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मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 15

08:00 PM Mar 14, 2024 IST | Guddu KUmar
मनोरमा   मुंशी प्रेमचंद भाग   15
Manorma munshi premchand
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इधर कुछ दिनों से लौंगी तीर्थ करने चली गयी थी। गुरुसेवकसिंह ही के कारण उनके मन में यह धर्मोत्साह हुआ था। जबसे वह गयी थी, दीवान साहब दीवाने हो गये थे। यहां तक कि गुरुसेबक को भी कभी-कभी यह मानना पड़ता था कि लौंगी का घर में होना पिताजी की रक्षा के लिए जरूरी है।

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घर में अब कोई नौकर एक सप्ताह से ज्यादा न टिकता था, कितने ही पहली ही फटकार में छोड़कर भागते -थे। शराब की मात्रा भी दिनोंदिन बढ़ती जाती थी, जिससे भय होता था कि कोई भयंकर रोग न खड़ा हो जाय, भोजन वह अब बहुत थोड़ा करते थे लौंगी दिन-भर में दो ढाई सेर दूध उनके पेट में भर दिया करती थी, आध पाव के लगभग घी भी किसी-न-किसी तरह पहुंचा ही देती थी। इस कला में वह निपुण थी। पति-सेवा का वह अमर सिद्धान्त, जो चालीस साल की अवस्था के बाद भोजन को योजना ही पर विशेष आग्रह करता है, सदैव उसकी आंखों के सामने रहता था ठाकुर साहब लौंगी की अब सूरत भी नहीं देखना चाहते थे, इसी आशय के पत्र उनको लिखा करते हैं। हर एक पत्र में वह अपने स्वास्थ्य का विवरण अवश्य करते थे। उनकी पाचन-शक्ति अब बहुत अच्छी हो गयी थी, रुधिर के बढ़ जाने से जितने रोग उत्पन्न होते हैं, उनकी अब कोई सम्भावना न थी।

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दीवान साहब की पाचन-शक्ति अच्छी हो गई हो; पर विचार-शक्ति तो जरूर क्षीण हो गयी थी। निश्चय करने की अब उनमें सामर्थ्य ही न थी। ऐसी-ऐसी गलतियां करते थे कि राजा साहब को उनका बहुत लिहाज करने पर भी बार-बार ऐतराज करना पड़ता था। वह कार्यदक्षता, वह तत्परता, वह विचारशीलता, जिसने उन्हें चपरासी से दीवान बनाया था, अब उनका साथ छोड़ गयी थी। लोगों को आश्चर्य होता था इन्हें क्या हो गया है। गुरुसेवक को भी शायद मालूम होने लगा कि पिता की आड़ में कोई दूसरी ही शक्ति रियासत का संचालन करती थी।

एक दिन उन्होंने पिताजी से कहा-लौंगी कब तक आयेगी?

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दीवान साहब ने उदासीनता से कहा-उसका दिल जाने, यहां आने की तो कोई खास जरूरत नहीं मालूम होती। अच्छा है, अपने कमी का प्रायश्चित्त ही कर ले। यहां आकर क्या करेगी?

उसी दिन भाई-बहन में भी इसी विषय पर बातें हुई। मनोरमा ने कहा-भैया, क्या तुमने लौंगी अम्मा को भुला ही दिया? दादाजी की दशा देख रहे हो कि नहीं? सूखकर कांटा हो गये हैं। जब से अम्माजी का स्वर्गवास हुआ दादाजी ने अपने को उसके हाथों बेच दिया। लौंगी ने न संभाला होता, तो अम्मा जी के शोक में दादाजी प्राण दे देते। मैंने किसी विवाहिता स्त्री में इतनी पति-भक्ति नहीं देखी। अगर दादाजी को बचाना चाहते हो, तो जाकर लौंगी अम्मा को अपने साथ लाओ।

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गुरुसेवक-मेरा जाना तो बहुत मुश्किल है, नोरा?

मनोरमा-क्यों? इसमें आपका अपमान होगा?

