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मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 6

08:00 PM Feb 22, 2024 IST | Guddu KUmar
मनोरमा   मुंशी प्रेमचंद भाग   6
manorama - munshee premachand
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राजा-यह आप क्या कहते हैं? मैंने सख्त ताकीद कर दी थी कि हर एक मजदूर को इच्छा-पूर्ण भोजन दिया जाय। क्यों दीवान साहब, क्या बात है?

हरसेवक-धर्मावतार, आप इन महाशय की बातों में न आइए। यह सारी आग इन्हीं की लगायी हुई है।

मुंशी-दीनबन्धु, यह लड़का बिलकुल नासमझ है। दूसरों ने जो कुछ कह दिया, उसे सच समझ लेता है।

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मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1

राजा-मैं इसकी पूछ-ताछ करूंगा।

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हरसेवक-हुजूर, इन्हीं लोगों ने आदमियों को उभारकर सरकश बना दिया है। यह लोग सबसे कहते फिरते हैं कि किसी को तुम्हारे ऊपर राज्य करने का अधिकार नहीं है, किसी को तुमसे बेगार लेने का अधिकार नहीं। जमीन के मालिक तुम हो। जो जमीन से बीज उगाये, वही उसका मालिक है। राजा तो तुम्हारा गुलाम है।

राजा-बहुत ठीक कहते हैं। वास्तव में मैं प्रजा का गुलाम हूं बल्कि उसके गुलाम का गुलाम हूं।

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हरसेवक-हुजूर, मैं इन लोगों की बातें कहां तक कहूं। कहते हैं, राजा को इतने बड़े महल में रहने का कोई हक नहीं। उसका संसार में कोई काम ही नहीं।

राजा-बहुत ही ठीक कहते हैं। आखिर मैं पड़े-पड़े खाने के सिवा और क्या करता हूं।

चक्रधर ने झुंझला कर कहा-मैंने प्रजा को उनके अधिकार अवश्य समझाए हैं; लेकिन यह कभी नहीं कहा कि राजा को संसार में रहने का कोई हक नहीं; क्योंकि मैं जानता हूं जिस दिन राजाओं की जरूरत न रहेगी, उस दिन उनका अन्त हो जाएगा।

राजा-मैं तो बुरा नहीं मानता, आपने कोई ऐसी बात नहीं कही, जो और लोग न कहते हों।

चक्रधर को मालूम हुआ कि राजा साहब मुझे बना रहे हैं। गरम होकर बोले -अगर आपके ये भाव सच्चे होते, तो प्रजा पर यह विपत्ति ही न आती। राजाओं की यह पुरानी नीति है कि प्रजा का मन मीठी-मीठी बातों, से भरें और अपने कर्मचारियों को मनमाने अत्याचार करने दें। वह राजा, जिसके कानों तक प्रजा की पुकार न पहुंचने पाये, आदर्श नहीं कहा जा सकता।

राजा-किसी तरह नहीं। उसे गोली मार देनी चाहिए। जीता चुनवा देना चाहिए। प्रजा का गुलाम है कि दिल्लगी।

चक्रधर यह व्यंग्य न सह सके। उनकी स्वाभाविक शक्ति ने उनका साथ छोड़ दिया। चेहरा तमतमा उठा। बोले -जिस आदर्श के सामने आपको सिर झुकाना चाहिए, उसका मजाक उड़ाना आपको शोभा नहीं देता। मैंने कभी यह अनुमान न किया था कि आपके वचन और कर्म में इतनी जल्द इतना बड़ा भेद हो जाएगा।

क्रोध ने अब अपना यथार्थ रूप धारण किया। ‘ राजा साहब अभी तक तो व्यंग्यों से चक्रधर को परास्त करना चाहते थे; लेकिन जब चक्रधर के वार मर्मस्थल पर पड़ने लगे, तो उन्हें भी अपने शस्त्र निकालने पड़े। डपटकर बोले-अच्छा, बाबूजी, अब अपनी जबान बन्द करो। मैं प्रजा का गुलाम नहीं हूं। प्रजा मेरे पैरों की धूल है। मुझे अधिकार है कि उसके साथ जैसा उचित समझूं वैसा सलूक करूं। किसी को हमारे और हमारी प्रजा के बीच में बोलने का हक नहीं है। आप अब कृपा करके यहां से चले जाइए और फिर कभी मेरी रियासत में कदम न रखिएगा; वरना शायद आपको पछताना पड़े। जाइए।

