For the best experience, open
https://m.grehlakshmi.com
on your mobile browser.

मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 4

08:00 PM Feb 17, 2024 IST | Guddu KUmar
मनोरमा   मुंशी प्रेमचंद भाग   4
manorama - munshee premachand
Advertisement

विशालसिंह-हंसकर नहीं कहता। डांटता हूं, फटकारता हूं।

वसुमती-डांटते होंगे, मगर प्रेम के साथ। ढलती उम्र में सभी मर्द तुम्हारे ही जैसे हो जाते हैं। कभी-कभी तुम्हारी लम्पटता पर मुझे हंसी आती है। आदमी कड़े दम चाहिए। जैसे घोड़ा पैदल और सवार पहचानता है, उसी तरह औरत भी भकुए और मर्द को पहचानती है। जिसने सच्चा आसन जमाया और लगाम कड़ी रखी, उसी की जय है। जिसने रास ढीली कर दी, उसकी कुशल नहीं।

मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1

Advertisement

विशालसिंह-मैंने तो अपनी जान में कभी लगाम ढीली नहीं की। आज ही देखो, कैसी फटकार बतायी।

वसुमती-क्या कहना है, जरा मूंछें खड़ी कर लो, लाओ पगिया मैं संवार दूं। यह नहीं कहते कि उसने ऐसी-ऐसी चोटें कीं कि भागते ही बने!

Advertisement

सहसा किसी के पैरों की आहट पाकर वसुमती ने द्वार की ओर देखा! रोहिणी रसोई के द्वार से दबे-पांव चली आ रही थी। मुंह का रंग उड़ गया। दांतों से ओठ -दबाकर बोली-छिपी खड़ी थी। मैंने साफ देखा। अब घर में रहना मुश्किल है। देखो, क्या रंग लाती है।

विशालसिह ने पीछे की ओर सशंक-नेत्रों से देखकर कहा-बड़ा गजब हुआ। चुड़ैल सब सुन गयी होगी। मुझे जरा भी आहट न मिली।

Advertisement

वसुमती-उंह, रानी रूठेगी, अपना सोहाग लेंगी। कोई कहां तक डरे। आदमियों को बुलाओ, यह सब सामान यहां से ले जाये।

भादों की अंधेरी रात थी। हाथ को हाथ न सूझता था। मालूम होता था, पृथ्वी पाताल में चली गयी है, या किसी विराट जन्तु ने उसे निगल लिया है। मोमबत्तियों का प्रकाश उस तिमिर-सागर में पांव रखते कांपता था। विशालसिंह भोग के पदार्थ थालियों में भरवा-भरवाकर बाहर रखवाने में लगे हुए थे। एका-एक रोहिणी एक चादर ओढ़े हुए घर से निकली और बाहर की ओर चली। विशालसिंह देहलीज के द्वार पर खड़े थे। इस भरी सभा में उसे यों निश्शंक भाव से निकलते देखकर उनका रक्त खौलने लगा। जरा भी न पूछा, कहां जाती हो, क्या बात है। मूर्ति की भांति खड़े रहे। और सब लोग अपने-अपने काम में लगे हुए थे। रोहिणी पर किसी की निगाह न पड़ी।

इतने में चक्रधर उनसे कुछ पूछने आये, तो देखा कि महरी उनके सामने खड़ी है और क्रोध से आंखें लाल किये कह रहे हैं-अगर वह मेरी लौंडी नहीं है, तो मैं भी उसका गुलाम नहीं हूं। जहां इच्छा हो जाय। अब इस घर में कदम न रखने दूंगा।

जब चक्रधर को रानियों के आपसी झगड़े और रोहिणी के घर से निकल जाने की बात मालूम हुई तो उन्होंने लपककर एक लालटेन उठा ली और बाहर निकलकर दायें-बायें निगाहें दौड़ाते, तेजी से कदम बढ़ाते हुए चले। कोई दो सौ कदम गये होंगे कि रोहिणी एक वृक्ष के नीचे खड़ी दिखलायी दी। ऐसा मालूम होता था कि वह छिपने के लिए कोई जगह तलाश कर रही है। चक्रधर उसे देखते ही लपककर समीप पहुंचे और उसे घर चलने के लिए समझाने लगे। पहले तो रोहिणी किसी तरह राजी न हुई, लेकिन चक्रधर के बहुत समझाने-बुझाने के बाद वह घर लौट पड़ी।