गुरुसेवक-बह समझेगी, आखिर इन्हीं को गरज पड़ी। आकर और भी सिर चढ़ जाएगी। उसका मिजाज और भी आसमान पर जा पहुंचेगा।

मनोरमा-अच्छी बात है, तुम न जाओ; लेकिन मेरे जाने में तुम्हें कोई आपत्ति नहीं है?

गुरुसेवक-तुम जाओगी?

मनोरमा-क्यों मैं क्या हूं! क्या भूल गई हूं कि लौंगी अम्मा ही ने मुझे गोद में लेकर पाला है? जब मैं बीमार पड़ी थी, तो वह रात-की-रात मेरे सिरहाने बैठी रहती थी। क्या मैं इन बातों को भूल सकती हूं? माता के ऋण से उऋण होना चाहे सम्भव हो, उसके ऋण से मैं कभी उऋण नहीं हो सकती, चाहे ऐसे-ऐसे दस जन्म लूं।

गुरुसेवक लज्जित हुये। घर आकर उन्होंने देखा कि दीवान साहब लिहाफ ओढ़े पड़े हुए हैं। पूछा-आपका जी कैसा है?

दीवान साहब की लाल आंखें बड़ी हुई थी। बोले-कुछ नहीं जी, जरा सरदी लग रही थी।

गुरुसेवक-आपकी इच्छा हो, तो मैं जाकर लौंगी को बुला लाऊं?

हरसेवक-तुम! नहीं तुम उसे बुलाने क्या जाओगे। कोई जरूरत नहीं उसका जी चाहे आये या न आये। हुंह! उसे बुलाने जाओगे! ऐसी कहां की अमीरजादी है?

दूसरे दिन दीवान साहब को ज्वर हो आया। गुरुसेवक ने तापमान लगाकर देखा तो ज्वर 104 डिग्री का था। घबराकर डॉक्टर को बुलाया। मनोरमा यह खबर पाते ही दौड़ी आई। उसने आते-ही-आते गुरुसेवक से कहा, मैंने आपसे कल ही कहा था, जाकर लौंगी अम्मा को बुला लाइए; लेकिन आप न गये। अब तक तो आप हरिद्वार से लौटते होते। अब भी मौका है। मैं इनकी देखभाल करती रहूंगी, तुम इसी गाड़ी में चले जाओ और उन्हें साथ लाओ। वह इनकी बीमारी की खबर सुनकर एक क्षण भी न रुकेंगी। वह केवल तुम्हारे भय से नहीं आ रही हैं।

दीवान साहब मनोरमा को देखकर बोले-आओ नोरा, मुझे तो आज ज्वर आ गया। गुरुसेवक कह रहा था कि तुम लौंगी को बुलाने जा रही हो। बेटी, इसमें तुम्हारा अपमान है। भला दुनिया क्या कहेगी? सोचो, कितनी बदनामी की बात है।

मनोरमा-दुनिया जो चाहे कहे, मैंने भैया जी को भेज दिया है।

हरसेवक-सच! यह तुमने क्या किया! लौंगी कभी न आयेगी।

मनोरमा-आयेगी क्यों नहीं। न आयेगी, तो मैं जाऊंगी और उसे मना लाऊंगी।

हरसेवक-तुम उसे मनाने जाओगी? रानी मनोरमा लौंगी कहारिन को मनाने जाएगी।

मनोरमा-मनोरमा लौंगी कहारिन का दूध पीकर बड़ी न होती, तो आज रानी मनोरमा कैसे होती?

