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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 22

08:00 PM Jan 16, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   22
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अबकी सुधा के साथ निर्मला को आना पड़ा। वह तो मैके में कुछ दिन और रहना चाहती थी, लेकिन शोकातुर सुधा अकेले कैसे रहती? उसकी खातिर आना ही पड़ा। रुक्मिणी ने भूंगी से कहा - देखती है बहू मैके से कैसा निखरकर आयी है। भूंगी ने कहा - दीदी, मां के हाथ की रोटियां लड़कियों को बहुत अच्छी लगती हैं। रुक्मिणी - ठीक कहती है भूंगी, खिलाना तो कुछ मां ही जानती है।

निर्मला को ऐसा मालूम हुआ कि घर का कोई आदमी उसके आने से खुश नहीं। मुंशीजी ने खुशी तो बहुत दिखायी, पर हृदयगत चिन्ता को न छिपा सके। बच्ची का नाम सुधा ने आशा रख दिया था। वह आशा की मूर्ति-सी थी भी। देखकर सारी चिन्ता भाग जाती थी। मुंशीजी ने उसे गोद में लेना चाहा तो रोने लगी; दौड़कर मां से लिपट गई, मानो पिता को पहचानती ही नहीं। मुंशीजी ने मिठाइयों से उसे परचाना चाहा। घर में कोई नौकर तो था नहीं, जाकर सियाराम से दो आने की मिठाइयां लाने को कहा। जियाराम भी बैठा हुआ था। बोल उठा - हम लोगों के लिए तो कभी मिठाइयां नहीं आती।

मुंशीजी ने झुंझलाकर कहा - तुम लोग बच्चे नहीं हो।

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जियाराम - और क्या बूढ़े हैं? मिठाइयां मंगवाकर रख दीजिए, तो मालूम हो कि बच्चे हैं या बूढ़े हैं! निकालिए चार आने और! आशा की बदौलत हमारे नसीब भी जागे।

मुंशीजी - मेरे पास इस वक्त पैसे नहीं हैं। जाओ सिया, जल्द आना।

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जियाराम - सिया नहीं जाएगा! किसी का गुलाम नहीं है। आशा अपने बाप की बेटी है, तो वह भी अपने बाप का बेटा है।

मुंशीजी - क्या फजूल की बातें करते हो। नन्ही-सी बच्ची की बराबरी करते तुम्हें शर्म नहीं आती। जाओ सियाराम ये पैसे लो।

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जियाराम - मत जाना सिया! तुम किसी के नौकर, नहीं हो।

सिया बड़ी दुविधा में पड़ गया। किसका कहना माने? अन्त में उसने जियाराम का कहना मानने का निश्चय किया। बाप ज्यादा-से-ज्यादा घुड़क देंगे, जिया तो मारेगा, फिर वह किसके पास फरियाद लेकर जायेगा? बोला - मैं न जाऊँगा।

मुंशीजी - खुद बाहर चले गए और एक रुपये की मिठाई लेकर लौटे। दो आने की मिठाई मांगते हुए उन्हें शर्म आयी। हलवाई उन्हें पहचानता था। दिल में क्या कहेगा?

मिठाई लिए मुंशीजी अन्दर चले गये। सियाराम ने मिठाई का बड़ा सा दोना देखा, तो बाप का कहना न मानने का उसे दुःख हुआ। अब वह किस मुँह से मिठाई लेने अन्दर जायेगा? बड़ी भूल हुई। वह मन-ही-मन जियाराम के चांटों की चोट और मिठाई की मिठास में तुलना करने लगा।

सहसा भूंगी ने दो तश्तरियां दोनों के सामने लाकर रख दी। जियाराम न बिगड़कर कहा - इसे उठा ले जा!

भूंगी - काहे को बिगड़ते हो बाबू क्या मिठाई अच्छी नहीं लगती?

जियाराम - मिठाई आशा के लिए आई है, हमारे लिए नहीं। ले जा, नहीं तो मैं सड़क पर फेंक दूंगा। हम तो पैसे-पैसे के लिए रटते रहते हैं और यहाँ रुपये की मिठाई आती है।

भूंगी - तुम ले लो सिया बाबू यह न लेंगे न सही।

सियाराम ने डरते-डरते हाथ बढ़ाया था कि जियाराम ने डांटकर कहा - मत छूना मिठाई, नहीं तो हाथ तोड़कर रख दूंगा। लालची कहीं का!