जब दोनों आदमी घर पहुंचे, तो विशालसिंह अभी तक वहां मूर्तिवत खड़े थे, महरी भी खड़ी थी। भक्तजन अपना-अपना काम छोड़कर लालटेन की ओर ताक रहे थे। सन्नाटा छाया हुआ था।

रोहिणी ने देहलीज में कदम रख; मगर ठाकुर साहब ने उसकी ओर आंख उठाकर भी न दे खा। जब वह अन्दर चली गयी तो उन्होंने चक्रधर का हाथ पकड़ लिया और बोले -मैं तो समझता था, किसी तरह न आयेगी; मगर आप खींच ही लाये। क्या बहुत बिगड़ती थी।

चक्रधर ने कहा-आपको कुछ नहीं कहा। मुझे तो बहुत समझदार मालूम होती हैं। हां, मिजाज नाजुक है, बात बर्दाश्त नहीं कर सकती।

विशालसिंह-मैं यहां से टला तो नहीं, लेकिन सच पूछिए तो ज्यादती मेरी ही थी। मेरा क्रोध बहुत बुरा है। अगर आप न पहुंच जाते, तो बड़ी मुश्किल पड़ती। जान पर खेल जाने वाली स्त्री है। आपका यह एहसान कभी न भूलूंगा। देखिए तो, सामने कुछ रोशनी-सी मालूम हो रही है। बैंड भी बज रहा है। क्या माजरा है?

सैकड़ों आदमी कतार बांधे मशालों और लालटेनों के साथ चले आ रहे थे, आगे-आगे दो अश्वारोही भी नजर आते थे। बैंड की मनोहर ध्वनि आ रही थी।

सभी लोग बड़े कुतूहल से आने वालों को देख रहे थे। कोई दस-बारह मिनट में वह विशालसिंह के घर के सामने आ पहुंचे। आगे-आगे दो घोड़ों पर मुंशी वज्रधर और ठाकुर हरसेवकसिंह थे। पीछे कोई पच्चीस-तीस आदमी साफ-सुथरे कपड़े पहने चले आते थे। मकान के सामने पहुंचते ही दोनों सवार घोड़ों से उतर पड़े और हाथ बांधे हुए कुंवर साहब के सामने आकर खड़े हो गये। मुंशीजी की सज- धज निराली थी। सिर पर एक शमला था, देह पर एक नीचा आबा। ठाकुर साहब भी हिन्दुस्तानी लिबास में थे। मुंशीजी खुशी से मुस्कुराते थे, पर ठाकुर साहब का मुख मलिन था।

ठाकुर साहब बोले -दीनबन्धु, हम सब आपके सेवक आपकी सेवा में यह शुभ सूचना देने के लिए हाजिर हुए हैं कि महारानी ने राज्य से विरक्त होकर तीर्थ-यात्रा को प्रस्थान किया है और अब हमें श्रीमान् की छात्र-छाया के नीचे आश्रय लेने का वह स्वर्णावसर प्राप्त हुआ है, जिसके लिए हम सदैव ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे। यह पत्र है, जो महारानी ने श्रीमान् के नाम लिख रखा था। कुंवर साहब ने एक ही निगाह में उसे आद्योपांत पढ़ लिया और उनके मुख पर मन्द हास्य की आभा झलकने लगी। पत्र जेब में रखते हुए बोले-यद्यपि महारानी की तीर्थ-यात्रा का समाचार जानकर मुझे अत्यन्त खेद हो रहा है; लेकिन इस बात का सच्चा आनन्द भी है कि उन्होंने निवृत्त-मार्ग पर पग रखा। मेरी ईश्वर से यही विनय है कि उसने मेरी गरदन पर जो कर्तव्य-भार रखा है, उसे संभालने की मुझे शक्ति दे और प्रजा के प्रति मेरा जो धर्म है, उसके पालन करने की भी शक्ति प्रदान करे।

