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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 16

08:00 PM Jan 02, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   16
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जो कुछ होना था हो गया, किसी की कुछ न चली। डॉक्टर साहब निर्मला की देह से रक्त निकालने की चेष्टा कर ही रहे थे कि मंसाराम अपने उज्ज्वल चरित्र की अंतिम झलक दिखाकर इस भ्रम-लोक से विदा हो गया। कदाचित इतनी देर तक उसके प्राण निर्मला ही की राह देख रहे थे। उसे निष्कलंक सिद्ध किए बिना वे देह को कैसे त्याग देते? अब उनका उद्देश्य पूरा हो गया। मुंशीजी को निर्मला के निर्दोष होने का विश्वास हो गया, पर कब? जब हाथ से तीर निकल चुका था - जब मुसाफिर ने रकाब में पांव डाल दिया था।

निर्मला नॉवेल भाग एक से बढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें- भाग-1

पुत्रशोक से मुंशीजी का जीवन भारस्वरूप हो गया। उस दिन से फिर उनके ओठों पर हँसी न आयी। यह जीवन उन्हें व्यर्थ-सा जान पड़ता था। कचहरी जाते, मगर मुकदमों की पैरवी करने के लिए नहीं, केवल दिल बहलाने के लिए। घंटे-दो-घंटे में वहाँ से उकताकर चले आते। खाने बैठते तो कौर मुँह में न जाता। निर्मला अच्छी-से-अच्छी चीज पकाती, पर मुंशीजी दो-चार कौर से अधिक न रख सकते। ऐसा जान पड़ता कि कौर मुँह से निकला जाता है। मंसाराम के कमरे की ओर जाते ही उनका हृदय टूक-टूक हो जाता था। जहाँ उनकी आशाओं का दीपक जलता रहता था, वहाँ अब अन्धकार छाया हुआ था। उसके दो पुत्र अब भी थे, लेकिन जब दूध देती हुई गाय मर गई; तो बछिया का क्या भरोसा? जब फलने-फूलने वाला वृक्ष गिर पड़ा तो नन्हे-नन्हे पौधों की क्या आशा? यों तो जवान-बूढ़े सभी मरते है, लेकिन दुःख इस बात का था कि उन्होंने स्वयं लड़के की जान ली। जिस दम यह बात याद आ जाती; तो ऐसा मालूम होता था कि उनकी छाती फट जायेगी - मानों हृदय बाहर निकल पड़ेगा।

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निर्मला - पति से सच्ची सहानुभूति थी। जहाँ तक हो सकता था, वह उनको प्रसन्न रखने की फिक्र रखती थी और भूलकर भी पिछली बातें जबान पर न लाती थी। मुंशीजी उससे मंसाराम की कोई चर्चा करते शरमाते थे। उनकी कभी-कभी ऐसी इच्छा होती कि एक बार निर्मला से अपने मन के सारे भाव खोलकर कह दे, लेकिन लज्जा जबान रोक लेती थी। इस भांति उन्हें सान्त्वना भी न मिलती थी, जो अपनी व्यथा कह डालने से, दूसरे को अपने गम में शरीक कर लेने से प्राप्त होती है। मवाद बाहर न निकलकर अन्दर-ही-अन्दर विष फैलाता जाता था। दिन-दिन देह घुलती जाती थी।

इधर कुछ दिन से मुंशीजी और उन डॉक्टर साहब में, जिन्होंने मंसाराम की दवा की थी, याराना हो गया था। बेचारे कभी-कभी आकर मुंशीजी को समझाया करते थे, कभी-कभी अपने साथ हवा खिलाने के लिए खींच ले जाते। उनकी स्त्री भी दो-चार बार निर्मला से मिलने आयी थी। निर्मला भी कई बार उनके घर गयी थी, मगर वहाँ से जब लौटती, तो कई दिन तक उदास रहती। उस दम्पत्ति का सुखमय जीवन देखकर उसे अपनी दशा पर दुःख हुए बिना न रहता था। डॉक्टर साहब को 200 रुपये मिलते थे, गृहस्थी का बहुत-सा काम स्त्री को अपने ही हाथों करना पड़ता था। गहने भी उसके देह पर बहुत कम थे, पर उन दोनों में वह प्रेम था, जो धन की तृण बराबर परवाह नहीं करता। पुरुष को देखकर स्त्री का चेहरा खिल उठता था, स्त्री को देखकर पुरुष निहाल हो जाता था।

