मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 7
संध्या हो गयी है। ऐसी उमस है कि सांस लेना कठिन है, और जेल की कोठरियों में यह उमस और भी असह्य हो गई है। एक भी खिड़की नहीं, एक भी जंगला नहीं। उस पर मच्छरों का निरन्तर गान कानों के परदे फाड़े डालता है।
यहीं एक कोठरी में चक्रधर को भी स्थान दिया गया है। स्वाधीनता की देवी अपने सच्चे सेवकों को यही पद प्रदान करती है।
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वह सोच रहे हैं-यह भीषण उत्पात क्यों हुआ? हमने कभी भूलकर भी किसी से यह प्रेरणा नहीं की। फिर लोगों के मन में यह बात कैसे समायी? इस प्रश्न का उन्हें यही उत्तर मिल रहा है कि यह हमारी नीयत का नतीजा है। हमारी शांति-शिक्षा की तह में द्वेष छिपा हुआ था। हम भूल गए थे कि संगठित शक्ति आग्रहमय होती है; अत्याचार से उत्तेजित हो जाती है। अगर हमारी नीयत साफ होती, तो जनता के मन में कभी राजाओं का चढ़ दौड़ने का आवेश न होता; लेकिन क्या जनता राजाओं के कैम्प की तरफ न जाती, तो पुलिस उन्हें बिना रोक-टोक अपने घर जाने देती कभी नहीं, सवार के लिए घोड़े का अड़ जाना या बिगड़ जाना एक बात है। जो छेड़-छेड़कर लड़ना चाहे, उससे कोई क्योंकर बचे? फिर, अगर प्रजा अत्याचार का विरोध न करे, उसके संगठन से फायदा ही क्या? इसलिए तो उसे सारे उपदेश दिए जाते हैं। कठिन समस्या है। या तो प्रजा को उनके हाल पर छोड़ दूं उन पर कितने ही जुल्म हों, उनके निकट न जाऊं या ऐसे उपद्रवों के लिए तैयार रहूं। राज्य पशु-बल का प्रत्यक्ष रूप है। वह साधु नहीं है, जिसका बल धर्म है; वह विद्वान नहीं है, जिसका बल तर्क है। वह सिपाही है जो डण्डे के जोर से अपना स्वार्थ सिद्ध कराता है। इसके सिवा उनके पास कोई दूसरा साधन ही नहीं।
यह सोचते-सोचते उन्हें अपना खयाल आया। मैं तो कोई आन्दोलन नहीं कर रहा था। किसी को भड़का नहीं रहा था। जिन लोगों की प्राणरक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, वही मेरे साथ यह सलूक कर रहे हैं। इतना भी नहीं देख सकते कि जनता पर किसी का असर हो। उनकी इच्छा इसके सिवा और क्या है कि सभी आदमी अपनी-अपनी आंखें बन्द कर रखें उन्हें अपने आगे-पीछे, दायें-बायें देखने का हक नहीं। अगर सेवा करना पाप है, तो यह पाप तो मैं उस वक्त तक करता रहूंगा, जब तक प्राण रहेंगे। जेल की क्या चिन्ता? सेवा करने के लिए सभी जगह मौके हैं। जेल में तो और भी ज्यादा। लालाजी को दुःख होगा, अम्माजी रोयेगी; लेकिन मजबूरी है। जब बाहर भी जबान और हाथ-पांव बांधे जाएंगे, तो जैसे जेल वैसे बाहर। वह भी जेल ही है। हां, जरा उसका विस्तार अधिक है। मैं किसी तरह प्रतिज्ञा नहीं कर सकता।