मुंशी वज्रधर की छाती धक- धक करने लगी। चक्रधर को हाथों से पीछे हटाकर बोले-हुजूर की कृपा-दृष्टि ने इसे शोख कर दिया है। अभी तक बड़े आदमियों की सोहबत में बैठने का मौका तो मिला नहीं, बात करने की तमीज कहां से आये।

लेकिन चक्रधर भी जवान आदमी थे, उस पर सिद्धान्तों के पक्के, आदर्श पर मिटने वाले, अधिकार और प्रभुत्व के जानी दुश्मन, वह राजा साहब के उद्दण्ड शब्दों से जरा भी भयभीत न हुए। तने हुए सामने आये और बोले-आपको अपने मुख से ये शब्द निकालते हुए शर्म आनी चाहिए थी। आप प्रजा पर अपने को अर्पण कर देना चाहते थे। आप कहते थे, मैं प्रजा को अपने पास बेरोक-टोक आने दूंगा, उनके लिए मेरे द्वार हरदम खुले रहेंगे। आप कहते थे, ‘ मेरे कर्मचारी उनकी ओर टेढ़ी निगाह से भी देखेंगे, तो उनकी शामत आ जाएगी। वे सारी बातें क्या आपको भूल गयीं? और इतनी जल्द? अभी तो बहुत दिन नहीं गुजरे। अब आप कहते हैं, प्रजा मेरे पैरों की धूल है।

राजा साहब कहां तो क्रोध से उन्मत्त हो रहे थे, कहां यह लगती हुई बात सुनकर रो पड़े। क्रोध निरुत्तर होकर पानी हो जाता है। मगर एक ही क्षण में राजा साहब सचेत हो गये। प्रभुता ने आंसुओं को दबा दिया। अकड़कर बोले-मैं कहता हूं, यहां से चले जाओ।

चक्रधर-जब तक आप इन आदमियों को जाने न देंगे, मैं नहीं जा सकता।

राजा-मेरे आदमियों से तुम्हें कोई सरोकार नहीं है। उनमें से अगर एक भी हिला, तो उसकी लाश जमीन पर होगी।

चक्रधर-तो मेरे लिए इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है कि उन्हें यहां से हटा ले जाऊं?

यह कहकर चक्रधर मजदूरों की ओर चले। राजा साहब जानते थे कि इनका इशारा पाते ही सारे मजदूर हवा हो जायेंगे, फिर सशस्त्र सेना भी उन्हें न रोक सकेगी। तिलमिलाकर बन्दूक लिए हुए चक्रधर के पीछे दौड़े और ऐसे जोर से उन पर कुन्दा चलाया कि सिर पर लगता तो शायद वहीं ठण्डे हो जाते। मगर कुशल हुई। कुन्दा पीछे में लगा और उसके झोंके से चक्रधर कई हाथ पर जा गिरे। उनका जमीन पर गिरना था कि पांच हजार आदमी बाड़े को तोड़कर, सशस्त्र सिपाहियों को चीरते, बाहर निकल आये और नरेशों के कैम्प की ओर चले। रास्ते में जो कर्मचारी मिला, उसे पीटा। मालूम होता था, कैम्प में लूट मच गयी है। दुकानदार अपनी दुकानें समेटने लगे, दर्शकगण अपनी धोतियां संभालकर भागने लगे। चारों तरफ भगदड़ पड़ गयी। जितने बेफिक्रे, शोहदे, लुच्चे तमाशा देखने आए थे, वे सब उपद्रवकारियों में मिल गये। यहां तक कि नरेशों के कैम्प तक पहुंचते-पहुंचते उनकी संख्या दूनी हो गयी।

राजा-रईस अपनी वासनाओं के सिवा किसी के गुलाम नहीं होते। वक्त की गुलामी भी उन्हें पसन्द नहीं। वे किसी नियम को अपनी स्वेच्छा में बाधा नहीं डालने देते। फिर उनको इसकी क्या परवाह कि सुबह है या शाम। कोई मीठी नींद के मजे लेता था, कोई गाना सुनता था, कोई स्नान-ध्यान में मग्न था और लोग तिलक-मंडप जाने की तैयारियां कर रहे थे। कहीं भंग घुटती थी, कहीं कवित्त-चर्चा हो रही थी और कहीं नाच हो रहा था। कोई नाश्ता कर रहा था और कोई लेटा नौकरों से चम्पी करा रहा था। उत्तरदायित्वहीन स्वतन्त्रता अपनी विविध लीलाएं दिखा रही थी। अगर उपद्रवी इस कैम्प में पहुंच जाते, तो महा-अनर्थ हो जाता। न जाने कितने राजवंशों का अंत हो जाता, किन्तु राजाओं की रक्षा उनका इकबाल करता है। अंग्रेजी कैम्प में 10-12 आदमी अभी शिकार खेलकर लौटे थे। उन्होंने जो यह हंगामा सुना, तो बाहर निकल आये और जनता पर अन्धाधुन्ध बंदूकें छोड़ने लगे। पहले तो उत्तेजित जनता ने बन्दूकों की परवाह न की, उसे अपनी संख्या का बल था।

