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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 17

08:00 PM Jan 04, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   17
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तीनों बातें एक साथ हुईं - निर्मला की कन्या ने जन्म लिया, कृष्णा का विवाह निश्चित हुआ और मुंशी तोताराम का मकान नीलाम हो गया। कन्या का जन्म तो साधारण बात थी, यद्यपि निर्मला की दृष्टि में यह उसके जीवन की सबसे महान् घटना थी; लेकिन शेष घटनाएं असाधारण थी। कृष्णा का विवाह ऐसे सम्पन्न घराने में क्यों कर ठीक हुआ? उसकी माता के पास तो दहेज के नाम की कौड़ी भी न थी; और इधर बुड्ढे सिन्हा साहब जो पेंशन लेकर घर आ गए थे,

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बिरादरी में लोभी मशहूर थे। वह अपने पुत्र का विवाह ऐसे दरिद्र घराने में करने पर कैसे राजी हुए? किसी को सहसा विश्वास न आता था। इससे भी बड़े आश्चर्य की बात मुंशीजी के मकान का नीलाम होना था। लोग मुंशीजी को लखपती नहीं, तो बड़े आदमी अवश्य समझते थे। उनका मकान कैसे नीलाम हुआ? बात यह थी कि मुंशीजी ने एक महाजन से कुछ रुपये कर्ज लेकर एक गांव रेहन रखा था। उन्हें आशा थी कि साल-आध-साल में यह रुपये पटा देंगे। फिर दस-पांच साल में असमर्थ हो जायेगा। इसी भरोसे पर मुंशीजी ने यह मामला किया था। गांव बहुत बड़ा था - चार-पांच सौ रुपये नफा होता था, लेकिन मन की सोची मन ही में रह गई। मुंशीजी दिल को बहुत समझाने पर भी कचहरी न जा सके। पुत्रशोक ने कोई काम करने की शक्ति ही न छोड़ी। कौन ऐसा हृदयशून्य पिता है, जो पुत्र की गर्दन पर तलवार चलाकर चित्त को शान्त कर ले?

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महाजन के पास जब साल-भर तक सूद न पहुंचा और न उसके बार-बार बुलाने पर मुंशीजी उसके पास गये - यहाँ तक कि पिछली बार उन्होंने साफ-साफ कह दिया कि हम किसी के गुलाम नहीं हैं, साहुजी जो चाहें करें - तब साहुजी को गुस्सा आ गया। उसने नालिश कर दी। मुंशीजी पैरवी करने भी न गये। एकाएक डिग्री हो गई। यहाँ घर में रुपये कहां रखे थे। इतने ही दिनों में मुंशीजी की साख भी उठ गई थी। बह रुपये का कोई प्रबन्ध न कर सके। आखिर मकान नीलाम पर चढ़ गया। निर्मला सौर में थी। यह खबर सुनी तो कलेजा सन्न-सा हो गया। जीवन में कोई और सुख न होने पर भी धनाभाव की चिंताओं से मुक्त थी। धन मानव जीवन में अगर सर्वप्रधान वस्तु नहीं तो वह उसके बहुत निकट की वस्तु अवश्य है। जब और अभावों के साथ यह चिन्ता भी उसके सिर सवार हुई। उसने दाई द्वारा कहला भेजा, मेरे सब गहने बेचकर घर को बचा लीजिए, लेकिन मुंशीजी ने यह प्रस्ताव किसी तरह स्वीकार न किया।

उस दिन से मुंशीजी और भी चिन्ताग्रस्त रहने लगे। जिस धन का सुख भोगने के लिए उन्होंने विवाह किया था, बह अब अतीत की स्मृतिमात्र था। बह मारे ग्लानि के अब निर्मला को अपना मुंह तक न दिखा सकते थे। उन्हें अब उस अन्याय का अनुमान हो रहा था, जो उन्होंने निर्मला के साथ किया था और कन्या के जन्म ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी - सर्वनाश ही कर डाला!