वह इसी सोच-विचार में पड़े हुए थे कि एकाएक मुंशी वज्रधर कमरे में दाखिल हुए। उनकी देह पर एक पुरानी अचकन थी, जिसका मैल उसके असली रंग को छिपाये हुए था। नीचे एक पतलून था, जो कमरबन्द न होने के कारण खिसकर इतना नीचा हो गया था कि घुटनों के नीचे एक झोला-सा पड़ गया था। संसार में कपड़े से ज्यादा बेवफा और कोई वस्तु नहीं होती। तहसीलदार साहब चक्रधर के पास जाकर बोले-क्या करते हो, बेटा? यहां तो बड़ा अंधेरा है। चलो, बाहर इक्का खड़ा है; बैठ लो। इधर ही से साहब के बंगले पर होते चलेंगे। जो कुछ वह कहें लिख देना। बात ही कौन-सी है। हमें कौन किसी से लड़ाई करनी है। कल ही से दौड़ लगा रहा हूं। बारे आज दोपहर को जा के सीधा हुआ। पहले बहुत यों-त्यों करता रहा, लेकिन मैंने पिंड न छोड़ा। या वहां न चलना चाहो, तो यहीं एक हलफनामा लिख दो। देर करने से क्या फायदा। तुम्हारी अम्मा रो-रोकर जान दे रही हैं।
चक्रधर ने सिर नीचा करके कहा-अभी तो मैंने कुछ निश्चय नहीं किया सोचकर जवाब दूंगा। आप नाहक इतने हैरान हुए।
वज्रधर-कैसी बातें करते हो, बेटा? यहां नाक कटी जा रही है, घर से निकलना मुश्किल हो गया है और तुम कहते हो सोचकर जवाब दूंगा। इसमें सोचने की बात ही क्या है? चलो; हलफनामा लिख दो। घर में कल से आग नहीं जली।
चक्रधर-मेरी आत्मा किसी तरह अपने पांव में बेड़िया डालने पर राजी नहीं होती।
चक्रधर जब प्रतिज्ञा-पत्र पर हस्ताक्षर करने को राजी न हुए, तो मुंशीजी निराश होकर बोले-अच्छा बेटा, लो, अब कुछ न कहेंगे। मैं तो जानता था कि तुम जन्म के जिद्दी हो, मेरी एक न सुनोगे, इसीलिए आता ही न था; लेकिन तुम्हारी माता ने मुझे कुरेद-कुरेद कर भेजा। कह दूंगा, नहीं आता। जितना रोना हो, रो लो।
कठोर-से-कठोर हृदय में भी मातृ -स्नेह की कोमल स्मृतियां संचित होती है। चक्रधर कातर होकर बोले - आप माताजी को समझाते रहियेगा। कह दीजिएगा, मुझे जरा भी तकलीफ नहीं है।
वज्रधर ने इतने दिनों तक यों तहसीलदारी न की थी। ताड़ गये कि अबकी निशाना ठीक पड़ा। बेपरवाई से बोले -मुझे क्या गरज पड़ी है कि किसी के लिए झूठ बोलूं। जो आंखों से देख रहा हूं वही कहूंगा। रोएंगी, रोये; रोना तो उसकी तकदीर ही में लिखा है। जब से तुम आये हो, एक घूंट पानी तक मुंह में नहीं डाला। इसी तरह दो-चार दिन और रही, तो प्राण निकल जायेंगे।
चक्रधर करुणा से विह्वल हो गये। बिना कुछ कहे हुए मुंशीजी के साथ दफ्तर की ओर चले। मुंशीजी के चेहरे की झुर्रियां एक क्षण के लिए मिट गयीं। चक्रधर को गले लगाकर बोले-जीते रहो बेटा, तुमने मेरी बात मान ली। इससे बढ़कर और क्या खुशी की बात होगी।
दोनों आदमी दफ्तर में आये, तो जेलर ने कहा-क्या आप इकरार-नामा लिख रहे है? निकल गयी सारी शेखी! इसी पर इतनी दूने की लेते थे।
चक्रधर पर घड़ों पानी पड़ गया। मन की अस्थिरता पर लज्जित हो गये। जाति-सेवकों से सभी दृढ़ता की आशा रखते हैं, सभी उसे आदर्श पर बलिदान होते देखना चाहते हैं। जातीयता के क्षेत्र में आते ही उसके गुणों की परीक्षा अत्यन्त कठोर नियमों से होने लगती है और दोषों की सूक्ष्म नियमों से। परले सिरे का कुचरित्र मनुष्य भी साधुवेश रखने वालों से ऊंचे आदर्श पर चलने की आशा रखता है; और उन्हें आदर्श से गिरते देखकर उनका तिरस्कार करने में आशा रखता है, और उन्हें आदर्श से गिरते देखकर जेलर द्वारा कही हुई बातें चक्रधर आंखें खोल दीं। तुरन्त उत्तर दिया-मैं जरा वह प्रतिज्ञा-पत्र देखना चाहता हूं।
