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मनोरमा - मुंशी प्रेमचंद भाग - 17

08:00 PM Mar 19, 2024 IST | Guddu KUmar
मनोरमा   मुंशी प्रेमचंद भाग   17
manorma munshi premchand
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पांच वर्ष व्यतीत हो गए। पर न शंखधर का कहीं पता चला न चक्रधर का। राजा विशालसिंह ने दया और धर्म को तिलांजली दे दी है और खूब दिल खोलकर अत्याचार कर रहें हैं। दया और धर्म से जो कुछ होता है, उसका अनुभव करके अब वह यह अनुभव करना चाहते हैं कि अधर्म और अविचार से क्या होता है। प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार किये जा रहे हैं। उनकी फरियाद कोई नहीं सुनता।

मनोरमा नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें मनोरमा भाग-1

राजा साहब को किसी पर दया नहीं आती। अब क्या रह गया है, जिसके लिए वह धर्म का दामन पकड़े? वह किशोर अब कहां है, जिसके दर्शन-मात्र से हृदय में प्रकाश का उदय हो जाता था? वह जीवन और मृत्यु की सभी आशाओं का आधार कहां चला गया? कुछ पता नहीं। इतने प्राणियों में केवल एक मनोरमा है, जिसने अभी तक धैर्य का आश्रय नहीं छोड़ा, लेकिन उसकी अब कोई नहीं सुनता। राजा साहब अब उसकी सूरत भी नहीं देखना चाहते। वह उसी को सारी विपत्ति का मूल कारण समझते हैं। वह मनोरमा जो उनकी हृदयेश्वरी थी, जिसके इशारे पर रियासत चलती थी, अब भवन में भिखारिनी की भांति रहती है, कोई उसकी बात तक नहीं पूछता, वही इस भीषण अंधकार में अब भी दीपक की भांति जल रही है। पर उसका प्रकाश केवल अपने ही तक रह जाता है, अंधकार में प्रसारित नहीं होता।

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संध्या हो गयी है। सूर्यदेव पहाड़ियों की आड़ में छिप गये हैं। रमणियां जल भरने के लिए कुएं पर आ गयी हैं। इसी समय एक युवक हाथ में एक खंजरी लिए आकर कुएं की जगत पर बैठ गया। यही शंखधर है। उसके वर्ण, रूप और वेष में इतना परिवर्तन हो गया है कि शायद अहल्या भी उसे देखकर चौंक पड़ती। यह वह तेजस्वी किशोर नहीं, उसकी छायामात्र है। उसका मांस गल गया है, केवल अस्थि-पंजर मात्र रह गया है, मानो किसी भयंकर रोग से ग्रस्त रहने के बाद उठा हो!

एक रमणी ने उसकी ओर देखकर पूछा-कहां से आते हो परदेशी, बीमार मालूम होते हो?

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शंखधर ने आकाश की ओर अनिमेष नेत्रों से देखते हुए कहा-बीमार तो नहीं हूं माता, दूर से आते-आते थक गया हूं।

यह कहकर उसने अपनी खंजरी उठा ली और उसे बजाकर गाने लगा।

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इस क्षीणकाय युवक के कंठ में इतना स्वर-लालित्य, इतना विकल अनुराग था कि रमणियां चित्रवत खड़ी रह गयीं।

एक युवती ने पूछा-बाबाजी, अब तो बहुत देर हो गयी है, यहीं ठहर जाओ न। आगे तो बहुत दूर तक कोई गांव नहीं है।

शंखधर-आपकी इच्छा है माता, तो यहीं ठहर जाऊंगा। भला, माताजी यहां कोई महात्मा तो नहीं रहते?

दूसरी रमणी ने कहा-अभी कई दिन हुए, एक महात्मा आकर टिके थे; पर वह साधुओं के भेष में न थे। वह यहाँ एक महीने-भर रहे। तुम एक दिन पहले यहाँ आ जाते, तो उनके दर्शन हो जाते।

एक वृद्धा बोली-साधु-सन्त तो बहुत देखे; पर ऐसा उपकारी जीव नहीं देखा। तुम्हारा घर कहां है, बेटा?

शंखधर-कहां बताऊं माता, यों ही घूमता-फिरता हूं।

वृद्धा-अभी तुम्हारे माता-पिता हैं न बेटा?

शंखधर-कुछ मालूम नहीं माता! पिताजी तो बहुत दिन हुए कहीं चले गये। मैं तब दो-तीन वर्ष का था। माताजी का हाल नहीं मालूम।

वृद्धा-तुम्हारे पिता क्यों चले गये? तुम्हारी माता से कोई झगड़ा हुआ था?

