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मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 14

08:00 PM Mar 12, 2024 IST | Guddu KUmar
मनोरमा   मुंशी प्रेमचंद भाग   14
Manorma munshi premchand
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किसान-महाराज का। कहीं से आते हो?

चक्रधर-हम महाराज ही के यहाँ से आते है। वह बदमाश साँड़ किसका है, जो इस वक्त सड़क पर घूमा करता है?

मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1

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किसान-यह तो नहीं जानते साहब; पर उसके मारे नाकोंदम है।

चक्रधर ने सांड के आक्रमण का जिक्र करके कहा-तुम लोग मेरे साथ चलकर मोटर को उठा दो।

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इस पर दूसरा किसान अपने द्वार से बोला-सरकार, भला रात को मोटर उठाकर क्या कीजिएगा? वह चलने लायक तो होगी नहीं।

चक्रधर-तो तुम लोगों को उसे ठेलकर ले चलना पड़ेगा।

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पहला किसान-सरकार, रात भर यहीं ठहरें, सवेरे चलेंगे। न चलने लायक होगी, तो गाड़ी पर लादकर पहुंचा देंगे।

चक्रधर ने झल्लाकर कहा-कैसी बातें करते हो जी! मैं रात-भर यहां पड़ा रहूंगा! तुम लोगों को इसी वक्त चलना होगा।

चक्रधर को उन आदमियों में कोई न पहचानता था। समझे, राजाओं के यहां सभी तरह के लोग आते-जाते हैं, होंगे कोई। फिर वे सभी जाति के ठाकुर थे, और ठाकुर से सहायता के नाम से जो काम चाहे ले लो, बेगार के नाम से उनकी त्योरियां बदल जाती हैं। किसान ने कहा-साहब, इस बखत तो हमारा जाना न होगा। अगर बेगार चाहते हो, तो वह उत्तर की ओर दूसरा गांव है, वहां चले जाइए। बहुत चमार मिल जायेंगे।

यह कहकर वह घर में जाने लगा।

चक्रधर को ऐसा क्रोध आया कि उसका हाथ पकड़कर घसीट लूं और ठोकर मारते हुए ले चलूं, मगर उन्होंने जब्त करके कहा-मैं सीधे से कहता हूं तो तुम लोग उड़नघाइयां बताते हो। अभी कोई चपरासी आकर दो घुड़कियां जमा देता, तो सारा गांव भेड़ की भांति उसके पीछे चला जाता।

किसान वहीं खड़ा हो गया और बोला-सिपाही क्यों घुड़कियां जमायेगा, कोई चोर हैं? हमारी खुशी, नहीं जाते। आपको जो करना हो, कर लीजिएगा।

चक्रधर से जब्त न हो सका। छड़ी हाथ में थी ही वह बाज की तरह किसान पर टूट पड़े और एक धक्का देकर कहा-चलता है या जमाऊं दो-चार हाथ? तुम लात के आदमी बात से क्यों मानने लगे!

चक्रधर कसरती आदमी थे। किसान धक्का खाकर गिर पड़ा। यों वह भी करारा आदमी था। उलझ पड़ता, तो चक्रधर आसानी से उसे न गिरा सकते, पर यह रोब में आ गया। सोचा, कोई हाकिम है, नहीं तो उसकी हिम्मत न पड़ती कि हाथ उठाये। सम्हलकर उठने लगा। चक्रधर ने समझा, शायद यह उठकर मुझ पर वार करेगा। लपककर फिर एक धक्का दिया। सहसा सामने वाले घर में से एक आदमी लालटेन लिये बाहर निकल आया और चक्रधर को देखकर बोला-अरे भगतजी! तुमने यह भेष कब से धारण किया? मुझे पहचानते हो, हम भी तुम्हारे साथ जेल में थे।

चक्रधर उसे तुरन्त पहचान गए। यह उनका जेल का साथी धन्नासिंह था। चक्रधर का सारा क्रोध हवा हो गया। लजाते हुए बोले-क्या तुम्हारा घर इसी गांव में है, धन्ना?