हरसेवक का मुरझाया हुआ चेहरा खिल उठा, बुझी हुई आंखें जगमगा उठी, प्रसन्नमुख होकर बोले-नोरा, तुम सचमुच दया की देवी हो। देखो-अगर लौंगी आये और मैं न रहूं तो उसकी खबर लेती रहना। उसने बड़ी सेवा की है। मैं कभी उसके एहसानों का बदला नहीं चुका सकता। गुरुसेवक उसे सतायेगा उसे घर से निकालेगा; लेकिन तुम उस दुखिया की रक्षा करना। मैं चाहता तो अपनी सारी सम्पत्ति उसके नाम लिख सकता हूं। लेकिन लौंगी कुछ न लेगी। वह दुष्ट मेरी जायदाद का एक पैसा भी न छुएगी। वह अपने गहने पाते भी काम पड़ने पर इस घर में लगा देगी। बस वह सम्मान चाहती है। कोई उससे आदर के साथ बोले और उसे लूट ले। वह घर की स्वामिनी बनकर भूखों मर जाएगी, लेकिन दासी बनकर सोने का कौर भी न खाएगी। नोरा, जिस दिन से वह गयी है, मैं कुछ और ही हो गया हूं। जान पड़ता है, मेरी आत्मा कहीं चली गयी है। तुम्हें अपने बचपन की याद आती है, नीरा?

मनोरमा-बहुत पहले ही बातें तो नहीं याद हैं; लेकिन लौंगी अम्मा का मुझे गोद में खिलाना खूब याद है: अपनी बीमारी भी याद आती है, जब लौंगी अम्मा मुझे पंखा झला करती थी।

हरसेवक ने अवरुद्ध कण्ठ से कहा-उससे पहले की बात है नीरा, जब गुरुसेवक तीन वर्ष का था और तुम्हें तुम्हारी माता साल-भर का छोड़कर चल बसी थी। मैं पागल हो गया था। यही जी में आता था कि आत्महत्या कर लूं। उस दशा में इसी लौंगी ने मेरी रक्षा की। उसकी सेवा ने मुझे मुग्ध कर दिया। उसे तुम लोगों पर प्राण देते देखकर उस पर मेरा प्रेम हो गया। तुम्हारी माता भी तुम लोगों का लालन-फलन इतना तन्मय होकर न कर सकती थी। गुरुसेवक को न-जाने कौन-सा रोग हो गया था। खून के दस्त आते थे और तिल-तिल पर। इसके बचने की कोई आशा न थी। गलकर कांटा हो गया था। यह लौंगी ही थी, जिसने उसे मौत के मुंह से निकाल लिया। और आज गुरुसेवक उसे घर से निकाल रहा है, समझता है कि लौंगी मेरे धन के लोभ से मुझे घेरे हुए है। मूर्ख नहीं सोचता कि जिस समय लौंगी उसका पज्जर गोद में लेकर रोया करती थी, उस समय धन कहां था। सच पूछो, तो यहां लक्ष्मी भी लौंगी के समय ही आयी। क्यों नोरा, मेरे सिरहान कौन खड़ा है? कोई बाहरी आदमी है? कह दो, यहां से जाय।

मनोरमा-यहां तो मेरे सिवा और कोई नहीं है। आपको कोई कष्ट हो रहा है? डॉक्टर को बुलाऊं ?

हरसेवक-मेरी दवा लौंगी के पास है। उस सती का कैसा प्रताप था! जब तक वह रही, मेरे सिर में कभी दर्द नहीं हुआ। मेरी मूर्खता देखो कि जब उसने तीर्थयात्रा की बात कही, तो मेरे मुंह से एक बार भी न निकला-तुम मुझे किस पर छोड़कर जाती हो? अगर मैं यह कह सकता, तो वह कभी न जाती।

यह कहते-कहते दीवान साहब फिर चौंक पड़े और द्वार की ओर आशंकित नेत्रों से देखकर बोले-यह कौन अन्दर आया, नोरा? ये लोग क्यों मुझे घेरे हुए हैं? मुझे कुछ नहीं हुआ है। लेटा हुआ बातें कर रहा हूं।

मनोरमा ने धड़कते हुए हृदय से उमड़ने वाले आंसुओं को दबाकर पूछा-क्या आपका जी फिर घबरा रहा है?