इतने में कृष्ण के जन्म का मुहूर्त आ पहुंचा। सारी महफिल खड़ी हो गयी और सभी उस्तादों ने एक स्वर से मंगलगान शुरू किया। साजों के मेले ने समा बांध दिया। केवल दो ही प्राणी ऐसे थे, जिन्हें इस समय भी चिन्ता घेरे हुए थी। एक तो ठाकुर हरसेवकसिंह, दूसरे कुंवर विशालसिंह। एक को यह चिन्ता लगी हुई थी कि देखें, कल क्या मुसीबत आती है, दूसरे को यह फिक्र थी कि इस दुष्ट से क्योंकर पुरानी कसर निकालूं। चक्रधर अब तक तो लज्जा से मुंह छिपाये बाहर खड़े थे मंगल गान समाप्त होते ही आकर प्रसाद बांटने लगे। किसी ने मोहन-भोग का थाल उठाया, किसी ने फलों का। कोई पंचामृत बांटने लगा। हरबोंग-सा मच गया। कुंवर साहब ने मौका पाया, तो उठे और मुंशी वज्रधर को इशारे से बुला, दालान में ले जाकर पूछने लगे-दीवान साहब ने तो मौका पाकर खूब हाथ साफ किये होंगे।

वज्रधर-मैंने तो ऐसी कोई बात नहीं देखी। बेचारे दिन-भर सामान की जांच-पड़ताल करते रहे। घर तक न गये।

विशालसिंह-यह सब तो आपके कहने से किया। आप न होते न जाने क्या गजब ढाते। आपको पुरानी क्या मालूम नहीं। इसने मुझ पर बड़े-बड़े जुल्म किये हैं। इसी के कारण मुझे जगदीशपुर छोड़ना पड़ा। बस चला होता, तो इसने मुझे कत्ल करा दिया होता।

वज्रधर-गुस्ताखी माफ कीजिएगा। आपका बस चलता तो क्या रानी जी की जान बच जाती, या दीवान साहब जिन्दा रहते? उन पिछली बातों को भूल जाइए। भगवान ने आज आपको ऊंचा रुतबा दिया है। अब आपको उदार होना चाहिए। मैंने ठाकुर साहब के मुंह से एक भी बात ऐसी नहीं सुनी, जिससे यह हो कि वह आपसे कोई अदावत रखते हैं।

विशालसिंह ने कुछ लज्जित होकर कहा-मैंने निश्चय कर लिया था कि सबसे पहला वार इन्हीं पर करूंगा; लेकिन आपकी बातों ने मेरा विचार पलट दिया। आप भी उन्हें समझा दीजिएगा कि मेरी तरफ से कोई शंका न रखें।

यह कहकर कुंवर साहब घर में गये। सबसे पहले रोहिणी के कमरे में कदम रखा। पति की निष्ठुरता ने आज उसकी मदान्ध आंखें खोल दी थीं।

कुंवर साहब ने कमरे में कदम रखते ही कहा-रोहिणी, ईश्वर ने आज हमारी अभिलाषा पूरी की।

रोहिणी-तब तो घर में रहना और भी मुश्किल हो जाएगा। जब कुछ न था, तभी मिजाज न मिलता था। अब तो आकाश पर चढ़ जाएगा। काहे को कोई जीने पायेगा?

विशालसिंह ने दुखित होकर कहा-प्रिये, यह इन बातों का समय नहीं है। ईश्वर को धन्यवाद दो कि उसने हमारी विनती सुन ली।

रोहिणी-जब अपना कोई रहा ही नहीं, तो राजपाट लेकर चाटूंगी?

विशालसिंह को क्रोध तो आया; लेकिन इस भय से कि बात बढ़ जायेगी, कुछ बोले नहीं। वहां से वसुमती के पास पहुंचे। वह मुंह लपेटे पड़ी हुई थी। जगाकर बोले -क्या सोती हो, उठो खुशखबरी सुनायें।

वसुमती-पटरानी को सुना ही आये, मैं सुनकर क्या करूंगी? अब तक जो बात मन में थी, वह आज तुमने खोल दी, तो यहां बचा हुआ सत्तू खाने वाले पाहुने नहीं है।

विशालसिंह दुःखी होकर बोले -यह बात नहीं है, वसुमती! तुम जानबूझकर नादान बनती हो। मैं इधर ही आ रहा था, ईश्वर से कहता हूं। उसका कमरा अंधेरा देखकर चला गया; देखूं क्या बात है।

वसुमती-मुझसे बातें न बनाओ, समझ गये। जो एक औरत को काबू में नहीं रख सकता, वह रियासत का भार क्या संभालेगा?

यह कहकर वह उठी और झल्लायी हुई छत पर चली गयी। विशालसिंह कुछ देर उदास खड़े रहे, तब रामप्रिया के कमरे में प्रवेश किया। वह चिराग के सामने बैठी कुछ लिख रही थी। पति की आहट पाकर सिर उठाया, तो आंख में आंसू भरे हुए थे। विशालसिंह ने चौंककर पूछा-क्या बात है, प्रिये क्यों रो रही हो? मैं तुम्हें एक खुशखबरी सुनाने आया हूं?