शंखधर-नहीं माताजी, झगड़ा तो नहीं हुआ। गृहस्थी के माया-मोह में नहीं पड़ना चाहते थे।

वृद्धा-तो तुम्हें घर छोड़े कितने दिन हुए?

शंखधर-पांच साल हो गये, माता! पिताजी को खोजने निकल पड़ा था; पर अब तक कहीं पता न चला।

एक युवती ने वृद्धा से कहा-अम्मा, इनकी सूरत महात्मा जी से मिलती है कि नहीं कुछ तुम्हें दिखायी देता है?

वृद्धा-हां रे, कुछ-कुछ तो मालूम होता है। क्यों बेटा, तुम्हारे पिताजी की क्या अवस्था होगी?

शंखधर- 40 वर्ष के लगभग होगी।

वृद्धा-आंखें खूब बड़ी-बड़ी हैं?

शंखधर-हां माताजी, उतनी बड़ी आंखें तो मैंने किसी की देखी ही नहीं।

वृद्धा-लम्बे-लम्बे गोरे आदमी हैं?

शंखधर का हृदय धक-धक करने लगा। बोला-हां माताजी, उनका रंग बहुत गोरा है।

वृद्धा-बेटा, जिन महात्मा की मैंने तुमसे चर्चा की है, उनकी सूरत तुमसे बहुत मिलती है।

शंखधर-माता, कुछ बता सकती हो, वह यहां से किधर गये?

वृद्धा-यह तो कुछ नहीं कह सकती; पर वह उत्तर ही की ओर गये हैं।

शंखधर ने कांपते हुए हृदय से पूछा-उनका नाम क्या था माताजी?

वृद्धा-नाम तो उनका था भगवानदास, पर यह उनका असली नाम नहीं मालूम होता था; असली नाम कुछ और ही था।

एक युवती ने कहा-यहीं उनकी एक तस्वीर भी तो रखी हुई है!

शंखधर का हृदय शतगुण वेग से धड़क रहा था। बोला-जरा बह तस्वीर मुझे दिखा दीजिए, आपकी बड़ी कृपा होगी।

युवती लपकी हुई घर गयी, और एक क्षण में तस्वीर लिये हुए लौटी। शंखधर ने दोनों हाथों से हृदय को सँभालते हुए तस्वीर पर एक भयकम्पित दृष्टि डाली और पहचान गया। हां, यह चक्रधर ही की तस्वीर थी। उसकी देह शिथिल पड़ गयी। हृदय का धड़कना शान्त हो गया। आशा, भय, चिन्ता और अस्थिरता से व्यग्र होकर वह हतबुद्धि-सा खड़ा रह गया, मानों किसी पुरानी बात को याद कर रहा हो। सहसा उसने निद्रा से जगे हुए मनुष्य की भाँति पूछा-वह इधर उत्तर ही की ओर गये हैं न? आगे कोई गांव पड़ेगा?

वृद्धा-हां बेटा, पांच कोस पर गांव है! भला-सा उसका नाम है, हां साईगंज, लेकिन आज तो तुम यहीं रहोगे?

शंखधर ने केवल इतना कहा-नहीं माता, आज्ञा दीजिए। और खंजरी उठाकर चल खड़ा हुआ।

रात्रि के उस अगम्य अंधकार में शंखधर भागा चला जा रहा था! उसके पैर पत्थर के टुकड़ों से छलनी हो गये थे। सारी देह थककर चूर हो गयी थी, भूख के मारे आंखों के सामने अंधेरा छाया जाता था, प्यास के मारे कण्ठ में कांटे पड़ रहे थे, पैर कहीं रखता था, पड़ते कहीं थे, पर वह गिरता-पड़ता भागा चला चला जाता था। अगर वह प्रातःकाल तक साईगंज पहुंचा, तो सम्भव है, चक्रधर कहीं चले जायें और फिर उस अनाथ की पांच साल की मेहनत और दौड़-धूप पर पानी न फिर जाय।

हिंसक पशुओं का भयंकर गर्जन सुनाई देता था, अंधेरे में खड्ड और खाई का पता न चलता था, पर उससे अपने प्राणों की चिंता न थी। उसे केवल यह धुन थी-'मुझे सूर्योदय से पहले साईगंज पहुंच जाना चाहिए।'

