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मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 8

08:00 PM Feb 27, 2024 IST | Guddu KUmar
मनोरमा   मुंशी प्रेमचंद भाग   8
manorama - munshee premachand
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चक्रधर को जेल में पहुंचकर ऐसा मालूम हुआ कि वह नयी दुनिया में आ गये। उन्हें ईश्वर के दिये हुए वायु और प्रकाश के मुश्किल से दर्शन होते थे। भोजन ऐसा मिलता था, जिसे शायद कुत्ते भी सूंघकर छोड़ देते। वस्त्र ऐसे, जिन्हें कोई भिखारी पैरों से ठुकरा देता, और परिश्रम इतना करना पड़ता था जितना बैल भी न कर सके। जेल शासन का विभाग नहीं, पाशविक व्यवसाय है। आदि से अन्त सारा व्यापार घृणित, जघन्य पैशाचिक और निन्द्य है। अनीति की भी अक्ल यहां दंग है, दुष्टता भी यहां दांतों तले उंगली दबाती है।

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मगर कुछ ऐसे भी भाग्यवान हैं, जिनके लिए ये जेल कल्प-वृक्ष से कम नहीं। बैल अनाज पैदा करता है, तो अनाज का भूसा खाता है। कैदी बैल से भी गया-गुजरा है। वह नाना प्रकार के शाक-भाजी और फल-फूल पैदा करता है; पर सब्जी, फल और फूलों से भरी हुई डालियां हुक्काम के बंगलों पर पहुंच जाती हैं। कैदी देखता है और किस्मत ठोंक कर रह जाता है।

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चक्रधर को चक्की पीसने का काम दिया गया। प्रातःकाल गेहूं तौलकर दे दिया जाता और संध्या तक उसे पीसना जरूरी था। कोई उज्र या बहाना न सुना जाता था। बीच में केवल एक बार खाने की छुट्टी मिलती थी। इसके बाद फिर चक्की में जुत जाना पड़ता था। वह बराबर सावधान रहते थे कि किसी कर्मचारी को कुछ कहने का मौका न मिले, लेकिन गालियों में बातें करना जिनकी आदत हो गयी हो, उन्हें कोई क्योंकर रोकता।

किन्तु विपत्ति का अन्त यहीं तक न था। कैदी लोग उन पर ऐसे अश्लील, ऐसी अपमानजनक आवाजें कसते थे कि क्रोध और घृणा से उनका रक्त खौल उठता, पर लहू का घूंट पीकर रह जाते थे। उनके कमरे में पांच कैदी रहते थे। उनमें धन्नासिंह नाम का एक ठाकुर भी था, बहुत ही बलिष्ठ और गजब का शैतान। वह उनका नेता था। वे सब इतना शोर मचाते, इतनी गंदी, घृणोत्पादक बातें करते कि चक्रधर को कानों में उंगलियां डालनी पड़ती थी। हुक्म तो यह था कि कोई कैदी तम्बाकू भी न पीने पाये, पर यहां गांजा, भंग, शराब, अफीम-यहां तक कि कोकेन भी न जाने किस तिकड़म से पहुंच जाते थे। नशे में वे इतने उद्दण्ड हो जाते, मानो नर-तनधारी राक्षस हो।

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धीरे - धीरे चक्रधर को इन आदमियों से सहानुभूति होने लगी। सोचा इन परिस्थितियों में पड़कर ऐसा कौन प्राणी है, जिसका पतन न हो जायेगा। उन्हें सभी श्रेणी के मनुष्यों से साबिका पड़ चुका था, पर ऐसे निर्लज्ज, गालियां खाकर हंसने वाले, दुर्व्यसनों में डूबे हुए, मुंहफट, बेहया आदमी उन्होंने अब तक न देखे थे। उन्हें न गालियों की लाज थी, न मार का भय। कभी-कभी उन्हें ऐसी-ऐसी अस्वाभाविक ताड़नाए मिलती थीं कि चक्रधर के रोएं खड़े हो जाते थे, मगर क्या मजाल कि किसी कैदी की आंखों में आंसू आयें। यह व्यवहार देखकर चक्रधर अपने कष्टों को भूल जाते थे। कोई कैदी उन्हें गाली देता, तो चुप हो जाते और इस ताक में रहते थे कि कब इसके साथ सज्जनता दिखाने का अवसर मिले।