सियाराम यह घुड़की सुनकर सहम उठा; मिठाई खाने की हिम्मत न पड़ी। निर्मला ने यह सुनी, तो दोनों लड़कों को मनाने चली। मुंशीजी ने कही कसम रखा दी।

निर्मला - आप समझते नहीं, यह सारा गुस्सा मुझ पर है।

मुंशी - गुस्ताख हो गया है। इस ख्याल से कोई सकी नहीं करता कि लोग कहेंगे, बिना मां के बच्चों को सताते हैं, नहीं तो सारी शरारत घड़ी-भर में निकाल दूं।

निर्मला - इसी बदनामी का तो मुझे भी डर है।

मुंशीजी - अब न डरूंगा, जिसके जी में जो आये, कहे।

निर्मला - पहले तो यह ऐसे न थे।

मुंशीजी - अजी कहता है कि आपके लड़के मौजूद थे, अपने शादी क्यों की। यह कहते भी इस संकोच नहीं होता कि आप लोगों ने मंसाराम को विष दे दिया! लड़का नहीं है, शत्रु है।

जियाराम द्वार पर छिपकर खड़ा था। स्त्री-पुरुष में मिठाई के विषय में क्या बातें होती हैं, यही सुनने वह आया था। मुंशीजी का वह अंतिम वाक्य सुनकर उससे रहा न गया। बोला - उठा शत्रु न होता, तो आप उसके पीछे क्यों पड़ते? आप जो इस वक्त कह रहे हैं, वह मैं बहुत पहले से समझे बैठा हूं? भैया न समझे थे, धोखा खा गए। हमारे साथ आपकी दाल न गलेगी; सारा जमाना कह रहा है कि भाई साहब को जहर दिया गया है। मैं कहता हूं तो आपको क्यों गुस्सा आता है?

निर्मला तो सन्नाटे में आ गई। मालूम हुआ, किसी ने उसकी देह पर अंगारे डाल दिए। मुंशीजी ने डांट कर जियाराम को चुप कराना चाहा; पर जियाराम निःशंक खड़ा ईंटों का जवाब पत्थर से देता रहा। यहां तक कि निर्मला को भी उस पर क्रोध आ गया। यह कल का छोकरा, किसी काम का न काज का, यों खड़ा टर्रा रहा है, जैसे घर-भर का पालन-पोषण यही करता हो। त्योरियां चढ़ाकर बोली - बस, अब बहुत हुआ जियाराम। मालूम हो गया, तुम बड़े लायक हो; बाहर जाकर बैठो।

मुंशीजी अब तक कुछ दब-दबकर बोलते रहे, निर्मला की शह पायी तो दिल बढ़ गया। दांत पीसकर लपके और इसके पहले कि निर्मला उनके हाथ पकड़ सके, एक थप्पड़ चला ही दिया। थप्पड़ निर्मला के मुँह पर पड़ा। वही सामने पड़ी। माथा चकरा गया। मुंशीजी के सूखे हुए हाथों में भी इतनी शक्ति है, इसका वह अनुमान न कर सख्ती थी। सिर पकड़कर बैठ गई। मुंशीजी का क्रोध और भी भड़क उठा, फिर घूंसा चलाया। पर अबकी जियाराम ने उनका हाथ पकड़ लिया और पीछे ढकेलकर बोला - दूर से बात कीजिए, क्यों नाहक अपनी बेइज्जती करवाते है? अम्माजी का लिहाज कर रहा हूं नहीं तो दिखा देता।

यह कहता हुआ वह बाहर चला गया। मुंशीजी संज्ञाशून्य से खड़े रहे। इस वक्त अगर जियाराम पर दैवी वज्र गिर पड़ता, तो शायद उन्हें हार्दिक आनंद होता। जिस पुत्र को कभी गोद में लेकर निहाल हो जाते थे, उसी के प्रति आज भांति-भांति की दुष्कल्पनाएं मन में आ रही थीं। रुक्मिणी अब तक तो अपनी कोठरी में थीं, अब आकर बोली बेटा जब अपने बराबर हो गया, तो उस पर हाथ न छोड़ना चाहिए।

मुंशीजी ने ओंठ चबाकर कहा - मैं इसे घर से निकालकर छोडूंगा भीख मांगे या चोरी करे, मुझसे कोई मतलब नहीं।

रुक्मिणी - नाक किसकी कटेगी?

मुंशीजी - इसकी चिन्ता नहीं।

निर्मला - मैं जानती कि मेरे आने से यह तूफान खड़ा हो जायेगा, तो भूलकर भी न आती। अब भी भला है, मुझे भेज दीजिए। इस घर में मुझसे न रहा जायेगा!

रुक्मिणी - तुम्हारा बहुत लिहाज करता है बहू! नहीं तो आज अनर्थ ही हो जाता।

निर्मला - अब और अनर्थ होगा दीदीजी! मैं तो फूंक-फूंककर पांव रखती हूं फिर भी अपयश लग ही जाता है। अभी घर में पांव रखते देर न हुई, यह हाल हो गया। ईश्वर की कुशल करे।

रात को भोजन करने न उठा। अकेले मुंशीजी ने खाया। निर्मला को आज नई चिन्ता हो गई - जीवन कैसे पार लगेगा! अपना ही पेट होता तो विशेष चिन्ता न थी। अब तो एक नई विपत्ति गले पड़े गई थी। वह सोच रही थी - बच्ची के भाग्य में क्या लिखा है राम!

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