हरसेवक-वह कुछ नहीं था नोरा! मैंने अपने जीवन में अच्छे काम कम किये; बुरे काम बहुत किये। अच्छे काम जितने किये वे लौंगी ने किये। बुरे काम जितने किये, वे मेरे हैं। उन दंड का भागी मैं हूं। लौंगी के कहने पर चलता, तो आज मेरी आत्मा शान्त होती।

मनोरमा आंसुओं के वेग को रोके हुए थी। उसे उस चिर-परिचित स्थान में आज एक विचित्र शंका का आभास हो रहा था। ऐसा जान पड़ता था कि सूर्य-प्रकाश कुछ क्षीण हो गया, मानो सन्ध्या हो गयी है। दीवान साहब के मुख की ओर ताकने की हिम्मत न पड़ती थी।

दीवान साहब छत की ओर टकटकी लगाये हुए थे, मानो उनकी दृष्टि अनन्त के उस पार पहुंच जाना चाहती हो। सहसा उन्होंने क्षीण-स्वर में पुकारा-नोरा!

मनोरमा ने उनकी ओर करुण नेत्रों से देखकर कहा-खड़ी हूं दादाजी!

दीवान-जरा कलम-दवात लेकर मेरे समीप आ जाओ। कोई और तो यहां नहीं है? मेरा दान-पत्र लिख लो। गुरुसेवक की लौंगी से न पटेगी। मेरे पीछे उसे बहुत कष्ट होगा। मैं अपनी सब जायदाद लौंगी को देता हूं। जायदाद के लोभ से गुरुसेवक उससे दबेगा। तुम यह लिख लो और तुम्हीं इसकी साक्षी देना। यह वसीयत तुम अपने ही पास रखना।

मनोरमा अन्दर जाकर रोने लगी। अब आंसुओं का वेग उसके रोके न रुका;

थोड़ी देर में राजा साहब आ पहुंचे। अहल्या भी उनके साथ थी। मुंशी वज्रधर को भी उड़ती हुई खबर मिली। दौड़े आये। रियासत के सैकड़ों कर्मचारी जमा हो गये। डॉक्टर भी आ पहुंचा। किन्तु दीवान साहब ने आंखें न खोलीं। अचेत पड़े हुए थे; किन्तु आंखों से आंसू की धारें वह-बहकर गालों पर आ रही थी।

एकाएक द्वार पर एक बग्घी आकर रुकी और उसमें से एक स्त्री उतरकर घर में दाखिल हुई। शोर मच गया-आ गयी, आ गयी! यह लौंगी थी।

लौंगी आज ही हरिद्वार से चली थी। गुरुसेवक से उसकी भेंट न हुई थी। इतने आदमियों को जमा देखकर उसका हृदय दहल उठा। उसके कमरे में आते ही और लोग हट गए। केवल मनोरमा, उसकी भाभी और अहल्या रह गयी। लौंगी ने दीवान साहब के सिर पर हाथ रखकर भर्रायी हुई आवाज में कहा-प्राणनाथ! क्या मुझे छोड़कर चले जाओगे?

दीवान साहब की आंखें खुल गयी। उन आंखों में कितनी अपार वेदना थी, किन्तु कितना प्रेम!

उन्होंने दोनों हाथ फैलाकर कहा-लौंगी, और पहले क्यों न आयी?

लौंगी ने दोनों फैले हुए हाथ के बीच में अपना सिर रख दिया और उस अन्तिम प्रेमालिंगन के आनन्द से विह्वल हो गयी। आज उसे मालूम हुआ कि जिसके चरणों पर मैंने अपने को समर्पित किया था, वह अन्त तक मेरा रहा। यह शोकमय कल्पना भी कितनी मधुर और शान्तिदायिनी थी।

वह इसी विस्मृति की दशा में थी कि मनोरमा का रोना सुनकर चौंक पड़ी और दीवान साहब के मुख की ओर देखा। तब उसने स्वामी के चरणों पर सिर रख दिया और फूट-फूटकर रोने लगी। एक क्षण में सारे घर में कुहराम मच गया।

ठाकुर हरसेवकसिंह का क्रिया कर्म हो जाने के बाद एक दिन लौंगी ने अपना कपड़ा लत्ता बांधना शुरू किया। उसके पास रुपये-पैसे जो कुछ थे, सब गुरुसेवक को सौंपकर बोली-भैया, मैं अब किसी गांव में जाकर रहूंगी, यहां मुझसे नहीं रहा जाता।