चक्रधर ने कागज को सरसरी तौर से देखकर कहा-इसमें तो मेरे लिए कोई जगह ही नहीं रही। घर पर कैदी ही बना रहूंगा। जब कैद ही होना है, तो कैदखाना क्या बुरा है? अब या तो अदालत से बरी होकर आऊंगा, या सजा के दिन काटकर।
यह कहकर चक्रधर अपनी कोठरी में चले आये।
एक सप्ताह के बाद मिस्टर जिम के इजलास में मुकदमा चलने लगा।
अदालत में रोज खासी भीड़ हो जाती। वे सब मजदूर, जिन्होंने हड़ताल की थी, एकबार चक्रधर के दर्शनों को आ जाते। शहर में हजारों आदमी आ पहुंचते थे। कभी-कभी राजा विशालसिंह भी आकर दर्शकों की गैलरी में बैठ जाते। लेकिन और कोई आये न आये, किन्तु मनोरमा रोज ठीक दस बजे कचहरी में आ जाती और अदालत के उठने तक अपनी जगह पर मूर्ति की भांति बैठी रहती। उसके मुख पर दृढ़ संकल्प, विशाल करुणा, अलौकिक धैर्य और गहरी चिन्ता का फीका रंग छाया हुआ था।
सन्ध्या का समय था। आज पूरे 15 दिनों की कार्रवाई के बाद मिस्टर जिम ने दो साल की कैद का फैसला सुनाया था। यह कम-से-कम सजा थी, जो उस धारा के अनुसार दी जा सकती थी।
चक्रधर हंस-हंसकर मित्रों से विदा हो रहे थे। सबकी आंखों में जल भरा हुआ था। मजूदरों का दल इजलास के द्वार पर खड़ा जय-जय का शोर मचा रहा था। कुछ स्त्रियां खड़ी रो रही थीं। सहसा मनोरमा आकर चक्रधर के सम्मुख खड़ी हो गयी। उसके हाथ में फूलों का एक हार था। वह उसने उनके गले में डाल दिया और बोली-अदालत ने तो आपको सजा दे दी, पर इतने आदमियों में एक भी ऐसा न होगा, जिसके दिल में आपसे सौगुना प्रेम न हो गया हो। आपने हमें सच्चे साहस, सच्चे आत्म-बल और सच्चे कर्त्तव्य का रास्ता दिखा दिया। जाइए, जिस काम का बीड़ा उठाया है, उसे पूरा कीजिए, हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
चक्रधर ने केवल दबी आंखों से मनोरमा को देखा, कुछ बोल न सके। उन्हें शर्म आ रही थी कि लोग दिल में क्या खयाल कर रहे होंगे। सामने राजा विशालसिंह, दीवान साहब, ठाकुर गुरु हरसेवक और मुंशी वज्रधर खड़े थे। बरामदे में हजारों आदमियों की भीड़ थी। धन्यवाद के शब्द उनकी जबान पर आकर रुक गये। वह दिखाना चाहते थे कि मनोरमा की यह वीर-भक्ति उसकी बालक्रीड़ा मात्र है।
एक क्षण में सिपाहियों ने चक्रधर को बन्द गाड़ी में बिठा दिया और जेल की ओर ले चले।
चक्रधर की गिरफ्तारी के दूसरे दिन मनोरमा, राजा विशालसिंह को फटकार सुनाने गई थी। उसकी दोनों आंखें बीर बहूटी हो रही थी, भवें चढ़ी हुई उस समय राजा साहब कोप-भवन में मारे क्रोध से अपनी मूंछें ऐंठ रहे थे। सारे राजमहल में सन्नाटा था। मनोरमा उनके सामने चली गई और उन्हें सरोष नेत्रों से ताकती हुई बोली-उसका कण्ठ आवेश से कांप रहा था-महाराज! मैं आपसे यह पूछने आई हूं कि क्या प्रभुता और पशुता एक ही वस्तु है, या उनमें कुछ अन्तर है? मुझे आश्चर्य होता है कि जिन्हें मैं देवता समझती हूं उन पर आपके हाथ क्योंकर उठे?