धन्नासिंह-हां साहब, यह आदमी, जिसे आप ठोकरें मार रहे हैं, मेरा सगा भाई है। खाना खा रहा था। खाना छोड़कर जब तक उन्हें, तब तक तो गरमा ही गए। तुम्हारा मिजाज इतना कड़ा कब से हो गया? कहां तो दारोगा को बचाने के लिए अपनी छाती पर संगीन रोक ली थी, कहां आज जरा-सी बात पर इतने तेज पड़ गए।

चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। वह अपनी सफाई में एक शब्द भी न बोल सके। उनके जीवन की सारी कमाई, जो उन्होंने न जाने कौन-कौन से कष्ट सहकर बटोरी थी, यहीं लुट गयी।

धन्नासिंह ने अपने भाई का हाथ पकड़कर बैठाना चाहा, तो वह जोर से ‘ हाय! हाय!. करके चिल्ला उठा। दूसरी बार गिरते समय उसका दाहिना हाथ उखड़ गया था। धन्नासिंह ने समझा उसका हाथ टूट गया है। चक्रधर के प्रति उसकी रही-सही भक्ति भी गायब हो गयी। उनकी ओर आरक्त नेत्रों से देखकर बोला-सरकार, आपने तो इसका हाथ ही तोड़ दिया। (ओठ चबाकर) क्या कहें, अपने द्वार पर आए हो और कुछ पुरानी बातों का खयाल है, नहीं तो इस समय क्रोध तो ऐसा आ रहा है कि इसी तरह तुम्हारे हाथ भी तोड़ दूं। अभी जाकर महाराज के द्वार पर फरियाद करें, तो तुम खड़े-खड़े बंध जाओ। बाबू चक्रधर सिंह का नाम तो तुमने सुना ही होगा? अब किसी सरकारी आदमी की मजाल नहीं कि बेगार ले सके, तुम बेचारे किस गिनती में हो? तुम्हारे ही उपदेश में मेरी पुरानी आदत छूट गयी। गाँजा और चरस तभी छोड़ दिया, जुए के बगीचे नहीं जाता। जिस लाठी से सैकड़ों सिर फोड़ डाले होंगे, अब वह टूटी हुई पड़ी है। मुझे तो तुमने यह उपदेश दिया और आप लगे गरीबों को कुचलने। मन्नासिंह ने इतना ही न कहा था कि रात को यही ठहर जाओ, सवेरे हम चलकर तुम्हारी मोटर पहुंचा देंगे। इसमें क्या बुराई थी?

चक्रधर ने ग्लानि-वेदना से व्यथित स्वर में कहा-धन्नासिंह, मैं बहुत लज्जित हूं, मुझे क्षमा करो। जो दण्ड चाहो, दो; सिर झुकाये हुए है जरा भी सिर न हटाऊंगा, एक शब्द भी मुंह से न निकालूंगा।

यह कहते-कहते उनका गला फंस गया। धन्नासिंह भी गदगद हो गया। बोला-अरे भगतजी, ऐसी बातें न कहो। भैया, भाई का नाता बड़ा गहरा होता है। भाई चाहे अपना शत्रु भी हो, लेकिन कौन आदमी है, जो भाई को मार खाते देखकर क्रोध को रोक सके? मुझे अपना वैसा ही दास समझो, जैसे जेल में समझते थे, तुम्हारी मोटर कहां है? चलो, मैं उसे उठाये देता हूं या हुक्म हो तो गाड़ी जोत लूं?

चक्रधर ने रोककर कहा-जब तक इसका हाथ अच्छा न हो जाएगा, तब तक मैं कहीं न जाऊंगा, धन्नासिंह, धन्नासिंह! हां, कोई आदमी ऐसा मिले, जो यहां से जगदीशपुर जा सके, तो उसे मेरी एक चिट्ठी दे दो।

धन्नासिंह-जगदीशपुर में तुम्हारा कौन है, भैया? क्या रियासत में नौकर हो गये हो?