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निर्मला के घर में धन इससे कहीं अधिक था - आभूषणों से उसकी देह फट पड़ती थी - घर का कोई काम उसे अपने हाथों से न करना पड़ता था, पर निर्मला सम्पन्न होने पर अधिक दुःखी थी, और सुधा विपन्न होने पर भी सुखी। सुधा के पास कोई ऐसी वस्तु न थी, जो निर्मला के पास न थी, जिसके सामने उसे अपना वैभव तुच्छ जान पड़ता था। यहाँ तक कि वह सुधा के घर गहने पहनकर जाते शरमाती थी।

एक दिन निर्मला डॉक्टर साहब के घर आयी, तो उसे बहुत उदास देखकर सुधा ने पूछा - बहिन, आज बहुत उदास हो, वकील साहब की तबीयत तो अच्छी है न?

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निर्मला - क्या कहूं सुधा? उनकी दशा दिन-दिन खराब होती जाती है - कुछ कहते नहीं बनता। न जाने ईश्वर को क्या मंजूर है?

सुधा - हमारे बाबूजी तो कहते हैं कि उन्हें कहीं जलवायु बदलने के लिए जाना जरूरी है, नहीं तो कोई भयंकर रोग खड़ा हो जायेगा। कई बार वकील साहब से कह चुके हैं। पर वह यही कह दिया करते है मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ - मुझे कोई शिकायत नहीं। आज तुम कहना।

सुधा - तुम उनसे आज खूब जोर देकर कहना कि कहीं जलवायु बदलना चाहिए। दो-चार महीने बाहर रहने से बहुत-सी बातें भूल जाएंगे। मैं समझती हूं शायद मकान बदलने से भी उनका शोक कुछ कम हो जायेगा। लेकिन तुम कहीं बाहर जा भी तो न सकोगी। यह कौन सा महीना है?

निर्मला - आठवां महीना बीत रहा है। यह चिंता तो मुझे और भी मारे डालती है। मैंने तो इसके लिए ईश्वर से कभी प्रार्थना न की थी। यह बला मेरे सिर न जाने क्यों मढ़ दी! मैं बड़ी अभागिन हूं! बहिन, विवाह के एक महीने पहले पिताजी का देहान्त हो गया। उनके मरते ही मेरे सिर पर सनीचर सवार हुए। जहाँ पहले विवाह की बातचीत पक्की हुई थी, उन लोगों ने आंखें फेर लीं। बेचारी अम्मा को हार कर मेरा विवाह यहाँ करना पड़ा। अब छोटी बहिन का विवाह होने वाला है। देखें, उसकी नाव किस पाट जाती है।

सुधा - जहाँ पहले विवाह की बातचीत हुई थी, उन लोगों ने इंकार क्यों कर दिया?

निर्मला - यह तो वे ही जाने। पिताजी न रहे तो सोने की गठरी कौन देता?

सुधा - लखनऊ के, नाम तो याद नहीं, आबकार के कोई बड़े अफसर थे।

सुधा ने गंभीर भाव से पूछा - और उनका लड़का क्या करता था?

निर्मला - कुछ नहीं, कहीं पढ़ता था; पर था बड़ा होनहार।

सुधा ने सिर नीचा करके कहा - उसने अपने पिता से कुछ न कहा था? वह तो जवान था, अपने बाप को दबा न सकता था?