चक्रधर का जीवन कभी इतना आदर्श न था। कैदियों को मौका मिलने पर धर्म कथाएं सुनाते। इस कथाओं को कैदी लोग इतने चाव से सुनते, मानो एक-एक शब्द उनके हृदय पर अंकित हो जाता था; किन्तु इनका असर बहुत जल्दी मिट जाता था, इतनी जल्दी कि आश्चर्य होता था। उधर कथा हो रही है और इधर लात-मुक्के चल रहे हैं। कभी कभी वे इन कथाओं पर अविश्वास-पूर्ण टीकाएं करते और बात हंसी में उड़ा देते। पर अभिव्यक्तिपूर्ण आलोचनाएं सुनकर भी चक्रधर हताश न होते। शनैः-शनैः उनकी भक्ति-चेतना स्वयं अदृश्य होती जाती थी।

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इस भांति कई महीने गुजर गये। एक दिन संध्या समय चक्रधर दिनभर के कठिन श्रम के बाद बैठे संध्या कर रहे थे कि कई कैदी आपस में बातें करते हुए निकले -आज इस दारोगा की खबर लेनी चाहिए। जब देखो, गालियां दिया करता है। ऐसा मारो कि जन्म भर को दाग हो जाय! यही न होगा कि साल-दो साल की मियाद और बढ़ जाएगी। बच्चा की आदत तो छूट जाएगी। चक्रधर इस तरह की बातें अकसर सुनते रहते थे, इसलिए उन्होंने इस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया, मगर भोजन करने के समय ज्यों ही दारोगा साहब आकर खड़े हुए और एक कैदी को देर में आने के लिए मारने दौड़े कि कई कैदी चारों तरफ से दौड़ पड़े और मारो-मारो का शोर मच गया। दारोगाजी की सिट्टी-पिट्टी भूल गयी। सहसा धन्नासिंह ने आगे बढ़कर दारोगाजी की गरदन पकड़ी और इतनी जोर से दबायी कि उनकी आंखें निकल आयीं। चक्रधर ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है, तो तीर की तरह झपटे, कैदियों के बीच में घुसकर धन्नासिंह का हाथ पकड़ लिया और बोले-क्या करते हो?

धन्नासिंह-हट जाओ सामने से, नहीं तो सारा बाबूपन निकाल दूंगा। पहले इससे पूछो, अब तो किसी को गलियां न देगा, मारने तो न दौड़ेगा?

दारोगा-कसम कुरान की, जो कभी मेरे मुंह से गाली का एक हरफ भी निकले।

धन्नासिह-कान पकड़ो।

दारोगा-कान पकड़ता हूं।

धन्नासिंह-जाओ बच्चा, भले का मुंह देखकर उठे थे, नहीं तो आज जान न बचती, यहां कौन कोई रोने वाला बैठा हुआ है।

चक्रधर-दारोगाजी, कहीं ऐसा न कीजिएगा कि जाकर वहां से सिपाहियों को चढ़ा लाइए और इन गरीबों को भुनवा डालिए।

दारोगा-लाहौल विलाकूवत! इतना कमीना नहीं हूं।

दारोगाजी तो यहां से जान बचाकर भागे, लेकिन दफ्तर में जाते ही गारद के सिपाहियों को ललकारा, हाकिम जिला को टेलीफोन किया और खुद बन्दूक लेकर समर के लिए तैयार हुए। दम-के-दम में सिपाहियों का दल संगीनें चढ़ाए आ पहुंचा और लपककर भीतर घुस पड़ा।

चक्रधर पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी। उन्होंने आगे बढ़कर कहा-दारोगाजी, आखिर आप क्या चाहते हैं? इन गरीबों को क्यों घेर रखा है।

दारोगा ने सिपाहियों की आड़ से कहा--यही उन सब बदमाशों का सरगना है। इसे गिरफ्तार कर लो। बाकी जितने हैं उन्हें खूब मारो, मारते-मारते हलवा निकाल लो सुअर के बच्चों का।

चक्रधर-आपको कैदियों को मारने का कोई मजाज नहीं है।

सिपाही कैदियों पर टूट पड़े और उन्हें बन्दूकों के कुन्दों से मारना शुरू किया। कैदियों में खलबली पड़ गयी। कुछ इधर-उधर से फावड़े, कुदालें और पत्थर ला-ला कर लड़ने पर तैयार हो गये। मौका नाजुक था। चक्रधर ने बड़ी दीनता से कहा-मैं आपको फिर समझाता हूं।

दारोगा-चुप रह सुअर का बच्चा!

