शोक समाज पीछे-पीछे चला। चक्रधर भी ख्वाजा साहब के साथ कब्रिस्तान तक गये। जिस वक्त लाश कब्र में उतारी गयी, ख्वाजा साहब रो पड़े। यह क्षमा के आंसू थे। चक्रधर भी आंसुओं को न रोक सके?

दोपहर होते-होते लोग घर लौटे। ख्वाजा साहब जरा दम लेकर बोले-आओ बेटा, तुम्हें अहल्या के पास ले चलूं।

यह कहकर ख्वाजा साहब ने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और अन्दर चले। चक्रधर का हृदय बांसों उछल रहा था। अहल्या के दर्शनों के लिए वह इतने उत्सुक कभी न थे। वह एक खिड़की के सामने खड़ी बगीचे की ओर ताक रही थी। सहसा चक्रधर को देखकर वह चौंक पड़ी और घूंघट में मुंह छिपा लिया। फिर एक ही क्षण के बाद वह उनके पैरों को पकड़कर अश्रुधारों से धोने लगी।

चक्रधर बोले-अहल्या! मुझे तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाना चाहिए, तुम बिलकुल उलटी बात कर रही हो।

यह कहकर उन्होंने अहल्या का हाथ पकड़ लिया लेकिन वह हाथ छुड़ा कर हट गयी और कांपते हुए स्वर में बोली-नहीं-नहीं, मेरे अंग को मत स्पर्श कीजिए। सूंघा हुआ फूल देवताओं पर नहीं चढ़ाया जाता आपकी सेवा करना मेरे भाग्य में न था, मैं जन्म ही से अभागिनी हूं, आप जाकर अम्मा को समझा दीजिये। मेरे लिए अब दुःख न करें। मैं निर्दोष हूं लेकिन इस योग्य नहीं कि आपकी प्रेमपात्री बन सकूं।

चक्रधर से अब न रहा गया। उन्होंने फिर अहल्या का हाथ पकड़ लिया और बोले-अहल्या, जिस देह में पवित्र और निष्कलंक आत्मा रहती है, वह देह भी पवित्र और निष्कलंक रहती है। मेरी आंखों में तुम आज उससे कहीं निर्मल और पवित्र हो, जितनी पहले थीं।

अहल्या कई मिनट तक चक्रधर के कंधे पर सिर रखे रोती रही। फिर बोली-तुम केवल दया-भाव से और मेरा उद्धार करने के लिए यह कालिमा सिर चढ़ा रहे हो; या प्रेम-भाव से?

चक्रधर का दिल बैठ गया। अहल्या की सरलता पर उन्हें दया आ गयी। यह अपने को ऐसी अभागिनी और दीन समझ रही है कि इसे विश्वास ही नहीं आता, मैं इससे शुद्ध प्रेम कर रहा हूं। बोले-तुम्हें क्या जान पड़ता है, अहल्या?

अहल्या-तुम्हारे मन में प्रेम से अधिक दया का भाव है।

चक्रधर-अहल्या, तुम मुझ पर अन्याय कर रही हो।

अहल्या-जिस वस्तु को लेने की सामर्थ्य ही मुझमें नहीं है, उस पर हाथ न बढ़ाऊंगी। मेरे लिए यही बहुत है, जो आप दे रहे हैं; मैं इसे भी अपना धन्य भाग समझती हूं।

फिर सहसा अहल्या ने कहा-मुझे भय है कि मुझे आश्रय देकर आप बदनाम हो जाएंगे। कदाचित आपके माता-पिता आपका तिरस्कार करें। मेरे लिए इससे बड़ी सौभाग्य की बात नहीं हो सकती कि आपकी दासी बनूं लेकिन आपके तिरस्कार और अपमान का खयाल करके जी में यही आता है कि क्यों न इस जीवन का अन्त कर दूं।

चक्रधर की आंखें करुणार्द्र हो गयीं। बोले-अहल्या, ऐसी बातें न करो। अपनी आत्मा की अनुमति के सामने मैं माता-पिता के विरोध की परवाह नहीं करता। मैं तुमसे विनती करता हूं कि ये बातें फिर जवान पर न लाना।

अहल्या ने अबकी स्नेह-सजल नेत्रों से चक्रधर को देखा। शंका की दाह जो उसके मर्मस्थल को जलाये डालती थी, इन शीतल आर्द्र शब्दों से शान्त हो गयी। शंका की ज्वाला शान्त होते ही उसकी दाह-चंचल दृष्टि स्थिर हो गयी और चक्रधर की सौम्य मूर्ति, प्रेम की आभा से प्रकाशमान, आंखों के सामने खड़ी दिखायी दी।

बाबू यशोदानन्दन के क्रिया-कर्म के तीसरे ही दिन चक्रधर का अहल्या से विवाह हो गया। चक्रधर तो अभी कुछ दिन टालना चाहते थे; लेकिन वागीश्वरी ने बड़ा आग्रह किया। विवाह में कुछ धूमधाम नहीं हुई।

जिस दिन चक्रधर अहल्या को विदा कराके काशी चले, हजारों आदमी स्टेशन पर पहुंचाने आये। वागीश्वरी का रोते-रोते बुरा हाल था। जब अहल्या आकर पालकी पर बैठी तो वह दुखिया पछाड़ खाकर गिर पड़ी। अहल्या भी रो रही थी; लेकिन शोक से नहीं वियोग में। वागीश्वरी की गर्दन में उसके करपाश इतने सुदृढ़ हो गये कि दूसरी स्त्रियों ने बड़ी मुश्किल से छुड़ाया।

लेकिन चक्रधर के सामने एक दूसरी ही समस्या उपस्थित हो रही थी। वह घर तो जा रहे थे, पर उस घर के द्वार बन्द थे। पिता का क्रोध, माता का तिरस्कार, सम्बन्धियों की अवहेलना, उन सभी शंकाओं से चित्त उद्विग्न हो रहा था। सबसे विकट समस्या यह थी कि गाड़ी के उतरकर जाऊंगा कहां? इन चिन्ताओं से उनकी मुख-मुद्रा इतनी मलिन हो गयी कि अहल्या ने उनसे कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा तो चौंक पड़े। उसकी वियोग व्यथा अब शान्त हो गयी थी और हृदय में उल्लास का प्रवाह होने लगा था; लेकिन पति की उदास मुद्रा देखकर वह घबरा गयी। बोली-आप इतने उदास क्यों हैं? क्या अभी से मेरी फिक्र सवार हो गयी?

चक्रधर ने झेंपते हुए कहा-नहीं तो, उदास क्यों होने लगा? यह उदास होने का समय है, या आनन्द मनाने का?

मगर जितना ही अपनी चिन्ता को छिपाने का प्रयत्न करते थे, उतना ही वह और भी प्रत्यक्ष होती जाती थी, जैसे दरिद्र अपनी साख रखने की चेष्टा में और भी दरिद्र हो जाता है।

अहल्या ने गंभीर भाव से कहा-तुम्हारी इच्छा है, न बताओ; लेकिन यही इसका आशय है कि तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं।

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