रामप्रिया ने आंसू पोछते हुए कहा-सुन चुकी हूं, मगर आप उसे खुशखबरी कैसे कहते है? मेरी प्यारी बहन सदा के लिए संसार से चली गयी, क्या यह खुशखबरी है? दुखिया ने संसार का कुछ सुख न देखा। उसका तो जन्म ही व्यर्थ हुआ। रोते -रोते उम्र बीत गयी।

यह कहते -कहते रामप्रिया सिसक-सिसककर रोने लगी। विशालसिंह को उसका रोना बुरा मालूम हुआ। बाहर आकर महफिल में बैठ गये। मेडूखां सितार बजा रहे थे। सारी महफिल तन्मय हो रही थी। जो लोग फजलू का गाना न सुन सके थे, वे भी इस वक्त सिर घुमाते और झूमते नजर आते थे। किन्तु इस आनन्द और सुधा के अनन्त प्रवाह में एक प्राणी हृदय की ताप से विकल हो रहा था। वह राजा विशालसिंह थे, सारी बारात हंसती थी, दूल्हा रो रहा था।

दूसरी वर्षा भी आधी से ज्यादा बीत गयी; लेकिन चक्रधर ने माता-पिता से अहल्या का वृतान्त गुप्त रक्खा। जब मुंशीजी पूछे वहां क्या बात कर आये? आखिर यशोदानन्दन को विवाह करना है या नहीं? न करना हो तो साफ-साफ कह दें। करना हो, तो उसकी तैयारी करें। तो चक्रधर कुछ इधर-उधर की बातें करके टाल जाते। उधर यशोदानन्दन बार-बार लिखते तुमने मुंशीजी से सलाह की या नहीं। अगर तुम्हें उनसे कहते शर्म आती हो, तो मैं ही आकर कहूं? आखिर इस तरह कब तक समय टालोगे? अहल्या तुम्हारे सिवा और किसी से विवाह न करेगी। चक्रधर इन पत्रों के जवाब में भी यही लिखते कि मैं खुद फिक्र में हूं। ज्यों ही मौका मिला, जिक्र करूंगा। मुझे विश्वास है कि पिताजी राजी हो जायेंगे।

जन्माष्टमी के उत्सव के बाद मुंशीजी घर आये तो उनके हौसले बड़े हुए थे। राजा साहब के साथ-ही-साथ उनके सौभाग्य का सूर्य उदय होता हुआ ही मालूम होता था। अब वह अपने ही शहर के किसी रईस के घर चक्रधर की शादी कर सकते थे। लेकिन मुंशी यशोदानन्दन को वचन दे चुके थे, इसलिए उनसे एक बार पूछ लेना उचित था। अगर उनकी तरफ से जरा भी विलम्ब हो तो साफ कह देना चाहते थे कि मुझे आपके यहां विवाह करना मंजूर नहीं। यों दिल में निश्चय करके एक दिन भोजन करते समय उन्होंने चक्रधर से कहा-मुंशी यशोदानन्दन भी कुछ ऊल-जलूल आदमी हैं। अभी तक कानों में तेल डाले हुए बैठे हैं।

चक्रधर-उनकी तरफ से तो देर नहीं है। वह तो मेरे खत का इन्तजार कर रहे हैं।

वज्रधर-मैं तो तैयार हूं लेकिन अगर उन्हें कुछ पेशोपेश हो, तो मैं उन्हें मजबूर नहीं करना चाहता। यहां सैकड़ों आदमी मुंह खोले हुए हैं। आज उन्हें लिख दो कि या तो इसी जाड़े में शादी कर दें, या कहीं और बातचीत करें।

चक्रधर ने देखा कि अवसर आ गया है। आज निश्चय ही कर लेना चाहिए। बोले-पेशोपेश जो कुछ होगा, आप ही की तरफ से होगा। बात यह है वह कन्या मुंशी यशोदानन्दन की पुत्री नहीं है।

वज्रधर-पुत्री नहीं है। वह तो लड़की ही बताते थे। खैर, पुत्री न होगी भतीजी होगी, भांजी होगी, नातिन होगी, बहन होगी। मुझे आम खाने से मतलब है या पेड़ गिनने से?