इतना सुनना था कि चक्रधर बाज की तरह लपककर दारोगाजी पर झपटे। कैदियों पर कुंदों की मार पड़नी शुरू हो गई थी। चक्रधर को बढ़ते देखकर उन सबों ने पत्थरों की वर्षा शुरू की। भीषण संग्राम होने लगा।

एकाएक चक्रधर ठिठक गये। ध्यान आ गया, स्थिति और भयंकर हो जाएगी, अभी सिपाही बन्दूकें चलानी शुरू कर देंगे, लाशों के ढेर लग जायेंगे। अगर हिंसक भावों को दबाने का कोई मौका हो सकता है, तो वह यही मौका है। ललकार कर बोले-पत्थर न फेंको, पत्थर न फेंकों! सिपाहियों के हाथों से बन्दूक छीन लो।

सिपाहियों ने संगीनें चढ़ानी चाही; लेकिन उन्हें इसका मौका न मिल सका। एक-एक सिपाही पर दस-दस कैदी टूट पड़े और दम-के-दम में उनकी बन्दूकें छीन लीं। यह सब कुछ पांच मिनट में हो गया। ऐसा दांव पड़ा कि वही लोग जो जरा देर पहले हेकड़ी जताते थे, खड़े दया-प्रार्थना कर रहे थे, घिघियाते थे, मत्थे टेकते थे और रोते थे, दारोगाजी की सूरत तस्वीर खींचने योग्य थी। चेहरा फक, हवाइयां उड़ी हुई, थर-थर कांप रहे थे कि देखें, जान बचती है या नहीं।

कैदियों ने देखा इस वक्त हमारा राज्य है, तो पुराने बदले चुकाने पर तैयार हो गये। धन्नासिंह लपका हुआ दारोगा के पास आया और जोर से एक धक्का देकर बोला-क्यों साहब, उखाड़ लूं डाढ़ी का एक-एक बाल?

चक्रधर-धन्नासिंह, हट जाओ।

धन्नासिंह-मरना तो है ही, अब इन्हें क्यों छोड़े?

चक्रधर-मेरे देखते तो यह अनर्थ न होने पायेगा। हां, मर जाऊं तो जो चाहे करना।

धन्नासिंह-अगर ऐसे बड़े धर्मात्मा हो, तो इनको क्यों नहीं समझाया? देखते नहीं हो, कितनी सांसत होती है।

इतने में सदर फाटक पर शोर मचा। जिला-मजिस्ट्रेट मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के सिपाहियों और अफसरों के साथ आ पहुंचे थे। दारोगाजी ने अन्दर आते वक्त किवाड़ बन्द कर लिये थे जिससे कोई कैदी भागने न पाये। यह शोर सुनते ही चक्रधर समझ गये कि पुलिस आ गई। बोले-अरे भाई, क्यों अपनी जान के दुश्मन हुए हो? बन्दूकें रख दो और फौरन जाकर किवाड़ खोल दो। पुलिस आ गयी।

धन्नासिंह-कोई चिन्ता नहीं। हम भी इन लोगों का वारा-न्यारा किये डालते हैं। मरते ही हैं तो दो-चार को मार के मरें।