निर्मला - अब मैं क्या जानूं बहिन! सोने की गठरी किसे प्यारी नहीं होती? जो पंडित मेरे यहाँ से संदेश लेकर गया था, उसने तो कहा था कि लड़का ही इंकार कर रहा है। लड़के की मां अलबत्ता देवी थी। उसने पुत्र और पति दोनों ही को समझाया, पर उसकी कुछ न चली।

सुधा - मैं जो उसे लड़के को पाती, तो खूब आड़े हाथों लेती!

निर्मला - मेरे भाग्य में जो लिखा था, वह हो चुका। बेचारी कृष्णा पर न जाने क्या बीतेगी। संध्या समय निर्मला के जाने के बाद डॉक्टर बाहर से आये, तो सुधा ने कहा - क्यों जी, तुम उस आदमी को क्या कहोगे, जो एक जगह विवाह ठीक कर लेने के बाद फिर लोभवश किसी दूसरी जगह सम्बन्ध कर ले?

डॉक्टर सिन्हा ने स्त्री की और कुतूहल से देखकर कहा - ऐसा नहीं करना चाहिए, और क्या!

सुधा - यह क्यों नहीं कहते कि यह घोर नीचता है - परले सिरे का कमीनापन है!

सिन्हा - हां, यह कहने में मुझको इंकार नहीं।

सुधा - किसका अपराध बड़ा है - वर का या वर के पिता का?

सिन्हा की समझ में अभी तक नहीं आया कि सुधा के इन प्रश्नों का आशय क्या है? विस्मय से बोले - जैसी स्थिति हो। अगर वह पिता के अधीन हो तो पिता का ही अपराध समझो।

सुधा - अधीन होने पर भी क्या जवान आदमी का अपना कोई कर्त्तव्य नहीं है। अगर उसे अपने लिए नए कोट की जरूरत हो, तो वह पिता के विरोध करने पर भी उसे रो-धोकर मनवा लेता है। क्या ऐसे महत्त्व के विषय में वह अपनी आवाज पिता के कानों तक नहीं पहुंचा सकता? यह कहो कि वर और उसका पिता दोनों अपराधी हैं; परन्तु वह अधिक! बूढ़ा आदमी सोचता है, मुझे सारा खर्च संभालना पड़ेगा, कन्या पक्ष से जितना ऐंठ सकूं उतना ही अच्छा; मगर यह वर का धर्म है कि वह स्वार्थ के हाथों बिल्कुल बिक नहीं गया है, तो अपने आत्मबल का परिचय दे। अगर वह ऐसा नहीं करता, तो कहूंगी कि वह लोभी है और कायर भी। दुर्भाग्यवश ऐसा ही एक प्राणी मेरा पति भी है, और मेरी समझ में नहीं आता, किन शब्दों में उनका तिरस्कार करूँ।

सिन्हा ने हिचकिचाते हुए कहा - वह… वह… वह दूसरी बात थी। लेनदेन का कारण नहीं था; बिल्कुल दूसरी बात थी। कन्या के पिता का देहान्त हो गया था। ऐसी दशा में हम लोग क्या करते? यह भी सुनने में आया कि कन्या में कोई ऐब है। वह बिल्कुल दूसरी बात थी; मगर तुमसे यह कथा किसने कही?

सुधा - कह दो, वह कानी थी या कुबड़ी थी, या नाइन के पेट की थी या भ्रष्टा थी! इतनी कसर क्यों छोड़ दी? भला सुनूं तो उस कन्या में क्या ऐब था?