चक्रधर-नौकर नहीं हूं। मैं मुंशी वज्रधर का लड़का हूं।

धन्नासिंह ने विस्मित होकर कहा-सरकार ही बाबू चक्रधरसिंह हैं। धन्य भाग्य थे कि सरकार के आज दरसन हुए।

यह कहते हुए वह दौड़कर घर में गया और एक चारपाई लाकर द्वार पर डाल दी। फिर लपककर गांव में खबर दे आया। एक क्षण में गांव के सब आदमी आकर चक्रधर को नजरें देने लगे। चारों और हलचल-सी मच गयी। सब-के-सब उनके यश गाने लगे। जब से सरकार आये हैं, हमारे दिन फिर गए हैं, आपका शील-स्वभाव जैसा सुनते थे, वैसा ही पाया। आप साक्षात भगवान हैं।

धन्नासिंह ने कहा-मैंने तो पहचाना ही नहीं। क्रोध में ने जाने क्या-क्या बक गया।

दूसरा ठाकुर बोला-सरकार अपने को खोल देते, तो हम मोटर को कन्धों पर लादकर ले चलते।

चक्रधर को इन ठकुरसुहाती बातों में जरा भी आनन्द न आता था। उन्हें उन पर दया आ रही थी। वही प्राणी, जिसे उन्होंने अपने कोप का लक्ष्य बनाया था, उनके शौर्य और शक्ति की प्रशंसा कर रहा था। अपमान को निगल जाना चरित्र-पतन की अन्तिम सीमा है। और यही खुशामद सुनकर हम लट्टू हो जाते हैं। जिस वस्तु से घृणा होनी चाहिए, उस पर हम फूले नहीं समाते। चक्रधर को अब आश्चर्य हो रहा था कि मुझे इतना क्रोध आया कैसे? आज उन्हें अनुभव हुआ कि रियासत की बू कितनी गुप्त और अलक्षित-रूप से उनमें समाती जाती है कितने गुप्त और अलक्षित-रूप से में उनकी मनुष्यता, चरित्र और सिद्धान्त का ह्रास हो रहा है।

चक्रधर को रात-भर नींद न आयी। उन्हें बार-बार पश्चात्ताप होता था कि मैं क्रोध के आवेग में क्यों आ गया। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि उन्होंने एक निर्बल प्राणी पर हाथ उठाया था। जिसका समस्त जीवन दीनजनों की सहायता में गुजरा हो, उसकी यह कायापलट नैतिक पतन से कम न थी।

चक्रधर तो इस विचार में पड़े हुए थे, अहल्या अपने सजे हुए शयनागार में मखमली गद्दों पर लेटी अंगड़ाइयां ले रही थी। जब चक्रधर ने कमरे में कदम रखा तो अहल्या त्योरियां चढ़ाकर बोली-अब तो रात-रात भर आपके दर्शन ही नहीं होते।

चक्रधर-कुछ तुम्हें खबर भी है। आधे घण्टे तक जगाता रहा, जब तुम न जागीं, तो चला गया। यहां आकर तुम सोने में कुशल हो गयीं!

अहल्या-क्या मैं सचमुच बहुत सोती हूं?

चक्रधर-अच्छा, अभी तुम्हें उसमें सन्देह भी है! घड़ी में देखो! आठ बज गये हैं। तुम पाँच बजे उठकर घर का धन्धा करने लगती थीं।

अहल्या-तब की बातें जाने दो। अब उतने सवेरे उठने की जरूरत ही क्या है?

चक्रधर-तो क्या तुम उम्र-भर यहाँ मेहमानी खाओगी?

अहल्या ने विस्मित होकर कहा-इसका क्या मतलब?

चक्रधर-इसका मतलब यही है कि हमें यहां आये हुए बहुत दिन गुजर गये। अब अपने घर चलना चाहिए।

अहल्या-अपना घर कहां है?

चक्रधर-अपना घर वहीं है, जहां अपने हाथों की कमाई है। ससुराल की रोटियां बहुत खा चुका। खाने में तो वह बहुत मीठी मालूम होती हैं, पर उनसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। इतने ही दिनों में हम दोनों कुछ-में-कुछ हो गये। यहां कुछ दिन और रहा, तो कम-से-कम मैं तो कहीं का न रहूंगा। कल मैंने एक गरीब किसान को मारते-मारते अधमुआ कर दिया। उसका कसूर केवल यह था कि यह मेरे साथ आने पर राजी न होता था।

अहल्या-यह कोई बात नहीं, गंवारों के उजड्डपन पर कभी-कभी क्रोध आ ही जाता है। मैं ही यहां दिन-भर लौंडियों पर झल्लाती रहती हूं मगर मुझे तो कभी यह खयाल ही नहीं आया कि घर छोड़कर भाग जाऊं।