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बारहवें दिन सौर से निकल कर निर्मला नवजात शिशु को गोद में लिये पति के पास गयी। वह इस अभाव में भी इतनी प्रसन्न थी, मानो कोई चिंता नहीं है। बालिका हर्षप्रदीप्त नेत्रों को देखकर उसका हृदय प्रफुल्लित हो रहा था। मातृत्व के इस उद्गार में उसके सारे क्लेश विलीन हो गए थे। वह शिशु को पति की गोद में देखकर निहाल हो जाना चाहती थी, लेकिन मुंशीजी कन्या को देखकर सहम उठे। गोद में लेने के लिए उनका हृदय हुलसा नहीं; पर उन्होंने एक बार उसे करुण नेत्रों से देखा और फिर सिर झुका लिया। शिशु की सूरत मंसाराम से बिल्कुल मिलती थी।

निर्मला ने उनके मन का भाव कुछ और ही समझा। उसने शतगुण स्नेह से लड़की को हृदय से लगा लिया, मानों उनसे कह रही है - अगर तुम इसके बोझ से दबे जाते हो, तो आज से मैं इस पर तुम्हारी छाया भी न पड़ने दूंगी। जिस रत्न को मैंने इतनी तपस्या के बाद पाया है, उसका निरादर करते हुए तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता। वह उसी क्षण शिशु को चिपकाए हुए अपने कमरे में चली गयी और देर तक रोती रही। उन्हें इतना कठोर न समझती। उसके सिर उत्तरदायित्व का इतना बड़ा भार कहां था, जो उसके पति पर आ पड़ा था। वह सोचने की चेष्टा करती, तो क्या इतना भी उसकी समझ में न आता।

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मुंशीजी को एक ही क्षण में अपनी भूल मालूम हो गई। माता का हृदय प्रेम में इतना अनुरक्त रहता है कि भविष्य की चिन्ता और बाधाएं उसे जरा भी भयभीत नहीं करतीं। उसे अपने अन्तःकरण में एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है, जो बाधाओं को उसके सामने परास्त कर देती है। मुंशीजी दौड़ते हुए घर में आये और शिशु को गोद में लेकर बोले - मुझे याद आती है, मंसा भी ऐसा ही था - बिल्कुल ऐसा ही!

निर्मला - दीदीजी भी तो यही कहती है।

मुंशीजी - बिल्कुल वही बड़ी-बड़ी आंखें और लाल-लाल होंठ हैं। ईश्वर ने मुझे मंसाराम इस रूप में दे दिया। वही मुंह, वही हाथ-पांव! ईश्वर, तुम्हारी लीला अपार है।

सहसा रुक्मिणी भी आ गई। मुंशीजी को देखते ही बोली - देखो बाबू मंसाराम है कि नहीं? वहीं आया है, कोई लाख कहे, मैं न मानूंगी। साफ मंसाराम है! साल भर के लगभग हो भी तो गया।

मुंशीजी - बहिन एक-एक अंग तो मिलता है। बस, भगवान ने मुझे मेरा मंसाराम दे दिया। (शिशु से) क्यों री तू मंसाराम ही है? छोड़कर जाने का नाम न लेना, नहीं खींच लाऊंगा। कैसे निष्ठुर होकर भागे थे। आखिर पकड़ लाया कि नहीं? बस कह दिया, अब मुझे छोड़कर जाने का नाम न लेना। देखो बहिन, कैसे टुकुर-टुकुर ताक रही है।

उसी क्षण मुंशीजी ने फिर से अभिलाषाओं का भवन बनाना शुरू कर दिया। मोह ने उन्हें फिर संसार की ओर खींचा। मानव-जीवन! तू इतना क्षणभंगुर है, पर तेरी कल्पनाएं कितनी दीर्घायु। वही तोताराम जो संसार से विरक्त हो रहे थे, जो रात-दिन मृत्यु का आवाहन करते थे, तिनके का सहारा पाकर तट पर पहुंचने के लिए पूरी शक्ति से हाथ-पांव मार रहे हैं।

मगर तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुँचा है?

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