जनता उत्तेजित होकर आदर्शवादी हो जाती है।

गोलियों की पहली बाढ़ आई। कई आदमी गिर गये।

चौधरी-देखो भाई, घबराना नहीं। जो गिरता है उसे गिरने दो, आज ही तो दिल के हौसले निकले हैं। जय हनुमानजी की।

एक मजदूर-बढ़े आओ, बढ़े आओ, अब मार लिया है। आज ही तो….

उसके मुंह से पूरी बात भी न निकलने पाई थी कि गोलियों की दूसरी बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ दोनों नेताओं का काम तमाम कर गयी। एक क्षण के लिए सबके पैर रुक गये। जो जहां था, वहीं खड़ा रह गया। समस्या थी कि आगे जायें या पीछे? सहसा एक युवक ने कहा-मारो, रुक क्यों गये? सामने पहुंचकर हिम्मत छोड़े देते हो। बढ़े चलो। जय दुर्गामाई की।

अंग्रेजी कैम्प से फिर गोलियों की बाढ़ आयी और कई आदमियों के साथ यह आदमी भी गिर गया, और उसके गिरते ही सारे समूह में खलबली पड़ गयी। अभी तक इन लोगों को न मालूम था कि गोलियां किधर से आ रही हैं। समझ रहे थे कि इसी कैम्प से आती होंगी। अब शिकारी लोग बढ़ आये थे और साफ नजर आ रहे थे।

एक चमार बोला-साहब लोग गोली चला रहे हैं। चलो, उन्हीं सबों को पथें? मुर्गी के अंडे खा-खाकर खूब मोटाये हुए हैं।

वे अंग्रेजी कैम्प की तरफ मुड़े और एक ही हल्ले में अंग्रेजी कैम्प के फाटक तक आ पहुंचे। अंग्रेज योद्धा अभी तक तो मोरचे पर खड़े बन्दूकें छोड़ रहे थे: लेकिन इस भयंकर दल को सामने देखकर उनके औसान जाते रहे। दो-चार तो भागे, दो-तीन मूर्छा खाकर गिर पड़े। केवल पांच फौजी अफसर अपनी जगह पर डटे रहे। उन्हें बचने की कोई आशा न थी इसी निराशा ने उन्हें अदम्य साहस प्रदान कर दिया था। सामने पहुंचकर लोगों ने आगे बढ़कर पत्थर चलाने शुरू किये। यहां तक कि अंग्रेज चोट खाकर गिर पड़े। एक का सिर फट गया था, दूसरे की बांह टूट गयी थी। केवल तीन आदमी रह गये थे और वही इन आदमियों को रोक रखने के लिए काफी थे। लेकिन उनके पास भी कारतूस न रह गये थे। इधर हड़तालियों के हौसले बढ़ते जाते थे। शिकार अब बेदम होकर गिरना चाहता था। हिंसा के मुंह से लार टपक रही थी।

सहसा एक आदमी पीछे से भीड़ को चीरता, बेतहाशा दौड़ता हुआ आकर बोला-बस, बस, क्या करते हो। ईश्वर के लिए हाथ रोको। क्या गजब करते हो। लोगों ने चकित होकर देखा, तो चक्रधर थे। सैकड़ों आदमी उन्मत्त होकर उनकी ओर दौड़े और उन्हें घेर लिया। जय-जयकार की ध्वनि से आकाश गूंजने लगा।

एक मजदूर ने कहा-हमें अपने एक सौ भाइयों के खून का बदला लेना है।

चक्रधर ने दोनों हाथ ऊपर उठाकर कहा-कोई एक कदम आगे न बढ़े। खबरदार।

मजदूर-यारों, बस, एक हल्ला और।

चक्रधर-हम फिर कहते हैं, अब एक कदम भी आगे न उठे।

जिले के मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम ने कहा-बाबू साहब, खुदा के लिए हमें बचाइए।