चक्रधर-तुम्हारा घर है, तुम रह सकती हो, लेकिन मैंने तो जाने का निश्चय कर लिया।

अहल्या ने अभिमान से सिर उठाकर कहा-तुम न रहोगे, तो मुझे यहां रहकर क्या लेना है। मेरे राज-पाट तो तुम हो, जब तुम्हीं न रहोगे, तो अकेली पड़ी-पड़ी मैं क्या करूंगी। जब चाहे, चलो। हां, पिताजी से पूछ लो। उनके बिना पूछे तो जाना उचित नहीं, मगर एक बात अवश्य कहूंगी। हम लोगों के जाते ही यहां का सारा कारोबार चौपट हो जायेगा। रियासत जेरबार हो जाएगी और एक दिन बेचारे लल्लू को ये सब पापड़ बेलने पड़ेंगे।

चक्रधर समझ गए कि अगर मैं आग्रह करूं, तो यह मेरे साथ जाने पर राजी हो जाएगी। जब ऐश्वर्य और पति-प्रेम दो में से एक को लेने और दूसरे को त्याग करने की समस्या पड़ जाएगी, तो अहल्या किस ओर झुकेगी, इसमें लेशमात्र भी सन्देह नहीं था; लेकिन वह उसे कठोर धर्म संकट में डालना उचित न समझते थे। आग्रह से विवश होकर यह उनके साथ चली ही गयी तो क्या? जब उसे कोई कष्ट होगा; मन-ही-मन झुंझलाएगी और बात-बात पर कुढ़ेगी और लल्लू को यहां छोड़ना ही पड़ेगा। मनोरमा उसे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ सकती। राजा साहब तो शायद उसके वियोग में प्राण त्याग दें। पुत्र को छोड़कर अहल्या कभी जाने पर तैयार न होगी और गयी भी तो बहुत जल्द लौट आएगी।

चक्रधर बड़ी देर तक इन्हीं विचारों में मग्न बैठे रहे। अन्त में उन्होंने बिना किसी से कुछ कहे-सुने चले जाने का संकल्प किया। इसके सिवा गला छुड़ाने का कोई उपाय ही न सूझता था।

चक्रधर ने अपने कमरे में जाकर दो-चार कपड़े और किताबें समेटकर रख दीं। कुछ इतना ही सामान था, जिसे एक आदमी आसानी से हाथ में लटकाए लिये जा सकता था। उन्होंने रात को चुपके से बकुचा उठाकर चले जाने का निश्चय किया।

यात्रा की तैयारी करके और अपने मन को अच्छी तरह समझाकर चक्रधर अपने शयनागार में नींद का बहाना करने लगे। वह चाहते थे कि यह सो जाय, तो मैं चुपके से अपना बकुचा उठाऊं और लम्बा हो जाऊँ, मगर निद्रा विलासिनी अहल्या की आंखों से आज नींद कोसों दूर थी। वह कोई न कोई प्रसंग छेड़कर बातें करती जाती थी। यहां तक की जब आधी रात से अधिक बीत गयी, तो चक्रधर ने कहा-भाई, अब मुझे सोने दो; आज तुम्हारी नींद कहां भाग गयी?

उन्होंने चादर ओढ़ ली और मुंह फेर लिया। गरमी के दिन थे। कमरे में पंखा चल रहा था। फिर भी गरमी मालूम होती थी। रोज किवाड़ खुले रहते थे। जब अहल्या को विश्वास हो गया कि चक्रधर सो गये, तो उसने दरवाजे अन्दर से बन्द कर दिये और बिजली की बत्ती ठण्डी करके सोयी। आज वह न जाने क्यों इतनी सावधान हो गयी थी। पगली। जाने वालों को किसने रोका है।

रात बीत ही चुकी थी। अहल्या को नींद आते देर न लगी। चक्रधर का प्रेमकातर हृदय अहल्या के यों सावधान होने पर एक बार विचलित हो उठा। वह अपने आंसुओं के वेग को न रोक सके। यह सोचकर उनका कलेजा फटा जाता था कि जब प्रातःकाल वह मुझे न पायेगी, तो क्या दशा होगी।

चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। सारा राज-भवन शांति में विलीन हो रहा था। चक्रधर ने उठकर द्वारों को टटोलना शुरू किया; पर ऐसा दिशा भ्रम हो गया था कि द्वार का ज्ञान न हुआ। आखिर उन्होंने दीवालों को टटोल-टटोलकर बिजली का बटन खोज निकाला और बत्ती जला दी। चुपके से बाहर के कमरे में आये, अपना हैंडबैग उठाया और बाहर निकले।

बाहर आकर चक्रधर ने राज-भवन की ओर देखा। असंख्य खिड़कियों और दरीचों से बिजली का दिव्य प्रकाश दिखाई दे रहा था। उन्हें वह दिव्य भवन सहस्र नेत्रों वाले पिशाच की भांति जान पड़ा, जिसने उनका सर्वनाश कर दिया था। वह कदम बढ़ाते हुए आगे चले। वह दिन निकलने से पहले इतनी दूर निकल जाना चाहते थे कि फिर उन्हें कोई पा न सके। दिन निकलने में अब बहुत देर भी न थी। तारों की ज्योति मन्द पड़ चली। चक्रधर ने और तेजी से कदम बढ़ाया।

सहसा उन्हें सड़क के किनारे एक कुएं के पास कई आदमी बैठे दिखाई दिये। उनके बीच में एक लाश रखी हुई थी। कई आदमी लकड़ी के कुन्दे लिये पीछे आ रहे थे। चक्रधर पूछना चाहते थे-कौन मर गया है? धन्नासिंह की आवाज पहचानकर वह सड़क ही पर ठिठक गये। इसने पहचान लिया तो बड़ी मुश्किल होगी।

धन्नासिंह कह रहा था-कजा आ गयी, तो कोई क्या कर सकता है? बाबूजी के हाथ में कोई डण्डा भी तो न था। दो-चार घूंसे मारे होंगे और क्या मगर उस दिन से फिर बेचारा उठा नहीं।

दूसरे आदमी ने कहा-ठांव-कुठांव की बात है। मन्ना को कुठाव चोट लग गयी।

धन्नासिंह-बाबूजी सुनेंगे, तो उन्हें बहुत रंज होगा जेल में हम लोग उन्हें भगतजी कहा करते थे।

एक बूढ़ा आदमी बोला-भैया, जेल की बात दूसरी थी। तब दयावान रहे होंगे। राज पाकर दयावान रहें, तो जानो।

धन्नासिंह-दादा, वह राज पाकर फूल उठाने वाले आदमी नहीं। तुमने देखा, यहां से जाते-ही-जाते माफी दिला दी।

बूढ़ा-अरे पागल, जान का बदला कहीं माफी से चुकता है? तुम बाबूजी को दयावान कहते हो, मैं उन्हें सौ हत्यारों का एक हत्यारा कहता हूं। राजा हैं, इससे बचे जाते हैं; दूसरा होता तो फांसी पर लटकाया जाता।

चक्रधर वहां एक क्षण भी और खड़े न रह सके। उन आदमियों के सामने जाने की हिम्मत न पड़ी।

पांच साल गुजर गये; पर चक्रधर का कुछ पता नहीं। फिर यही गर्मी के दिन हैं, दिन को लू चलती है, रात को अंगारे बरसते हैं, मगर अहल्या को न अब पंखे की जरूरत है, न खस की टट्टियों की। उस वियोगिनी को अब रोने के सिवा दूसरा काम नहीं है। वह अपने को बार-बार धिक्कारती है कि वह चक्रधर के साथ क्यों न चली गयी?

शंखधर उससे पूछता रहता है-अम्मा, बाबूजी कब आयेंगे? वह क्यों चले गये, अम्माजी? रानी अम्मा कहती है, वह आदमी नहीं देवता हैं। क्यों अम्मा जी, क्या वह देवता हैं? फिर तो लोग उनकी पूजा करते होंगे। अहल्या के पास इन प्रश्नों का उत्तर रोने के सिवा और कुछ नहीं है। शंखधर कभी-कभी अकेले बैठकर रोता है! कभी-कभी अकेले सोचा करता है कि पिताजी कैसे आयेंगे।

शंखधर का जी अपने पिता की कीर्ति सुनने से कभी नहीं भरता। वह रोज अपनी दादी के पास जाता है और वहां उनकी गोद में बैठा हुआ घंटों उनकी बातें सुना करता है। निर्मला दिन-भर उसकी राह देखा करती है। उसे देखते ही निहाल हो जाती है। शंखधर ही अब उसके जीवन का आधार है। अहल्या का मुंह भी वह नहीं देखना चाहती।