कैदियों ने फौरन संगीनें चढ़ायी और सबसे पहले धन्नासिंह दारोगाजी पर झपटा। करीब था कि संगीन की नोक उनके सीने में चुभे कि चक्रधर यह कहते हुए धन्नासिंह ईश्वर के लिए….’ दारोगाजी के सामने आकर खड़े हो गये। धन्नासिंह बार कर चुका था। चक्रधर के कन्धे पर संगीन का भरपूर हाथ पड़ा। आधी संगीन धंस गयी। दाहिने हाथ से कंधे को पकड़कर बैठ गये। कैदियों ने उन्हें गिरते देखा, तो होश उड़ गये। आ-आकर उनके चारों तरफ खड़े हो गये। घोर अनर्थ की आशंका ने उन्हें स्तंभित कर दिया। भगत को चोट आ गयी-ये शब्द उनकी पशु-वृत्तियों को दबा बैठे। धन्नासिंह ने बन्दूक फेंक दी और फूट-फूटकर रोने लगा। ग्लानि के आवेश में बार-बार चाहता है कि वही संगीन अपनी छाती में चुभा ले; लेकिन कैदियों ने इतने जोर से उसे जकड़ रखा है कि उसका कुछ बस नहीं चलता।

दारोगा ने मौका पाया तो सदर फाटक की तरफ दौड़े कि उसे खोल दूं। धन्नासिंह ने देखा तो एक ही झटके में वह कैदियों के हाथों से मुक्त हो गया और बन्दूक उठाकर उनके पीछे दौड़ा। करीब था कि दारोगाजी पर फिर वार पडे कि चक्रधर फिर संभलकर उठे और एक हाथ से अपना कंधा पकड़े, लड़खड़ाते हुए चले। धन्नासिंह ने उन्हें आते देखा, तो उसके पांव रुक गये। भगत अभी जीते हैं इसकी उसे इतनी खुशी हुई कि वह बन्दूक फेंककर पीछे की ओर चला और उनके चरणों पर सिर रखकर रोने लगा।

चक्रधर ने कहा-सिपाहियों को छोड़ दो।

धन्नासिंह-बहुत अच्छा, भैया! तुम्हारा जी कैसा है?

सहसा मिस्टर जिम सशस्त्र पुलिस के साथ जेल में दाखिल हुए। उन्हें देखते ही सारे कैदी भय से भागे। केवल दो आदमी चक्रधर के पास खड़े रहे। धन्नासिंह उनमें एक था। सिपाहियों ने भी छूटते ही अपनी-अपनी बन्दूकें संभाली और एक कतार में खड़े हो गये।

जिम-वेल दारोगा, क्या हाल है?

दारोगा-हुजूर के अकबाल से फतह हो गयी। कैदी भाग गये।

जिम-यह कौन आदमी पड़ा है?

दारोगा-इसी ने हम लोगों की मदद की है, हुजूर,। चक्रधर नाम है।

जिम-इसी ने कैदियों को भड़काया होगा?

दारोगा-नहीं हुजूर, इसने तो कैदियों को समझा-बुझाकर शांत किया।

जिम-तुम कुछ नहीं समझता। यह लोग पहले कैदियों को भड़काता है, फिर उनकी तरफ से हाकिम लोगों से लड़ता है।

दारोगा-देखने में तो हुजूर, बहुत सीधा मालूम होता है, दिल का हाल खुदा जाने।

जिम-खुदा के जानने से कुछ नहीं होगा; तुमको जानना चाहिए। यह आदमी कैदियों से मजहब की बातचीत तो नहीं करता?

दारोगा-मजहब की बातें तो बहुत करता है हुजूर!

जिम-ओह! तब तो यह बहुत ही खतरनाक आदमी है। जब कोई पढ़ा-लिखा आदमी मजहब की बातचीत करे, तो फौरन समझ लो कि वह कोई साजिश करना चाहता है।

रिलीजन (धर्म) के साथ पॉलिटिक्स (राजनीति) बहुत खतरनाक हो जाता है। यह आदमी कैदियों से बड़ी हमदर्दी करता होगा? सरकारी हुक्म को खूब मानता होगा? कड़े-से-कड़ा काम खुशी से करता होगा?