सिन्हा - मैंने देखा तो था नहीं; सुनने में आया था कि उसमें कोई ऐब है।

सुधा - सबसे बड़ा ऐब यही था कि उसके पिता का स्वर्गवास हो गया था, और वह कोई लम्बी-चौड़ी रकम न दे सकती थी। इतना स्वीकार करते क्यों झेंपते हो? मैं कुछ तुम्हारे कान तो काट न लूंगी? अगर दो-चार फिकरे कसूं तो इस कान से सुनकर उस कान से उड़ा देना। ज्यादा चीं चुपड़ करूं तो छड़ी से काम ले सकते हो। औरत लाल डण्डे ही से ठीक रहती है। अगर उस कन्या में कोई ऐब था, तो मैं कहूंगी, लक्ष्मी भी बेएब नहीं! तुम्हारी तकदीर खोटी थी बस! और क्या? तुम्हें तो मेरे पाले पड़ना था।

सिन्हा - तुम से किसने कहा था कि वह ऐसी थी और वैसी थी! जैसे तुमने किसी से सुनकर मान लिया, वैसे ही हम लोगों ने भी सुनकर मान लिया।

सुधा - मैंने सुनकर नहीं मान लिया। अपनी आंखों से देखा। ज्यादा बखान क्या करूं मैंने ऐसी सुन्दर स्त्री कभी नहीं देखी थी।

सिन्हा ने व्यग्र होकर पूछा - क्या वह यहीं कहीं है? सच बताओ; उसे कहीं देखा? क्या तुम्हारे घर आयी थी?

सुधा - हां, मेरे घर आयी थी; और एक बार नहीं, कई बार आ चुकी है। मैं भी उसके यहाँ कई बार जा चुकी हूँ। वकील साहब की बीवी वही कन्या है, जिसे आपने ऐबों के कारण त्याग दिया।

सिन्हा - सच।

सुधा - बिल्कुल सच! आज उसे अगर मालूम हो जाए कि आप वही महापुरुष हैं तो शायद फिर इस घर में कदम न रखे। ऐसी सुशीला, घर के कामों में निपुण और ऐसी परम सुन्दरी स्त्री इस शहर में दो-ही चार होंगी। तुम मेरा बखान करते हो। मैं उसकी लौंडी बनने के योग्य भी नहीं हूं। घर में ईश्वर का दिया हुआ सब कुछ है, मगर जब प्राणी ही मेल का नहीं तो और सब रह कर क्या करेगा? धन्य है उसके धैर्य को कि उस बुड्ढे खूसट वकील के साथ जीवन के दिन काट रही है। मैंने तो कब का जहर खा लिया होता। मगर मन की व्यथा कहने से ही थोड़े प्रकट होती है। हँसती है, बोलती है; गहने-कपड़े पहनती है पर रोआं-रोआं रोया करता है।

सिन्हा - वकील साहब की खूब शिकायत करती होगी।

सुधा - शिकायत क्यों करेगी? क्या वह उसके पति नहीं है? संसार में अब उसके लिए जो कुछ है, वकील साहब हैं। वह बुड्ढे हों या रोगी पर हैं तो उसके स्वामी ही। कुलवती स्त्रियां पति की निन्दा नहीं करती - यह कुलटाओं का काम है। वह उनकी दशा देखकर कुढ़ती है, पर मुँह से कुछ नहीं कहती है।

सिन्हा - इन वकील साहब को क्या सूझी थी, जो इस उम्र में ब्याह करने चले?

सुधा - ऐसे आदमी न हों, तो गरीब क्वांरियों की नाव कौन पार लगाए? तुम और तुम्हारे साथी बिना भारी गठरी लिये बात-नहीं करते, तो फिर ये बेचारी किसके घर जाएं? तुमने बड़ा अन्याय किया है और तुम्हें इसका प्रायश्चित करना पड़ेगा। ईश्वर इसका सुहाग अमर करे! वकील साहब को कहीं कुछ हो गया तो बेचारी को जीवन नष्ट हो जायेगा। आज तो वह बहुत रोती थी। तुम लोग सचमुच बड़े निर्दय हो। मैं तो अपने सोहन का विवाह किसी गरीब लड़की से करूँगी।

डॉक्टर साहब ने पिछला वाक्य नहीं सुना। वह घोर चिन्ता में पड़ गए। उनके मन में प्रश्न उठ-उठकर उन्हें विकल करने लगा - कहीं वकील साहब को कुछ हो गया तो? आज अपने स्वार्थ का भयंकर स्वरूप दिखाई दिया! वास्तव में यह उन्हीं का अपराध था। अगर उन्होंने पिता से जोर देकर कहा होता कि और कहीं विवाह न करूंगा तो क्या वह उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह कर देते?

