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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 19

08:00 PM Jan 09, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   19
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महीना कटते देर न लगी। विवाह का शुभ मुहूर्त आ पहुँचा। मेहमानों से घर भर गया। मुंशी तोतारात एक दिन पहले घर से आ गए और उसके साथ निर्मला की सहेली भी आयी। निर्मला ने तो बहुत आग्रह न किया था, वह खुद ही आने को उत्सुक थी। निर्मला की सबसे बड़ी उत्कण्ठा यही थी कि वर के बड़े भाई के दर्शन करूंगी; और हो सकता तो उनकी सुबुद्धि पर धन्यवाद दूंगी।

सुधा ने हँसकर कहा - तुम उनसे बोल सकोगी?

निर्मला - आदमी तो बुरे नहीं हैं, और तुम्हें उनसे विवाह तो करना नहीं। जरा-सा बोलने में क्या हानि? डॉक्टर साहब यहाँ होते, तो मैं तुम्हें आज्ञा दिला देती।

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सुधा - जो लोग हृदय के उदार होते हैं, क्या चरित्र के भी अच्छे होते हैं? परायी स्त्री को घूरने में तो किसी मर्द को संकोच नहीं होता।

निर्मला - अच्छा, न बोलना, मैं ही बातें कर दूंगी। घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा, बस अब तो राजी हुई?

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इतने में कृष्णा आकर बैठ गई। निर्मला ने मुस्कुराकर कहा - सच बता कृष्णा तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?

कृष्णा - जीजाजी बुला रहे है, पहले जाकर सुन आओ, पीछे गप्पें लगाना। बहुत बिगड़ रहे हैं।

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निर्मला - क्या है; तूने कुछ पूछा नहीं?

कृष्णा - कुछ बीमार से मालूम होते है। बहुत दुबले हो गए हैं।

निर्मला - तो जरा बैठकर उनका मन बहला देती। यहाँ दौड़ी क्यों चली आयी? यह कहो, ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुष तुझे भी मिलता। जरा बैठकर बातें करो। बुड्ढे बात बड़ी लच्छेदार करते है। जवान इतने डीगियल नहीं होते।

कृष्णा - नहीं बहिन, तुम जाओ, मुझसे तो वहाँ नहीं बैठ जाता।

निर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा - अब तो बारात आ गई होगी। द्वार पूजा क्यों नहीं होती?

कृष्णा - क्या जाने बहिन, शास्त्रीजी सामान इकट्ठा कर रहे हैं।

सुधा - सुना है, दूल्हा की भावज बड़े रूखे स्वभाव की स्त्री है।

कृष्णा - कैसे मालूम।

सुधा - मैंने सुना है, इसलिए चेताए देती हूँ। चार बातें गम खाकर रहना होगा।

कृष्णा - मेरी झगड़ने की आदत नहीं। जब मेरी तरफ से कोई शिकायत ही न पाएगी, तो क्या अनायास ही बिगड़ेगी?

सुधा - हां, सुना तो ऐसा ही है। झूठमूठ लड़ा करती हैं।

कृष्णा - मैं तो सौ बात की एक बात जानती हूं - नम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है। सहसा शोर मचा। बारात आ रही है। दोनों रमणियां खिड़कियों के सामने आ बैठी। एक क्षण में निर्मला भी आ पहुंची।

वर के बड़े भाई को देखने की उसे बड़ी उत्सुकता हो रही थी।

सुधा ने कहा - कैसे पता चलेगा कि बड़े भाई कौन हैं?

निर्मला - शास्त्रीजी से पूछूं तो मालूम हो। हाथी पर तो कृष्णा के ससुर महाशय हैं। अच्छा, डॉक्टर साहब यहाँ कैसे आ पहुंचे! घोड़े पर क्या हैं, देखती नहीं हो?

सुधा - हां, है तो वही।

निर्मला - उन लोगों से मित्रता होगी। कोई सम्बन्ध तो नहीं है?

सुधा - अब भेंट हो तो पूछूं, मुझे तो कुछ नहीं मालूम।

निर्मला - पालकी में जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हे के भाई जैसे नहीं दीखते।

सुधा - बिल्कुल नहीं। मालूम होता है, सारी देह में पेट-ही-पेट है।

निर्मला - दूसरे हाथी पर कौन बैठा हुआ, समझ में नहीं आता।

सुधा - कोई हो, दूल्हा का भाई नहीं हो सकता। उसकी उम्र नहीं देखती हो, चालीस के ऊपर होगी।

निर्मला - शास्त्रीजी तो इस वक्त द्वार-पूजा की फिक्र में हैं, नहीं तो पूछती।

संयोग से नाई आ गया। संदूक की कुंजियां निर्मला के पास थीं। इस वक्त द्वारचार के लिए कुछ रुपयों की जरूरत थी, माता ने भेजा था। यह नाई भी पण्डित मोटेराम के साथ तिलक लेकर गया था।

निर्मला ने कहा - क्या अभी रुपये चाहिए?

नाई - हां, बहिन, चलकर दे दीजिए।

निर्मला - अच्छा चलती हूं। पहले यह बता, तू दुल्हा के बड़े भाई को पहचानता है?

नाई - पहचानता काहे नहीं, यह क्या सामने हैं।

निर्मला - कहां, मैं तो नहीं देखती?

नाई - अरे, वह क्या घोड़े पर सवार हैं। वहीं तो हैं।

निर्मला ने चकित होकर कहा - क्या कहता है, घोड़े पर दूल्हा के भाई है! पहचानता है या अटकल से ही कह रहा है?