दारोगा-जी हां।

जिम-ऐसा आदमी निहायत खौफनाक होता है, उस पर कभी एतबार नहीं करना चाहिए। हम इस पर मुकदमा चलायेगा। इसको बहुत कड़ी सजा देगा। सिपाहियों को दफ्तर में बुलाओ। हम सबका बयान लिखेगा।

दारोगा-हुजूर, पहले उसे डॉक्टर साहब को दिखा लूं। ऐसा न हो कि मर जाय, गुलाम को दाग लगे।

जिम-वह मरेगा नहीं। ऐसा खौफनाक आदमी कभी नहीं मरता; और मर भी जाएगा, तो हमारा कोई नुकसान नहीं।

यह कहकर साहब दफ्तर की ओर चले। धन्नासिंह अब तक इस इन्तजार में खड़ा था कि डॉक्टर साहब आते होंगे। जब देखा कि जिम साहब इधर मुखातिब भी न हुए, तो उसने चक्रधर को गोद में उठाया और अस्पताल की ओर चला।

चक्रधर दो महीने अस्पताल में पड़े रहे। दवा-दर्पन तो जैसी हुई वही जानते होंगे; लेकिन जनता की दुआओं में जरूर असर था। हजारों आदमी नित्य उनके लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे और मनोरमा को तो दान, व्रत और तप के सिवा और कोई काम न था। जिन बातों को वह पहले ढकोसला समझती थी, उन्हीं बातों में अब उसकी आत्मा को शान्ति मिलती थी। कमजोरी ही में हम लकड़ी का सहारा लेते हैं।

चक्रधर तो अस्पताल में पड़े थे, इधर उन पर नया अभियोग चलाने की तैयारियां हो रही थीं। ज्यों ही वह चलने-फिरने लगे, उन पर मुकदमा चलने लगा। जेल के भीतर ही इजलास होने लगा। ठाकुर गुरु हरसेवकसिंह आजकल डिप्टी मजिस्ट्रेट थे। उन्हीं को यह मुकदमा सुपुर्द किया गया।

ठाकुर साहब सरकारी काम में जरा भी रू-रिआयत न करते थे, लेकिन यह मुकदमा पाकर वह धर्म-संकट में पड़ गये। अगर चक्रधर को सजा देते हैं, तो जनता में मुंह दिखाने लायक नहीं रहते। मनोरमा तो शायद उनका मुंह भी न देखे। छोड़ते हैं तो अपने समाज में तिरस्कार होता है, क्योंकि वहां सभी चक्रधर से खार खाये बैठे थे।

मुकदमें को पेश हुए आज तीसरा दिन था। गुरु हरसेवक बरामदे में बैठे सावन की रिम-झिम वर्षा का आनन्द उठा रहे थे। सहसा मनोरमा मोटर से उतरकर उनके समीप ही कुरसी पर बैठ गयी।

गुरुसेवक ने पूछा-कहां से आ रही हो?

मनोरमा-घर ही से आ रही हूं। जेलवाले मुकदमे में क्या हो रहा है?

गुरुसेवक-अभी तो कुछ नहीं हुआ। गवाहों के बयान हो रहे हैं।

मनोरमा-बाबूजी पर जुर्म साबित हो गया?

गुरुसेवक-जुर्म का साबित होना या न होना दोनों बराबर है, और मुझे मुलजिमों को सजा करनी पड़ेगी। अगर बरी कर दूं तो सरकार अपील करके उन्हें फिर सजा दिला देगी। हां, मैं बदनाम हो जाऊंगा। मेरे लिए यह आत्म-बलिदान का प्रश्न है। सारी देवता-मण्डली मुझ पर कुपित हो जाएगी।

मनोरमा-बाबूजी के लिए सजा का दो-एक साल बढ़ जाना कोई बात नहीं, वह निरपराध हैं और यह विश्वास उन्हें तस्कीन देने को काफी है, लेकिन तुम कहीं के न रहोगे। तुम्हारे देवता तुमसे भले ही सन्तुष्ट हो जाये; पर तुम्हारी आत्मा का सर्वनाश हो जाएगा।

गुरुसेवक-चक्रधर बिलकुल बेकसूर तो नहीं है। पहले-पहल जेल के दारोगा पर वही गर्म पड़े थे। वह उस वक्त जब्त कर जाते, तो यह फिसाद न खड़ा होता।

मनोरमा-उन्होंने जो कुछ किया, वही उनका धर्म था। आपको अपने फैसले में साफ-साफ लिखना चाहिए कि बाबूजी बेकसूर हैं। आपको सिफारिश करनी चाहिए कि-महान संकट में अपने प्राणों को हथेली पर लेकर, जेल के कर्मचारियों की जान बचाने के बदले में उसकी मीआद घटा दी जाय।

गुरुरनेवक ने अपनी नीचता को मुस्कराहट से छिपाकर कहा-आग में कूद पड़ूं?