वास्तव में लौंगी से अब इस घर में न रहा जाता था। घर की एक-एक चीज उसे काटने दौड़ती थी। 25 वर्ष तक इस घर की स्वामिनी बनी रहने के बाद वह किसी की आश्रिता न बन सकती थी। वैधव्य के शोक के साथ यह भाव कि मैं किसी दूसरे की रोटियों पर पड़ी हूं उसके लिए असह्य था। हालांकि गुरुसेवक पहले से अब कहीं ज्यादा उसका लिहाज करते थे, और कोई ऐसी बातें न होने देते थे, जिससे उसे रंज हो। फिर भी कभी-कभी ऐसी बातें हो ही जाती थी, जो उसकी पराधीनता की याद दिला देती थीं। इसीलिए अब वह यहां से जाकर किसी देहात में रहना चाहती है। आखिर जब ठाकुर साहब ने उसके नाम कुछ नहीं लिखा, उसे दूध की मक्खी की भांति निकालकर फेंक दिया, तो वह यहां क्यों पड़ी दूसरों का मुंह जोहे? उसे अब एक टूटे-फूटे झोंपड़े और एक टुकड़े रोटी के सिवा और कुछ नहीं चाहिए।

गुरुसेवक ने कहा-आखिर सुने तो, कहा जाने का विचार कर रही हो?

लौंगी-जहां भगवान ले जायेंगे, वहां चली जाऊंगी; कोई नैहर या दूसरी ससुराल है, जिसका नाम बात दूं?

गुरुसेवक-सोचती हो, तुम चली जाओगी तो मेरी कितनी बदनामी होगी? दुनिया यही कहेगी कि इनसे एक बेवा का पालन न हो सका। मेरे लिए कहीं मुंह दिखाने. की भी जगह न रहेगी। तुम्हें इस घर में जो शिकायत हो वह मुझसे, कहो; जिस बात की जरूरत हो, मुझसे बतला दो। अगर मेरी तरफ से उसमें जरा भी कोर-कसर देखो तो फिर तुम्हें अख्तियार है, जो चाहे करना। यों मैं कभी न जाने दूंगा।

लौंगी-क्या बांधकर रखोगे?

गुरुसेवक-हां, बांधकर रखेंगे।

अगर उम्र-भर में लौंगी को गुरुसेवक की कोई बात पसन्द आयी, तो उनका यही दुराग्रह-पूर्ण वाक्य था। लौंगी का हृदय पुलकित हो गया। इस वाक्य में उसे आत्मीयता जान पड़ी। उसने जरा तेज होकर कहा-बांधकर क्यों रखोगे? क्या तुम्हारी बेसाही हूं?

गुरुसेवक-हां, बेसाही हो! मैंने नहीं बेसाहा, मेरे बाप ने तो बेसाहा है। बेसाही न होती, तो तुम तीस साल यहां रहती कैसे? मैं तुम्हारे पैर तोड़कर रख दूंगा। क्या तुम अपने मन की हो कि जो चाहोगी करोगी और जहां चाहोगी, जाओगी, और कोई न बोलेगा? तुम्हारे नाम के साथ मेरी और मेरे पूज्य बाप की इज्जत बंधी हुई हे।

लौंगी के जी में आया कि गुरुसेवक के चरणों पर सिर रखकर रोऊं और छाती से लगाकर कहूं-बेटा, मैंने तो तुझे गोद में खेलाया है, तुझे छोड़कर भला मैं कहां जा सकती हूं? लेकिन उससे क्रुद्ध भाव से कहा-यह तो अच्छी दिल्लगी हुई। यह मुझे बांधकर रखेंगे।

गुरुसेवक तो झल्लाये हुए बाहर चले गये और लौंगी अपने कमरे में जाकर खूब रोई। गुरुसेवक किसी महरी से क्या कह सकते थे-हम तुम्हें बांधकर रखेंगे? कभी नहीं; लेकिन अपनी स्त्री से वह यह बात कह सकते है; क्योंकि उसके साथ उनकी इज्जत बंधी हुई हे। थोड़ी देर के बाद वह उठकर एक महरी से बोली-सुनती है रे, मेरे सिर में दर्द हो रहा है। जरा आकर दबा दे।

सहसा मनोरमा ने कमरे में प्रवेश किया और लौंगी को सिर में तेल डलवाते देखकर बोली-कैसा जी है अम्मा? सिर में दर्द है क्या?