गगन-मण्डल पर उषा का लोहित प्रकाश छा गया। तारागण किसी थके हुए पथिक की भांति अपनी उज्ज्वल आंखें बन्द करके विश्राम करने लगे। पक्षी गण वृक्षों पर चहकने लगे; पर साईगंज का कहीं पता न चला।

सहसा एक बहुत दूर की पहाड़ी पर कुछ छोटे-छोटे मकान बालिकाओं के घरौंदे की तरह दिखायी दिये। यह साईगंज आ गया। शंखधर का कलेजा धक-धक करने लगा। उसके जीर्ण शरीर में अदभुत स्फूर्ति का संचार हो गया, पैरों में न जाने कहां से दुगुना बल आ गया।

पहाड़ी की चढ़ाई कठिन थी। शंखधर को ऊपर बढ़ने का रास्ता न मालूम था, न कोई आदमी ही दिखाई देता था, जिससे रास्ता पूछ सके। वह कमर बांध कर चढ़ने लगा।

गांव के आदमी ने ऊपर से आवाज दी-इधर से कहां आते हो भाई? रास्ता तो पश्चिमी ओर से है! कहीं पैर फिसल जाये, तो 200 हाथ नीचे जाओ।

लेकिन शंखधर को इन बातों के सुनने की फुरसत कहां थी? दम-के-दम में वह ऊपर पहुंच गया और पूछा-बाबा भगवानदास अभी यहीं हैं न?

किसान-कौन बाबा भगवानदास?

शंखधर-बाबा भगवानदास को नहीं जानते? वह इसी गांव में तो आये हैं? साईगंज यही है न?

किसान-साईगंज! अ-र-र! साईगंज तो तुम पूरब छोड़ आये। इस गांव का नाम बेंदों है।

शखधर ने हताश होकर कहा-तो साईगंज यहां से कितनी दूर है?

किसान-साईगंज तो पड़ेगा यहाँ से कोई पांच कोस; मगर रास्ता बहुत बीहड़ है।

शंखधर कलेजा थामकर बैठ गया। पांच कोस की मंजिल, उस पर रास्ता बीहड़। उसने आकाश की ओर एक बार नैराश्य में डूबी हुई आंखों से देखा और सिर झुकाकर सोचने लगा-यह अवसर फिर हाथ न आयेगा? अगर आराध्यदेव के दर्शन आज न किये, तो फिर न कर सकूंगा।

बैठने का समय फिर आयेगा। आज या तो इस तपस्या का अन्त हो जायेगा या इस जीवन का ही। वह उठ खड़ा हुआ।

किसान ने कहा-क्या चल दिये भाई? चिलम-विलम तो पी लो।

लेकिन शंखधर इसके पहले ही चल चुका था। वह कुछ नहीं देखता, कुछ नहीं सुनता, चुपचाप किसी अन्य शक्ति की भांति चला जा रहा है। रास्ते में जो मिलता, उससे वह पूछता, साईगंज कितनी दूर है? जवाब मिलता-बस. आगे साईगंज है, तो फिर यही जवाब मिलता-बस आगे साईगंज है। आखिर दोपहर होते-होते उसे दूर से एक मन्दिर का कलश दिखायी दिया। एक चरवाहे से पूछा-यह कौन गांव है? उसने कहा-साईगंज आ गया।

लेकिन ज्यों-ज्यों गांव निकट आता था, शंखधर के पांव सुस्त पड़ते जाते थे। उसे यह शंका होने लगी कि यह यहां से चले न गये हों। अब उनसे भेंट न होगी। वह इस शंका को कितना ही दिल से निकालना चाहता था, पर वह अपना आसन न छोड़ती थी।

साईगंज दिखायी देने लगा। स्त्री-पुरुष खेतों में अनाज काटते नजर आने लगे। अब वह गांव के डांड़ पर पहुंच गया। कई आदमी उसके सामने से होकर निकल भी गये; पर उसने किसी से कुछ नहीं पूछा। अगर किसी ने कह दिया-बाबा जी है, तो वह क्या करेगा? इसी असमंजस में पड़ा हुआ वह मन्दिर के सामने के चबूतरे पर बैठ गया। सहसा मन्दिर में से आदमी को निकलते देखकर वह चौंक पड़ा, अनिमेष नेत्रों से उसकी ओर एक क्षण देखा, फिर उठा कि उस पुरुष के चरणों पर गिर पड़े, पर पैर थरथरा गये, मालूम हुआ, कोई नदी उसकी ओर वही चली आती है-वह मूर्छित होकर गिर पड़ा।

शंखधर को होश आया, तो अपने को मन्दिर के बरामदे में चक्रधर की गोद में पड़ा हुआ पाया। चक्रधर चिन्तित नेत्रों से उसके मुंह की ओर ताक रहे थे। गांव के कई आदमी आस-पास खड़े पंखा झल रहे थे। आह! आज कितने दिनों के बाद शंखधर को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है! वह पिता की गोद में लेटा हुआ था।

शंखधर ने फिर आंखें बन्द कर लीं।

चक्रधर ने स्नेह-मधुर स्वर में पूछा-क्यों बेटा, अब कैसी तबीयत है?