नाई - अरे बहिनजी, क्या इतना भूल जाऊँगा? अभी जलपान का सामान दिये चला आ रहा हूं।

निर्मला - अरे, यह तो डॉक्टर साहब है; मेरे पड़ोस में रहते हैं।

निर्मला ने सुधा की ओर देखकर कहा - सुनती हो बहिन, इसकी बातें?

सुधा ने हंसी रोककर कहा - झूठ बोलता है।

नाई - अच्छा साहब झूठ ही सही, अब बड़ों के मुंह कौन लगे? अभी शास्त्रीजी से पुछावा दूंगा, तब मानिएगा?

नाई को आने में देर हुई, तो मोटेराम खुद आंगन में आकर शोर मचाने लगे - इस घर की मर्यादा ईश्वर ही के हाथ है! नाई घंटे-भर से आया हुआ है और अभी तक रुपये नहीं मिले।

निर्मला - जरा यहां चले आइए शास्त्रीजी! कितने रुपये दरकार हैं, निकाल दूं।

शास्त्रीजी - भुन-भुनाते और जोर-जोर से हाँफते हुए ऊपर आये है, और एक लम्बी सांस लेकर बोले - क्या है? यह बातों का समय नहीं है, जल्दी से रुपये निकाल दो।

निर्मला लीजिए, निकाल तो रही हूं अब क्या मुंह के बल गिर पड़ूं पहले यह बताइए कि दूल्हा के बड़े भाई कौन है?

शास्त्रीजी - राम राम! इतनी सी बात के लिए मुझे आकाश पर लटका दिया। नाई क्या न पहचान सकता था?

निर्मला - नाई तो कहता है कि वह घोड़े पर सवार है, वहीं हैं?

शास्त्रीजी - तो फिर किसे बता दें! वही तो हैं ही।

नाई - घड़ी-भर से कह रहा हूं पर बहिनजी मानती ही नहीं।

निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, माता, विनोद और कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देखकर कहा - अच्छा, तुम्हीं अब तक मेरे साथ यह त्रियाचरित्र खेल रही थी! मेरे साथ शरारत करती चली आती हो, और कभी भूल से इस विषय का एक शब्द तुम्हारे मुंह से नहीं निकला। मैं तो दो-चार दिन ही मैं उबल पड़ती।

सुधा - तुम्हें मालूम हो जाता तो मेरे यहाँ आती ही क्यों?

निर्मला - गजब, रे गजब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूं। तुम्हारे ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा। देखी कृष्णा, तूने अपनी जेठानी की शरारत! यह ऐसी मायाविनी हैं, इनसे डरती रहना।

कृष्णा - मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर चढ़ाऊंगी। धन्य भाग कि इनके दर्शन हुए।

निर्मला - अब समझ गई। रुपये भी तुम्हीं ने भेजवाए होंगे। अब सिर हिलाया तो सच कहती हूं मार बैठूंगी।

सुधा - अपने घर बुलाकर मेहमान का अपमान नहीं किया जाता।

निर्मला - देखो तो अभी कैसी-कैसी खबर लेती हूं। मैंने तुम्हारा मान रखने को जरा-सा लिख दिया था, और तुम सचमुच आ पहुंची। भला वहां वाले क्या कहते होंगे?

सुधा - सबसे कहकर आयी हूं।

निर्मला - अब तुम्हारे पास कभी न आऊँगी। इतना तो इशारा कर देतीं कि डॉक्टर साहब से परदा रखना।

सुधा - उनके देख लेने से ही कौन बुराई हो गई? न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़कर कैसी चीज खो दी? अब तो तुम्हें देखकर लालाजी हाथ मलकर रह जाते है। मुंह से कुछ नहीं कहते, पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं।

निर्मला - अब तुम्हारे घर कभी न आऊंगी।

सुधा - अब पिंड नहीं छूट सकता। मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नहीं देखी है।

द्वार-पूजा सम्पन्न हो चुकी थी। मेहमान लोग बैठे जलपान कर रहे थे। मुंशीजी के बगल में डॉक्टर सिन्हा बैठे थे। निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें देखा और कलेजा थाम कर रह गई। आरोग्य यौवन और प्रतिभा का देवता था; पर दूसरा इस विषय में कुछ न कहना उचित है।

निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों बार देखा था, पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे। बार-बार जी यही चाहता था कि बुलाकर खूब फटकारूँ, ऐसे-ऐसे ताने मारूं कि वह भी याद करें; रुला-रुलाकर छोड़ूं, मगर रहम करके रह जाती थी। बारात जनवासे चली गयी थी। भोजन की तैयारी हो रही थी। निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी। सहसा महरी ने आकर कहा - बिट्टो, तुम्हें सुधा रानी बुला रही हैं। तुम्हारे कमरे में बैठी हैं।

निर्मला ने थाल छोड़ दिये और घबराई हुई सुधा के पास आयी मगर अन्दर कदम रखते ही ठिठक गई - डॉक्टर सिन्हा खड़े थे।

सुधा ने मुस्कराकर कहा - लो बहिन, बुला दिया। अब जितना चाहो, फटकारो। मैं दरवाजा रोके खड़ी हूं भाग नहीं सकते।

डॉक्टर साहब ने गम्भीर भाव से कहा - भागता कौन है? यहां तो सिर झुकाए खड़ा हूं।

निर्मला ने हाथ जोड़कर कहा - इसी तरह सदा कृपादृष्टि रखिए, भूल न जाइएगा यही मेरी विनय है।

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