सहसा सुधा ने कहा - कहो तो निर्मला से तुम्हारी मुलाकात करा दूँ! वह भी जरा तुम्हारी सूरत देख ले। वह कुछ बोलेगी तो नहीं, पर कदाचित एक दृष्टि में वह तुम्हारा उतना तिरस्कार कर देगी, जिसे कभी न भूल सकोगे। बोलो, कल मिला दूँ? तुम्हारा बहुत संक्षिप्त परिचय भी दे दूंगी।

सिन्हा ने कहा - नहीं सुधा, तुम्हारे हाथ जोड़ता हूं कहीं ऐसा गजब न करना नहीं तो सच कहता हूं घर छोड़कर भाग जाऊँगा।

सुधा - जो काँटा बोया है, उसका फल खाते क्यों इतना डरते हो? जिसकी गर्दन पर कटार चलायी है, जरा उसे तड़पते भी तो देखो! मेरे दादाजी ने पांच हजार दिये न! अभी छोटे भाई के विवाह में पाँच-छह हजार और मिल जाएंगे। फिर तो तुम्हारे बराबर धनी संसार में कोई दूसरा न होगा! ग्यारह हजार बहुत होते हैं। बाप रे बाप! ग्यारह हजार! उठा-उठाकर रखने लगे, तो महीनों लग जायें। अगर लड़के उड़ाने भी लगे तो तीन पीढ़ियों तक चलें! कहीं तो बात हो रही है या नहीं?

इस परिहास से डॉक्टर साहब इतना झेंपे कि सिर तक न उठा सके। उनका सारा वाकचातुर्य गायब हो गया। नन्हा-सा मुंह निकल आया, मानों मार पड़ गई हो। इसी वक्त किसी ने डॉक्टर साहब को बाहर से पुकारा। बेचारे जान लेकर भागे। स्त्री कितनी परिहास-कुशल होती है, इसका आज परिचय मिल गया।

रात को डॉक्टर साहब शयन करते हुए सुधा से बोले - निर्मला की तो कोई बहिन है।

सुधा - हां, आज उसी की तो चर्चा करती थी। उसी के चिन्ता अभी से सवार हो रही है! अपने ऊपर तो जो कुछ बीतना था, बीत चुका; बहिन ही फिक्र में पड़ी हुई थी। मां के पास तो अब और भी कुछ न रहा; मजबूरन किसी ऐसे ही बूढ़े बाबा के गले वह भी मढ़ दी जायेगी।

सिन्हा - निर्मला अब तो अपनी माँ की मदद कर सकती है।

सुधा ने तीक्ष्ण स्वर में कहा - तुम भी कभी-कभी बिल्कुल बेसिर-पैर की बातें करने लगते हो। निर्मला बहुत करेगी, तो दो-चार सौ, रुपये दे देगी, और क्या कर सकती है? वकील साहब का यह हाल हो रहा है; उसे अभी पहाड़ सी उम्र काटनी है। फिर कौन जाने, उनके घर का क्या हाल है। इधर छह महीने से बेचारे घर बैठे हैं। रुपये आकाश से थोड़े ही बरसाते है। दस बीस हजार होंगे भी तो बैंक में होंगे; कुछ निर्मला के पास तो रखे न होंगे। हमारा 200 रु महीने का खर्च है, तो क्या उनका 400 रु महीने का भी न होगा?

सुधा को तो नींद आ गई, पर डॉक्टर साहब बहुत देर तक करवट बदलते रहे। फिर कुछ सोचकर उठे और मेज पर बैठकर एक पत्र लिखने लगे।

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