फौज के कप्तान मिस्टर सिम बोले-हम हमेशा आपको दुआ देगा। हम सरकार से आपका सिफारिश करेगा।

एक मजदूर-हमारे एक सौ जवान भून डाले, तब आप कहां थे? यारों, क्या खड़े हो, बाबूजी का क्या बिगड़ा है। मारे तो हम गये हैं न? मारो बढ़ के।

चक्रधर ने उपद्रवियों के सामने खड़े होकर कहा-अगर तुम्हें खून की ऐसी प्यास है, तो मैं हाजिर हूं। मेरी लाश को पैरों से कुचलकर तभी तुम आगे बढ़ सकते हो।

मजदूर-भैया, हट जाओ, हमने बहुत मार खाई है, बहुत सताये गए हैं, इस वक्त दिल की आग बुझा लेने दो!

चक्रधर-मेरा लहू इस ज्वाला को शान्त करने के लिए काफी नहीं है?

मजदूर-भैया, तुम सान्त-सान्त बका करते हो; लेकिन उसका फल क्या होता है। हमें जो चाहता है, मारता है; जो चाहता है, पीसता है; तो क्या हमी सान्त बैठे रहें? सान्त रहने से तो और भी हमारी दुर्गत होती है। हमें सान्त रहना मत सिखाओ। हमें मरना सिखाओ, तभी हमारा उद्धार कर सकोगे।

चक्रधर-अगर अपनी आत्मा की हत्या करके हमारा उद्धार भी होता हो तो हम आत्मा की हत्या न करेंगे। संसार को मनुष्य ने नहीं बनाया है, ईश्वर ने बनाया है। भगवान ने उद्धार के जो उपाय बताये हैं, उनसे काम लो और ईश्वर पर भरोसा रखो।

मजदूर-हमारी फांसी तो हो ही जाएगी। तुम माफी तो न दिला सकोगे।

मिस्टर जिम-हम किसी को सजा न देंगे।

चक्रधर-इनाम मिले या फाँसी, इसकी क्या परवाह। अभी तक तुम्हारा दामन खून के छींटों से पाक है, उसे पाक रखो। ईश्वर की निगाह में तुम निर्दोष हो। अब अपने को कलंकित मत करो, जाओ।

मजदूर-अपने भाइयों का खून कभी हमारे सिर से न उतरेगा; लेकिन तुम्हारी यही मरजी है, लौट जाते हैं। आखिर फाँसी पर तो चढ़ना ही है।

एक क्षण में सारा कैम्प साफ हो गया। एक भी मजदूर न रह गया।

इन आदमियों के जाते ही वे लोग भी इनके साथ हो लिये, जो पहले लूट के लालच से चले आये थे। जिस तरह पानी आ जाने से कोई मेला उठ जाता है ग्राहक, दुकानदार और दुकानें सब न जाने कहां लुप्त हो जाती हैं, उसी भांति एक क्षण में सारे कैम्प में सन्नाटा छा गया। केवल तिलक-मण्डप से अभी तक आग की ज्वाला निकल रही थी। राजा साहब और उनके साथ के कुछ गिने-गिनाये आदमी उसके सामने चुपचाप खड़े मानो किसी मृतक की दाह-क्रिया कर रहे हों।

अंधेरा छा गया था। घायलों के कराहने की आवाजें आ रही थीं। चक्रधर और उसके साथ के युवक उन्हें सावधानी से उठा-उठाकर एक वृक्ष के नीचे जमा कर रहे थे। कई आदमी तो उठाते-उठाते सुरलोक सिधारे। कुछ सेवक उन्हें ले जाने की फिक्र करने लगे।

एकाएक कई सिपाहियों ने आकर चक्रधर को पकड़ लिया और अंग्रेजी कैम्प की तरफ ले चले। पूछा, तो मालूम हुआ कि जिम साहब का यह हुक्म है।

वहां कचहरी लगी हुई थी। सशस्त्र पुलिस के सिपाही, जिन्हें अब लूट से फुरसत मिल चुकी थी, द्वार पर संगीनें चढ़ाये खड़े थे। अन्दर मिस्टर जिम और मिस्टर सिम रौद्र रूप धारण किये सिगार पी रहे थे, मानो क्रोधाग्नि मुंह से निकल रही हो। राजा साहब मिस्टर जिम के बगल में बैठे थे। दीवान साहब क्रोध से आंखें लाल किये मेज पर हाथ रखे हुए कुछ कह रहे थे और मुंशी वज्रधर हाथ बांधे एक कोने में खड़े थे।