मनोरमा के मान-प्रदीप्त सौन्दर्य ने राजा साहब को परास्त कर दिया। सौन्दर्य के सामने प्रभुत्व भीगी बिल्ली बन गया। विशालसिंह ने अपने कृत्य पर पश्चात्ताप करते हुए कहा-मनोरमा, बाबू चक्रधर वीरात्मा हैं और उनके साथ मैंने जो अन्याय किया है, उसका मुझे जीवन पर्यन्त दुःख रहेगा।
मनोरमा के सौन्दर्य ने राजा साहब पर जो जादू का-सा असर डाला था वही असर उनकी विनय और शालीनता ने मनोरमा पर किया। जब वह कमरे से चली गयी तो विशालसिंह द्वार पर खड़े उसकी ओर ऐसे तृषित नेत्रों से देखते रहे, मानों उसे पी जायेंगे। उनके हृदय में एक विचित्र आकांक्षा अंकुरित हुई।
दीवान साहब से पहले वह खिंचे रहते थे। उनका विशेष आदर-सत्कार करने लगे। दो-तीन बार उनके मकान पर भी गए और ठाकुर साहब की भी कई बार दावत की। आपस में घनिष्ठता बढ़ने लगी। हर्ष की बात यह थी कि मनोरमा के विवाह की बातचीत और कहीं नहीं हो रही थी। मैदान खाली था। इन अवसरों पर मनोरमा उनके साथ कुछ इस तरह दिल खोलकर मिली कि राजा साहब की आशाएं और भी चमक उठीं। हां, अगर शंका थी, तो लौंगी की ओर से थी। वह राजा साहब का आना-जाना पसन्द न करती थी। वह उनके इरादों को भांप गयी थी और उन्हें दूर ही रखना चाहती थी। यही एक कंटक था और उसे हटाये बिना वह अपने लक्ष्य पर न पहुंच सकते थे। बेचारे इसी उधेड़-बुन में पड़े रहते थे। आखिर उन्होंने मुंशीजी को अपना भेदिया बनाना निश्चय किया।
दूसरे दिन प्रातःकाल मुंशीजी दीवान साहब के मकान पर पहुंचे। दीवान साहब मनोरमा के साथ गंगा-स्नान को गये हुए थे। लौंगी अकेली बैठी हुई थी। मुंशीजी फूले न समाये। ऐसा ही मौका चाहते थे। जाते-ही-जाते विवाह की बात छेड़ दी। लौंगी को यह सम्बन्ध किसी भी तरह स्वीकार नहीं था। अभी बातचीत हो ही रही थी कि दीवान साहब स्नान करके लौट आये।
लौंगी ने इशारे से उन्हें एकान्त में ले जाकर सलाह की। थोड़ी देर बाद दीवान साहब ने आकर मुंशीजी से कहा-आप राजा साहब से जाकर कह दीजिए कि हमें विवाह करना मंजूर नहीं।
मुंशीजी ने सोचा, अगर राजा साहब से कहे देता हूं कि दीवान साहब ने साफ इनकार कर दिया, तो मेरी किरकिरी होती है। इसलिए आपने जाकर दून हांकनी शुरू की-हुजूर, बुढ़िया बला कि चुड़ैल है; हत्थे पर तो आती ही नहीं, इधर भी झुकती है, उधर भी; और दीवान साहब तो निरे मिट्टी के ढेले हैं।
राजा साहब ने अधीर होकर पूछा-आखिर आप तय क्या कर आये?
मुंशी- हुजूर के एकबाल से फतह हुई, मगर दीवान साहब खुद आप से शादी की बातचीत करते झेंपते हैं। आपकी तरफ से बातचीत शुरू हो, तो शायद उन्हें इनकार न हो।
राजा-तो मैं बातचीत शुरू कर देता हूं। आज ही ठाकुर साहब की दावत करूंगा और मनोरमा को भी बुलाऊंगा। आप भी जरा तकलीफ कीजिएगा।
दावत में राजा साहब ने मौका पाकर मनोरमा पर अपनी अभिलाषा प्रकट की। पहले तो वह सहमी-सी खड़ी रही, फिर बोली-पिताजी से तो अभी आपकी बातें नहीं हुई।
राजा-अभी तो नहीं, मनोरमा! अवसर पाते ही करूंगा, पर कहीं उन्होंने इनकार कर दिया तो?