कितने स्नेह-मधुर शब्द थे! किसी के कानों ने कभी इतने कोमल शब्द सुने हैं? उसने कोई उत्तर नहीं दिया। उसका जी चाहा, इन चरणों पर सिर रखकर खूब रोये। इससे बढ़कर और किसी सुख की वह कल्पना ही न कर सकता था।

चक्रधर ने फिर पूछा-क्यों बेटा. कैसी तबीयत है?

शंखधर ने कातर स्वर से कहा-अब तो अच्छा हूं। आप ही का नाम बाबा भगवानदास है?

चक्रधर-हां, मुझी को भगवानदास कहते हैं।

शंखधर-मैं आप ही के दर्शनों के लिए आया हूं। आपके दर्शन हुए, मैं कृतार्थ हो गया। अब मेरे संकट कट जायेंगे। आप ही मेरा उद्धार कर सकते हैं।

चक्रधर का चित्त अस्थिर हो गया। उस युवक के रूप और वाणी में न-जाने कौन-सी बात थी, जो उनके मन में उससे बातचीत करने की प्रबल इच्छा हो रही थी। जरा पूछना चाहिए कि यह युवक कौन है? क्यों मुझसे मिलने के इतना उत्सुक है? कितना सुशील बालक है! इसकी वाणी में कितना विनय है लिए और स्वरूप देवकुमारों का-सा है।

एक आदमी पानी लाया। शंखधर ने मुंह-हाथ धोया और चाहता था कि खाली पेट पानी पी ले; लेकिन चक्रधर ने मना किया-हां-हां, यह क्या? अभी पानी न पियो। आओ, कुछ भोजन कर लो।

शंखधर-बड़ी प्यास लगी है।

चक्रधर-पानी कहीं भागा तो नहीं जाता। कुछ खाकर पीना, और वह भी इतना नहीं कि पेट में पानी डोलने लगे।

शंखधर-दो ही घूंट पी लूं नहीं रहा जाता।

चक्रधर ने आकर उसके हाथ से लोटा छीन लिया और कठोर स्वर में कहा-अभी तुम एक बूंद पानी नहीं पी सकते। क्या जान देने पर उतारू हो गये ही!

शंखधर को इस भर्त्सना में जो आनन्द मिल रहा था, यह कभी माता की प्रेम-भरी बातों में भी न मिला था।

मन्दिर के पीछे छोटा-सा बाग और कुंआ था। वहीं एक वृक्ष के नीचे चक्रधर की रसोई बनी थी। चक्रधर अपना भोजन आप पकाते थे, बर्तन भी आप ही धोते थे, पानी भी खुद खींचते थे। शंखधर उनके साथ भोजन करने गया, तो देखा कि रसोई में पूरी, मिठाई, दूध, दही, घी सब कुछ है। उसे कितना आश्चर्य हुआ, जब उसने देखा। कि ये सारे पदार्थ उसी के लिए मंगवाये गये हैं। चक्रधर ने उसके लिए खाना पत्तल में रख दिया और आप कुछ रोटियां और भाजी लेकर बैठे, जो खुद उन्होंने बनायी थीं।

शंखधर ने कहा-आप तो सब मुझी को दिये जाते हैं, अपने लिए कुछ रखा ही नहीं।

चक्रधर-मैं तो बेटा, रोटियों के सिवा और कुछ नहीं खाता। मेरी पाचनशक्ति अच्छी नहीं है। दिन में एक बार खा लिया करता हूं।

शंखधर-अगर आप न खायेंगे, तो मैं भी न खाऊंगा।

आखिर शंखधर के आग्रह से चक्रधर को अपना सोलह वर्षों का पाला हुआ नियम तोड़ना पड़ा। उन्होंने झुंझलाकर कहा-भाई, तुम बड़े जिद्दी मालूम होते हो। अच्छा, लो, मैं भी खाता हूं।

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