मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 20
राजा विशालसिंह की हिंसा-वृत्ति किसी प्रकार शान्त न होती थी। ज्यों-ज्यों अपनी दशा पर उन्हें दुःख होता था, उनके अत्याचार और भी बढ़ते थे। उनके हृदय में अब सहानुभूति, प्रेम और धैर्य के लिए जरा भी स्थान न था। उनकी सम्पूर्ण वृत्तियां ‘हिंसा-हिंसा!’ पुकार रही थीं। इधर कुछ दिनों से उन्होंने प्रतिकार का एक और ही शस्त्र खोज निकाला था।
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उन्हें निस्सन्तान रखकर, मिली हुई सन्तान उनकी गोद से छीनकर दैव ने उनके साथ सबसे बड़ा अन्याय किया था। दैव के शस्त्रालय में उनका दमन करने के लिए यही सबसे कठोर शस्त्र था। इसे राजा साहब उनके हाथों से छीन लेना चाहते थे। उन्होंने सातवां विवाह करने का निश्चय कर लिया था। राजाओं के लिए कन्याओं की क्या कमी कई महीने से इस, सातवें विवाह की तैयारियां बड़े जोरों से हो रही थीं। कई राजवैद्य रात-दिन बैठे भांति-भांति के रस बनाते रहते। पौष्टिक औषधियां चारों ओर से मंगायी जा रही थीं। राजा साहब यह विवाह इतनी धूम-धाम से करना चाहते थे कि देवताओं के कलेजे पर सांप लोटने लगे!
रानी मनोरमा ने इधर बहुत दिनों से घर या रियासत के मामले में बोलना छोड़ दिया था। वह बोलती भी, तो सुनता कौन? राजा साहब को उसकी सूरत से घृणा हो गयी थी। मनोरमा के लिए अब वह घर नरकतुल्य था चुपचाप सारी विपत्ति सहती थी। उसे बड़ी इच्छा होती थी कि एक बार राजा साहब के पास जाकर पूछे मुझसे क्या अपराध हुआ है; पर राजा साहब उसे इसका अवसर ही न देते थे।
मनोरमा को आये दिन कोई-न-कोई अपमान सहना पड़ता था। उसका गर्व चूर करने के लिए रोज कोई-न-कोई षड्यन्त्र रचा जाता था। पर वह उद्दण्ड प्रकृति वाली मनोरमा अब धैर्य और शान्ति का अथाह सागर है, जिसमें वायु के हलके-हलके झोंके से कोई आन्दोलन नहीं होता। वह मुस्कुराकर सब कुछ शिरोधार्य करती जाती है! यह विकट मुस्कान उसका साथ कभी नहीं छोड़ती। नयी रानी साहब के लिए सुन्दर भवन बनवाया जा रहा था। उसकी सजावट एक बड़े आईने की जरूरत थी। हुक्म हुआ छोटी रानी के दीवानखाने का बड़ा आईना उतार लाओ। मनोरमा ने यह हुक्म सुना और मुस्कुरा दीं। फिर कालीन की जरूरत पड़ी। फिर वही हुक्म हुआ-छोटी रानी के दीवानखाने से लाओ। मनोरमा ने मुस्कुराकर सारी कालीने दे दीं। इसके कुछ दिनों बाद हुक्म हुआ-छोटी रानी की मोटर नये भवन में लायी जाय। मनोरमा इस मोटर को बहुत पसन्द करती थी, उसे खुद चलाती थी। यह हुक्म सुना, तो मुस्कुरा दिया। मोटर चली गयी।
मनोरमा के पास पहले बहुत-सी सेविकाएं थीं। इधर घटते-घटते यह संख्या तीन तक पहुंच गयी थी। एक दिन हुक्म हुआ कि तीन सेविकाओं में से दो नये महल में नियुक्त की जाएं। उसके एक सप्ताह बाद वह एक भी बुला ली गयी। इस हुक्म का मनोरमा ने मुस्कुराकर स्वागत किया।
मगर अभी सबसे कठोर आघात बाकी था। नयी रानी के लिए तो नया महल बन ही रहा था। उनकी माताजी के लिए एक दूसरे मकान की जरूरत पड़ी। इसलिए हुक्म हुआ कि छोटी रानी का महल खाली करा लिया जाय। रानी ने यह हुक्म सुना और मुस्करा दी। जिस हिस्से में पहले महरियां रहती थीं, उसी को उसने अपना निवास-स्थान बना लिया। द्वार पर टाट के परदे लगवा दिये। यहां भी वह उतनी ही प्रसन्न थी, जितने अपने महल में।