मनोरमा- धर्म की रक्षा के लिए आग में कूद पड़ना कोई नयी बात नहीं है। आखिर आपको किस बात का डर है? यही न, कि आपसे आपके अफसर नाराज हो जायेंगे। आप शायद डरते हों कि कहीं आप अलग न कर दिये जायें। इसकी जरा भी चिन्ता न कीजिए।

गुरुसेवक अपनी स्वार्थपरता पर झेंपते हुए बोले-नौकरी की मुझे परवा नहीं है, मनोरमा! मैं इन लोगों के कमीनेपन से डरता हूं। इनका धर्म, इनकी राजनीति, इनका न्याय, इनकी सभ्यता केवल एक शब्द में आ जाती है, और वह शब्द है-स्वार्थ। जानता हूं यह मेरी कमजोरी है, पर क्या करूं? मुझमें तो इतना साहस नहीं।

मनोरमा-भैयाजी, आपकी यह सारी शंकाएं निर्मूल हैं। गवाहों के बयान हो गये कि नहीं?

गुरुसेवक-हां, हो गये। अब तो केवल फैसला सुनाना है।

मनोरमा-तो लिखिए, मैं बिना लिखवाये यहां से जाऊंगी ही नहीं। यही इरादा करके आज आयी हूं।

सहसा दूसरी मोटर आ पहुंची। इस पर राजा साहब बैठे हुए थे। गुरुसेवक बड़े तपाक से उन्हें लेने दौड़े। राजा ने उनकी ओर विशेष ध्यान न दिया। मनोरमा के पास आ कर बोले -तुम्हारे घर से चला आ रहा हूं। वहां पूछा तो मालूम हुआ-कही गयी हो; पर यह किसी को मालूम न था कि कहां। वहां से पार्क गया, पार्क से चौक पहुंचा, सारे जमाने की खाक छानता हुआ यहां पहुंचा हूं। मैं कितनी बार कह चुका हूं कि घर से चला करो, तो जरा बतला दिया करो।

यह कहकर राजा साहब ने मनोरमा का हाथ आहिस्ता से पकड़ लिया और उसे मोटर की तरफ खींचा। मनोरमा ने एक झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और बोली-मैं न जाऊंगी।

राजा-आखिर क्यों?

मनोरमा-अपनी इच्छा।

गुरुसेवक-हुजूर, यह मुझसे जबरदस्ती जेलवाले मुकदमे का फैसला लिखाने बैठी हुई हे। कहती है-बिना लिखवाए न जाऊंगी।

गुरुसेवक ने तो यह बात दिल्लगी से कही थी, पर समयोचित बात उनके मुंह से कम निकली थी। मनोरमा का मुंह लाल हो गया। समझी कि यह मुझे राजा साहब में सम्मुख गिराना चाहते हैं। तनकर बोली-हां, इसीलिए बैठी हूं तो फिर? आपको यह कहते हुए शर्म आनी चाहिए थी। अगर मैं समझती कि आप निष्पक्ष होकर फैसला करेंगे, तो मेरे बैठने की क्यों जरूरत होती। आप मेरे भाई हैं इसीलिए मैं आपसे सत्याग्रह कर रही हूं। आपकी जगह कोई दूसरा आदमी बाबूजी पर जान-बूझकर ऐसा घोर अन्याय करता, तो शायद मेरा वश चलता तो उसके हाथ कटवा लेती। चक्रधर की मेरे दिल में जितनी इज्जत है, उसका आप लोग अनुमान नहीं कर सकते।

एक क्षण के लिए सन्नाटा छा गया। गुरुसेवक का मुंह नन्हा-सा हो गया, और राजा साहब तो मानो रो दिये। आखिर चुपचाप अपनी मोटर की ओर चले।

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