चक्रधर-वह लड़की उन्हें किसी मेले में मिली थी। तब उसकी उम्र तीन-चार बरस की थी। उन्हें उस पर दया आ गयी, घर लाकर पाला, पढ़ाया-लिखाया।

वज्रधर-(स्त्री से) कितना दगाबाज आदमी है। क्या अभी तक लड़की के मां-बाप का पता नहीं चला?

चक्रधर-जी नहीं, मुंशीजी ने उनका पता लगाने की बड़ी चेष्टा की पर कोई फल न निकला।

वज्रधर-अच्छा तो यह किस्सा है। बड़ा झूठा आदमी है, बना हुआ मक्कार।

निर्मला-तुम साफ-साफ लिख दो, मुझे नहीं करना है। बस!

वज्रधर-मैं तुमसे तो सलाह नहीं पूछता हूं। मैं खुद जानता हूं ऐसे धोखेबाजों के साथ कैसे पेश आना चाहिए।

खाना खाकर दोनों आदमी उठे, तो मुंशीजी ने कहा-कलम-दवात लाओ, मैं इसी वक्त यशोदानन्दन को खत लिख दूं। बिरादरी का वास्ता न होता, तो हरजाने का दावा कर देता।

चक्रधर आरक्त मुख और संकोच-रुद्ध कण्ठ से बोले -मैं तो वचन दे आया था।

वज्रधर-तो यह क्यों नहीं कहते कि तुमने सब कुछ आप-ही-आप तय कर लिया है। तुमने लड़की सुन्दर देखी, रीझ गये; मगर याद रखो स्त्री में सुन्दरता ही सबसे बड़ा गुण नहीं है। मैं तुम्हें हरगिज यह शादी न करने दूंगा।

चक्रधर-मेरा खयाल है कि स्त्री हो या पुरुष, गुण और स्वभाव ही उसमें मुख्य वस्तु हैं। इसके सिवा और सभी बातें गौण हैं।

वज्रधर-तुम्हारे सिर नयी रोशनी का भूत तो नहीं सवार हुआ था। एकाएक यह क्या काया पलट हो गयी?

चक्रधर-मेरी सबसे बड़ी अभिलाषा तो यही है कि आप लोगों की सेवा करता जाऊं, आपकी मरजी के खिलाफ कोई काम न करूं लेकिन सिद्धांत के विषय में मजबूर हूं।

वज्रधर-सेवा करना तो नहीं चाहते मुंह में कालिख लगाना चाहते हो; मगर याद रखो, तुमने यह विवाह किया तो अच्छा न होगा। ईश्वर वह दिन न लाये कि मैं अपने कुल में कलंक लगते देखूं।

चक्रधर-तो मेरा भी यही निश्चय है कि मैं और कहीं विवाह न करूंगा।

यह कहते हुए चक्रधर बाहर चले आये और बाबू यशोदानन्दन को एक पत्र लिखकर सारा किस्सा बयान किया। उसके अन्तिम शब्द ये थे- ‘पिताजी राजी नहीं होते और यद्यपि मैं सिद्धान्त के विषय में उनसे दबना नहीं चाहता; लेकिन उनसे अलग रहने और बुढ़ापे में उन्हें इतना बड़ा सदमा पहुंचाने की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता। मैं बहुत लज्जित होकर आपसे क्षमा चाहता हूं। अगर ईश्वर की यही इच्छा है, तो मैं जीवन पर्यन्त अविवाहित ही रहूंगा, लेकिन यह असम्भव है कि कहीं और विवाह कर लूं।'

इसके बाद उन्होंने दूसरा पत्र अहल्या के नाम लिखा। उसके अन्तिम शब्द ये थे- ‘मैं अपने माता-पिता का वैसा ही भक्त हूं जैसा कोई और बेटा हो सकता है। किन्तु यदि इन भक्ति और आत्मा की स्वाधीनता में विरोध आ पड़े तो मुझे आत्मा की रक्षा करने में जरा भी संकोच न होगा। अगर मुझे यह भय न होता कि माताजी अवज्ञा से रो-रोकर प्राण दे देंगी और पिताजी देश-विदेश मारे-मारे फिरेंगे, तो मैं यह असह्य यातना न सहता। लेकिन मैं सब-कुछ तुम्हारे ही फैसले पर छोड़ता हूं केवल इतनी ही याचना करता हूं कि मुझ पर दया करो।'

Advertisement
Tags :
Advertisement