मनोरमा-मेरे भाग्य का निर्णय वही कर सकते हैं। मैं उनका अधिकार नहीं छीनूंगी।
दोनों आदमी बरामदे में पहुंचे, तो मुंशीजी और दीवान साहब खड़े थे मुंशीजी ने राजा साहब से कहा-हुजूर को मुबारकबाद देता हूं।
दीवान-मुंशीजी
मुंशी-हुजूर, आज जलसा होना चाहिए। (मनोरमा से) महारानी आपका सोहाग सदा सलामत रहे।
दीवान-जरा मुझे सोच…
मुंशी-जनाब, शुभ काम में सोच-विचार कैसा। भगवान जोड़ी सलामत रखें!
सहसा बाग में बैंड बजने लगा और राजा के कर्मचारियों का समूह इधर-उधर से आ-आकर राजा साहब को मुबारकबाद देने लगा। दीवान साहब सिर झुकाये खड़े थे। न कुछ कहते बनता था, न सुनते। दिल में मुंशीजी को हजारों गालियां दे रहे थे कि इसने मेरे साथ कैसी चाल चली! आखिर यह सोचकर दिल को समझाया कि लौंगी से सब हाल कह दूंगा। भाग्य में यही बदा था, तो मैं करता क्या? मनोरमा भी तो खुश है।
ज्यों ही ठाकुर साहब घर पहुंचे, लौंगी ने पूछा-वहां, क्या बातचीत हुई?
दीवान-शादी ठीक हो गई और क्या?
सुनकर लौंगी ने अपना कपार पीट लिया। उसे दीवान साहब पर बड़ा क्रोध आया। उन्हें खूब खरी-खरी सुनाई। मुंशीजी की भी सात पुश्तों की खबर ले डाली। लेकिन शादी तो ठीक हो ही गई थी। अब बात फेरी नहीं जा सकती थी इसलिए लौंगी मन मारकर उसी दिन से विवाह की तैयारियां करने लगी।
यों तीन महीने तैयारियों में गुजर गए। विवाह का मुहूर्त निकट आ गया सहसा एक दिन शाम को खबर मिली कि जेल में दंगा हो गया और चक्रधर के कन्धे में गहरा घाव लगा है। बचना मुश्किल है।
मनोरमा के विवाह की तैयारियां तो हो ही रही थी और यों भी देखने में वह बहुत खुश नजर आती थी; पर उसका हृदय सदैव रोता रहता था। कोई अज्ञात भय, कोई अलक्षित वेदना, कोई अतृप्त कामना, कोई गुप्त चिन्ता, हृदय को मथा करती थी। अंधों की भांति इधर-उधर टटोलती थी; पर न चलने का मार्ग मिलता था, न विश्राम का आधार। उसने मन में एक बात निश्चय की थी और उसी में सन्तुष्ट रहना चाहती थी, लेकिन कमी-कभी वह जीवन इतना शून्य, इतना अंधेरा, इतना नीरस मालूम होता कि घण्टों यह मूर्छित-सी बैठी रहती, मानो कहीं कुछ नहीं है, अनन्त आकाश में केवल वही अकेली है।
यह भयानक समाचार सुनते ही मनोरमा को हौलदिल-सा हो गया। आकर लौंगी से बोली-लौंगी अम्मा, मैं क्या करूं? बाबूजी को देखे बिना अब नहीं रहा जाता। क्यों अम्मा, घाव अच्छा हो जायगा न?
लौंगी ने करुण नेत्रों से देखकर कहा-अच्छा क्यों न होगा, बेटी! भगवान् चाहेंगे तो जल्द अच्छा हो जाएगा।
लौंगी मनोरमा के मनोभाव को जानती थी। उसने सोचा, इस अबला को कितना दुःख है। मन-ही-मन तिलमिला कर रह गयी। हाय! चारे पर गिरने वाली चिड़िया को मोती चुगाने की चेष्टा की जा रही है। तड़प-तड़पकर पिंजड़े में प्राण देने के सिवा वह और क्या करेगी! मोती में जो चमक है, वह अनमोल है; लेकिन उसे कोई खा तो नहीं सकता। उसे गले में बांध लेने से क्षुधा तो न मिटेगी।