रात अधिक बीत गयी थी। बाहर बारात की तैयारियां हो रही थीं। ऐसा शानदार जुलूस निकालने की आयोजना की जा रही थी, जैसा इस नगर में कभी न निकला हो। गोरी फौज थी, काली फौज थी, रियासत का फौजी-बैंड था, कोतल घोड़े, सजे हुए हाथी, फूलों से संवारी हुई सवारी गाड़ियां, सुन्दर पालकियां-इतनी जमा की गयी थीं कि शाम से घड़ी-रात तक उनका तांता ही न टूटे। बैंड से लेकर डफले और नृसिंहे तक सभी प्रकार के बाजे थे। सैकड़ों ही विमान सजाए गए थे और फुलवारियों की तो गिनती ही नहीं थी। सारी रात द्वार पर चहल-पहल रही और सारी रात राजा साहब सजावट का प्रबन्ध करने में व्यस्त रहे।
सारे शहर में इस जुलूस और इस विवाह का उपहास हो रहा था, नौकर चाकर तक आपस में हंसी उड़ाते थे, राजा साहब की चुटकियां लेते थे, लेकिन अपनी धुन में मस्त राजा साहब को कुछ न सूझता था, कुछ न सुनायी देता था।
चार बजते-बजते बारात निकली। जुलूस की लम्बाई दो मील से कम न थी। भांति-भांति के बाजे बज रहे थे, रुपये लुटाये जा रहे थे, पगपग पर फूली की वर्षा की जा रही थी। सारा शहर तमाशा देखने को फटा पड़ता था।
इसी समय अहल्या और शंखधर ने नगर में प्रवेश किया और राजभवन की ओर चले; किन्तु थोड़ी ही दूर गये थे कि बारात के जुलूस ने रास्ता रोक दिया। जब यह मालूम हुआ कि महाराज विशालसिंह की बारात है, तो शंखधर ने मोटर रोक दी और उस पर खड़े होकर अपना रुमाल हिलाते हुए जोर से बोले-सब आदमी रुक जायें, कोई एक कदम भी आगे न बड़े। फौरन महाराज साहब को सूचना दो कि कुंवर शंखधर आ रहे हैं।
दम-के-दम में सारी बारात रुक गयी। कुंवर साहब आ गये! यह खबर वायु के झोंके की भांति इस सिरे से उस सिरे तक दौड़ गयी। जो जहां था वहीं खड़ा रह गया। फिर उनके दर्शन के लिए लोग दौड़-दौड़कर जमा होने लगे! सारा जुलूस तितर-बितर हो गया। विशालसिंह ने यह भगदड़ देखी, तो समझे कुछ उपद्रव हो गया।
उसी क्षण शंखधर ने सामने आकर राजा साहब को प्रणाम किया।
शंखधर को देखते ही राजा साहब घोड़े से कूद पड़े और उसे छाती से लगा लिया। आज इस शुभ-मुहूर्त में वह अभिलाषा भी पूरी हो गयी, जिसके नाम को वह रो चुके थे। बार-बार कुंवर को छाती से लगाते थे; पर तृप्ति ही न होती थी। आंखों से आंसू की झड़ी लगी हुई थी। जब जरा चित्त शांत हुआ तो बोले-तुम आ गये बेटा, मुझ पर बड़ी दया की। चक्रधर को लाए हो न?
शंखधर ने कहा-वह तो नहीं आए।
राजा-आयेंगे, मेरा मन कहता है। मैं तो निराश हो गया था, बेटा! तुम्हारी माता भी चली गयी; तुम पहले ही चले गये; फिर मैं किसका मुख देखकर जीता! जीवन का कुछ आधार चाहिए। अहल्या तभी से न जाने कहां घूम रही है।
शंखधर-वह तो मेरे साथ हैं।
राजा-अच्छा, वह भी आ गयी। वाह मेरे ईश्वर! सारी खुशियां एक ही दिन के लिए जमा कर रखी थीं। चलो, उसे देखकर आंखें ठण्डी करूं।
बारात रुक गयी। राजा साहब और शंखधर अहल्या के पास आये। पिता और पुत्री का सम्मिलन बड़े आनन्द का दृश्य था। कामनाओं के वृक्ष, जो मुद्दत हुई, निराश-तुषार की भेंट हो चुके थे, आज लहलहाते, हरी-भरी पत्तियों से लदे हुए सामने खड़े थे। आंसुओं का वेग शान्त हुआ, तो राजा साहब बोले-तुम्हें यह बारात देखकर हंसी आती होगी। सभी हंस रहे हैं; लेकिन बेटा, यह बारात नहीं है। कैसी बारात और कैसा दूल्हा! यह विक्षिप्त हृदय का उद्गार है, और कुछ नहीं। मन कहता था-जब ईश्वर को मेरी सुधि नहीं, वह मुझ पर जरा भी दया नहीं करते, अकारण ही मुझे सताते हैं, तो मैं क्यों उनसे डरूं? जब स्वामी को सेवक की फिक्र नहीं, तो सेवक को स्वामी की फिक्र क्यों होने लगी? मैंने उतना अन्याय किया, जितना मुझसे हो सका। धर्म और अधर्म पाप और पुण्य के विचार दिल से निकाल डाले। आखिर मेरी विजय हुई कि नहीं?