लौंगी-नहीं बेटा, जी तो अच्छा है। आओ, बैठो।

मनोरमा ने महरी से कहा-तुम जाओ मैं दबाये देती हूं।

महरी चली गयी। मनोरमा सिर दबाने बैठी तो लौंगी ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-नहीं बेटा; तुम रहने दो। दर्द नहीं था, यों ही बुला लिया था। कोई देखे तो कहे कि बुढ़िया पगला गई है, रानी से सिर दबवाती है।

मनोरमा ने सिर दबाते हुए कहा-रानी जहां हूं वहां हूं यहां तो तुम्हारी गोद की खेलायी नोरा हूं। आज तो भैयाजी यहां से जाकर तुम्हारे ऊपर बहुत बिगड़ते रहे। मैं उसकी टांग तोड़ दूंगा, गर्दन काट लूंगा। कितना पूछा-कुछ बताओ तो, बात क्या है? पर गुस्से में कुछ सुने ही न। भाई हैं। तो क्या, पर उनका अन्याय मुझसे भी नहीं देखा जाता। दादाजी उनकी नियत को पहले ही ताड़ गए थे। मैंने अब तक तुमसे नहीं कहा अम्माजी, पर आज उनकी बातें सुनकर कहती हूं कि पिताजी ने अपनी सारी जायदाद तुम्हारे नाम लिख दी है।

लौंगी पर इस सूचना का जरा भी असर न हुआ। किसी प्रकार का उल्लास, उत्सुकता या गर्व उसके चेहरे पर न दिखायी दिया। वह उदासीन भाव से चारपाई पर पड़ी रही।

मनोरमा ने फिर कहा-मेरे पास उनकी लिखायी हुई वसीयत रखी है। और मुझी को उन्होंने उसका साक्षी बनाया है। जब यह महाशय वसीयत देखेंगे तो आंखें खुलेंगी।

लौंगी ने गम्भीर स्वर में कहा-नोरा, तुम यह वसीयतनामा ले जाकर उन्हीं को दे दो। तुम्हारे दादाजी ने व्यर्थ ही वसीयत लिखायी। मैं उनकी जायदाद की भूखी नहीं थी; उनके प्रेम की भूखी थी। और ईश्वर को साक्षी देकर कहती हूं बेटी, कि इस विषय में मेरा जैसा भाग्य बहुत कम स्त्रियों का होगा। मैं उनका प्रेम- धन पाकर ही सन्तुष्ट हूं। इसके सिवा अब मुझे और किसी धन की इच्छा नहीं है। गुरुरनेवक को मैंने गोद में खिलाया है, उसे पाला-पोसा है। वह मेरे स्वामी का बेटा है। उसका हक मैं किस तरह छीन सकती हूं? उसके सामने की थाली किस तरह खींच सकती हूं? वह फाड़कर फेंक दो। यह कागज लिखकर उन्होंने अपने साथ और गुरुसेवक के साथ अन्याय किया है। गुरुसेवक अपने बाप का बेटा है, तो मुझे आदर से रखेगा। वह मुझे माने या न माने, मैं उसे अपना ही समझती हूं। तुम बैठी मेरा सिर दबा रही हो, क्या धन में इतना सुख कभी मिल सकता है। गुरुसेवक के मुंह से अम्मा सुनकर मुझे वह खुशी होगी, जो संसार की रानी बनकर भी नहीं हो सकती, तुम उनसे इतना ही कह देना।

यह कहते -कहते लौंगी की आंखें सजल हो गयीं। मनोरमा उसकी ओर प्रेम, श्रद्धा, गर्व और आश्चर्य से ताक रही थी, मानो वह कोई देवी हो।

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