मुंशीजी को अब रियासत से एक हजार रुपया महीना वजीफा मिलता है। राजा साहब ने उन्हें रियासत के कामों से मुक्त कर दिया है। इसलिए मुंशीजी अब अधिकांश घर पर ही रहते हैं। शराब की मात्रा तो धन के साथ नहीं बड़ी, बल्कि और घट गयी है; लेकिन संगीत-प्रेम बढ़ गया है। उनके लिए सबसे आनन्द का समय वह होता है, जब वह शंखधर को गोद में लिये मुहल्लेभर के बालकों को मिठाइयां और पैसे बांटने लगते हैं। इससे बड़ी खुशी की वह कल्पना ही नहीं कर सकते।

एक दिन शंखधर 9 बजे ही पहुंचा। निर्मला उस समय स्नान करके तुलसी को जल चढ़ा रही थी। जब जल चढ़ाकर आयी तो शंखधर ने पूछा-दादीजी तुम पूजा क्यों करती हो?

निर्मला ने शंखधर को गोद में लेकर कहा-बेटा, भगवान से मनाती हूं कि मेरी मनोकामना पूरी करें।

शंखधर-भगवान सबके मन की बात जानते हैं?

निर्मला-हां बेटा, भगवान सब कुछ जानते हैं।

दूसरे दिन प्रातःकाल शंखधर ने स्नान किया; लेकिन स्नान करके वह जलपान करने न आया। न जाने कहां चला गया। अहल्या इधर-उधर देखने लगी; कहां चला गया। मनोरमा के पास आकर देखा, वहां भी न था। अपने कमरे में भी न था, छत पर भी न था। दोनों रमणियां घबरायीं कि स्नान करके कहां चला गया। लौंडियों से पूछा तो उन सबों ने भी कहा हमने तो उन्हें नहाकर आते देखा। फिर कहां चले गये, यह हमें नहीं मालूम। चारों ओर तलाश होने लगी। दोनों बगीचे की ओर दौड़ी गयी। वहां भी वह न दिखायी दिया। सहसा बगीचे के पल्ले सिरे पर, जहां दिन को भी सन्नाटा रहता था, उसकी झलक दिखाई दी। दोनों चुपके-चुपके वहां गयी और एक पेड़ की आड़ में खड़ी होकर देखने लगी। शंखधर तुलसी के चबूतरे के सामने आसन मारे, आंखें बन्द किये ध्यान-सा लगाये बैठा था। उसके सामने कुछ फूल पड़े हुए थे। एक क्षण के लिए उसने आंखें खोली, कई बार चबूतरे की परिक्रमा और तुलसी की वन्दना करके धीरे से उठा। दोनों महिलाएं आड़ से निकल कर उसके सामने खड़ी हो गयीं। शंखधर उन्हें देखकर कुछ लज्जित हो गया और बिना कुछ बोले आगे बढ़ा।

मनोरमा-वहां क्या करते थे, बेटा?

शंखधर-कुछ तो नहीं। ऐसे ही घूमता था।

मनोरमा-नहीं, कुछ तो कर रहे थे।

शंखधर-जाइए, आपसे क्या मतलब?

अहल्या-तुम्हें न बतायेंगे। मैं इसकी अम्मा हूं, मुझे बता देगा। मेरा लाल मेरी कोई बात नहीं टालता। हां बेटे, बताओ क्या कर रहे थे? मेरे कान में कह दो। मैं किसी से न कहूंगी।

शंखधर ने आंखों में आंसू भरकर कहा-कुछ नहीं, मैं बाबूजी के जल्दी से लौट आने की प्रार्थना कर रहा था। भगवान पूजा करने से सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।

सरल बालक यह की पितृ-भक्ति और श्रद्धा देखकर दोनों महिलाएं रोने लगीं। इस बेचारे को कितना दुःख है। शंखधर ने फिर पूछा-क्यों अम्मा, तुम बाबूजी के पास कोई चिट्ठी क्यों नहीं लिखतीं?

अहल्या ने कहा-कहां लिखूं बेटा, उनका पता भी तो नहीं जानती!

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