मुंशी वज्रधर ने यह शुभ समाचार सुना, तो फौरन घोड़े पर सवार हुए और राज-भवन आ पहुंचे। शंखधर उनके आने का समाचार पाकर नंगे पांव दौड़े और उनके चरणों को स्पर्श किया? मुंशीजी ने पोते को छाती ने लगा लिया और गदगद कण्ठ से बोले-यह शुभ दिन भी देखना बदा था बेटा, इसी से अभी तक जीता हूं। यह अभिलाषा पूरी हो गयी। बस इतनी, लालसा और है कि तुम्हारा राज-तिलक देख लूं? तुम्हारी दादी बैठी तुम्हारी राह देख रही हैं। क्या उन्हें भूल गये?
शंखधर ने लजाते हुए कहा-जी नहीं, शाम को जाने का इरादा था। उन्हीं के आशीर्वाद से तो मुझे पिताजी के दर्शन हुए। उन्हें कैसे भूल सकता हूं?
मुंशी-तुम लल्लू को अपने साथ घसीट नहीं लाये?
शंखधर-वह अपने जीवन में जो पवित्र कार्य कर रहे हैं, उसे छोड़कर कभी न आते। मैंने अपने को तो जाहिर भी नहीं किया, नहीं तो शायद वह मुझसे मिलना भी स्वीकार न करते।
इसके बाद शंखधर ने अपनी यात्रा का, अपनी कठिनाइयों का और पिता से मिलने का सारा वृत्तान्त कहा।
यों बातें करते हुए मुंशीजी राजा साहब के पास जा पहुंचे। राजा साहब ने बड़े आदर से उनका अभिवादन किया और बोले-आप तो इधर का रास्ता ही भूल गये।
मुंशीजी-महाराज, अब आपका और मेरा सम्बन्ध और प्रकार का है। ज्यादा आऊँ-जाऊँ तो आप ही कहेंगे, यह अब क्या करने आते हैं, शायद कुछ लेने की नीयत से आते होंगे। कभी जिन्दगी में धनी नहीं रहा; पर मर्यादा की सदैव रक्षा की है।
राजा-आखिर आप दिन-भर बैठे-बैठे वहां क्या करते है; दिल नहीं घबराता?