चक्रधर को देखते ही मिस्टर जिम ने कहा-राजा साहब कहता है कि यह सब तुम्हारी शरारत है।

चक्रधर आवेश में आकर बोले-अगर राजा साहब, आपका ऐसा विचार है, तो इसका मुझे दुःख है। हम लोग जनता में जागृति अवश्य फैलाते हैं, उनमें शिक्षा का प्रचार करते हैं, उन्हें स्वार्थान्ध अमलों के फन्दों से बचाने का उपाय करते है और उन्हें अपने आत्मसम्मान की रक्षा करने का उपदेश दे देते हैं। हम चाहते है कि मनुष्य बने और मनुष्यों की भांति संसार में रहें। वे स्वार्थ के दास बनकर कर्मचारियों की खुशामद न करें, भयवश अपमान और अत्याचार न सहे। अगर इसे कोई भड़काना समझता है, तो समझे। हम तो इसे अपना कर्तव्य समझते हैं।

जिम-तुम्हारे उपदेश का यह नतीजा देखकर कौन कह सकता है कि तुम उन्हें नहीं भड़काता?

चक्रधर-यहां उन आदमियों पर अत्याचार हो रहा था और उन्हें यहां से चले जाने का या काम न करने का अधिकार था। अगर उन्हें शांति के साथ चले जाने दिया जाता, तो यह नौबत कभी न आती।

राजा-हमें परम्परा से बेगार लेने का अधिकार है और उसे हम नहीं छोड़ सकते। आप असामियों को बेगार देने से मना करते है, और आज के हत्याकाण्ड का सारा भार आपके ऊपर है।

चक्रधर-कोई अन्याय केवल इसलिए मान्य नहीं हो सकता कि लोग उसे परम्परा से सहते आए हैं।

जिम-हम तुम्हारे ऊपर बगावत का मुकद्दमा चलायेगा। तुम डेंजरस (खतरनाक) आदमी है।

राजा-हुजूर, मैं इनके साथ कोई सख्ती नहीं करना चाहता, केवल यह प्रतिज्ञा लिखाना चाहता हूं कि यह अथवा इनके सहकारी लोग मेरी रियासत में न जायें।

चक्रधर-मैं ऐसी प्रतिज्ञा नहीं कर सकता। दीनों पर अत्याचार होते देखकर दूर खड़े रहना वह दशा है, जो हम किसी तरह नहीं सह सकते।

मिस्टर जिम ने सब-इन्स्पेक्टर से कहा-इनको हवालात में रखो, कल इजलास पर पेश करो।

वज्रधर ने आगे बढ़कर जिम के पैरों पर पगड़ी रख दी और बोले-हुजूर, यह गुलाम का लड़का है। हुजूर, इसकी जांबख्शी करें।

मिस्टर जिम-ओ! तहसीलदार साहब यह तुम्हारा लड़का है? तुमने उसको घर से निकाल क्यों नहीं दिया? सरकार तुमको इसलिए पेंशन नहीं देता कि तुम बागियों को पाले। हम तुम्हारा पेंशन बन्द कर देगा।

राजा-बाबू चक्रधर, अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। आप प्रतिज्ञा लिखकर शौक से घर जा सकते हैं। मैं आपको तंग नहीं करना चाहता। हां, इतना ही चाहता हूं कि फिर हंगामे न खड़े हों।

चक्रधर-राजा साहब, क्षमा कीजिएगा, जब तक असन्तोष के कारण दूर न होंगे, ऐसी दुर्घटनाएं होंगी और फिर होंगी। मुझे आप पकड़ सकते हैं, कैद कर सकते हैं। इससे चाहे आपको शान्ति हो; पर वह असन्तोष अणुमात्र भी कम न होगा, जिससे प्रजा का जीवन असह्य हो गया है। असन्तोष को भड़काकर आप प्रजा को शांत नहीं कर सकते। हां, कायर बना सकते हैं। अगर आप उन्हें कर्महीन, बुद्धिहीन, पुरुषार्थहीन, मनुष्य का तन धारण करने वाले सियार और सुअर बनाना चाहते हैं, तो बनाइए; पर इससे न आपकी कीर्ति होगी, न ईश्वर प्रसन्न होंगे और न स्वयं आपकी आत्मा ही तुष्ट होगी।

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