मुंशीजी-अब तो राजकुमार का तिलक हो जाना चाहिए। आप भी कुछ दिन शान्ति का आनन्द उठा लें।
राजा-विचार तो मेरा भी है; लेकिन मुंशीजी, न जाने क्या बात है कि जब से शंखधर आया है, क्यों मुझे शंका हो रही है कि इस मंगल में कोई-न-कोई विघ्न अवश्य पड़ेगा। दिल की बहुत समझाता हूं लेकिन न जाने क्यों यह शंका अन्दर से निकलने का नाम नहीं लेती।
मुंशीजी-आप ईश्वर का नाम लेकर तिलक कीजिए। जब टूटी हुई आशाएं पूरी हो गयीं; तो अब सब कुशल ही होगी। आज मेरे यहां कुछ आनन्दोत्सब होगा। आजकल शहर में अच्छे-अच्छे कलावन्त आये हुए हैं; सभी आयेंगे। आपने कृपा की, तो मेरे सौभाग्य की बात होगी।
राजा-नहीं मुंशीजी, मुझे तो क्षमा कीजिए। मेरा चित्त शान्त नहीं है। आपसे सत्य कहता हूं मुंशीजी, आज अगर मेरा प्राणान्त हो जाये, तो मुझसे बढ़कर सुखी प्राणी संसार में न होगा। शोक की पराकाष्ठा देख ली। आनन्द की पराकाष्ठा भी देख ली। अब और कुछ देखने की आकांक्षा नहीं है। डरता हूं कहीं पलड़ा फिर न दूसरी ओर झुक जाय।
मुंशीजी देर तक बैठे राजा साहब तो तस्कीन दे रहे, फिर सब महिलाओं को अपने यहां आने का निमन्त्रण देकर और शंखधर को गले लगाकर बह घोड़े पर सवार हो गये। इस निर्द्वन्द्व जीव ने चिन्ताओं को कभी अपने पास नहीं फटकने दिया। धन की इच्छा थी, ऐश्वर्य की इच्छा थी, पर उन पर जान न देते थे, संचय करना तो उन्होंने सीखा ही न था। थोड़ा मिला तब भी अभाव रहा, बहुत मिला तब भी अभाव रहा। अभाव हो जीवन-पर्यन्त उनका गला न छूटा। एक समय था, जब स्वादिष्ट भोजनों को तरसते थे। अब दिल खोलकर दान देने को तरसते हैं। क्या पाऊं और क्या दे दूं? बस फिक्र थी तो इतनी ही। कमर झुक गयी थी, आंखों से सूझता भी कम था; लेकिन मजलिस नित्य जमती थी, हंसी-दिल्लगी करने में भी कभी न चूकते थे। दिल में कभी किसी ने कीना नहीं रखा, और न कभी किसी की बुराई चेती।
दूसरे दिन संध्या समय मुंशीजी के घर बड़ी धूम-धाम से उत्सव मनाया गया। निर्मला पोते को छाती से लगाकर खूब रोई। उसका जी चाहता था, यह मेरे ही घर रहता। कितना आनन्द होता! शंखधर से बातें करने से उसकी तृप्ति ही न होती थी। अहल्या ही के कारण उसका पुत्र हाथ से गया। पोता भी उसी के कारण हाथ से जा रहा है। इसलिए अब भी उनका मन अहल्या से न मिलता था। निर्मला को अपने बाल-बच्चों के साथ रहकर सभी प्रकार का कष्ट सहना मंजूर था। वह अब इस अन्तिम समय किसी को आंखों की ओट न करना चाहती थी। न-जाने कब दम निकल जाय, कब आंखें बन्द हो जायें। बेचारी किसी को देख भी न सके।
बाहर गाना हो रहा था। मुंशीजी शहर से रईसों की दावत का इन्तजाम कर रहे थे। अहल्या लालटेन ले-लेकर धर-भर की चीजों को देख रही थी और अपनी चीजों के तहस-नहस होने पर मन-ही-मन झुंझला रही थी। उधर निर्मला चारपाई पर लेटी शंखधर की बातें सुनने में तन्मय हो रही थी।
प्रातःकाल जब शंखधर विदा होने लगे, तो निर्मला ने कहा-बेटा, अब बहुत दिन न चलूंगी। जब तक जीती है एक बार रोज आया करना।
आज राजा साहब के यहां भी उत्सव था; इसलिए शंखधर इच्छा रहते हुए भी न ठहर सके।
स्त्रियां निर्मला के चरणों को अंचल से स्पर्श करके विदा हो गयी, तो शंखधर खड़े हुए निर्मला ने रोते हुए कहा-कल मैं तुम्हारी बाट देखती रहूंगी।
शंखधर ने कहा-अवश्य आऊंगा।
जब वह मोटर पर बैठ गये, तो निर्मला द्वार पर खड़ी होकर उन्हें देखती, मुस्कुरा कर शंखधर के साथ ही उसका हृदय भी चला जा रहा था। युवकों के प्रेम में उद्विग्नता होती है, वृद्धों का प्रेम हृदय-विदारक होता है। युवक जिससे प्रेम करता है, उससे प्रेम की आशा भी रखता है। अगर उसे प्रेम के बदले प्रेम न मिले, तो वह प्रेम को हृदय से निकालकर फेंक देगा। वृद्धजनों की भी क्या यही आशा होती है? वे प्रेम करते हैं और जानते हैं कि इसके बदले में उन्हें कुछ न मिलेगा। या मिलेगी तो दया। शंखधर की आंखों में आंसू न थे, हृदय में तड़प न थी, यों प्रसन्न-चित्त चले जा रहे थे, मानो सैर करके लौटे जा रहे हों।
मगर निर्मला का दिल फटा जाता था और मुंशी वज्रधर की आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था?