For the best experience, open
https://m.grehlakshmi.com
on your mobile browser.

निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 25

08:00 PM Jan 23, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   25
Advertisement

रुक्मिणी ने निर्मला से त्यौरियों बदलकर कहा - क्या नंगे पांव मदरसे जायेगा?

निर्मला ने बच्ची के बाल गूंथते हुए कहा - मैं क्या करूं? मेरे पास रुपये नहीं है।

रुक्मिणी - गहने बनवाने को रुपये जुड़ते हैं, लड़के के जूतों के लिए रुपयों में आग लग जाती है! दो तो चले ही गये, क्या तीसरे को भी रुला-रुलाकर मार डालने का इरादा है?

Advertisement

निर्मला ने सांस खींचकर कहा - जिसको जीना है, जिएगा, जिसको मरना है, मरेगा; मैं किसी को मारने-जिलाने नहीं जाती।

आजकल एक-न-एक बात पर निर्मला और रुक्मिणी में रोज ही झड़प हो जाती थी। जबसे गहने चोरी गए है, निर्मला का स्वभाव बिल्कुल बदल गया है। वह एक-एक कौड़ी दांत से पकड़ने लगी है। सियाराम रोते-रोते चाहे जान दे-दे मगर उसे मिठाई के लिए पैसे नहीं मिलते; और यह बर्ताव कुछ सियाराम ही के साथ नहीं है, निर्मला स्वयं अपनी जरूरतों को टालती रहती है। धोती जब तक फटकर तार-तार न हो जाये, नई धोती नहीं आती। महीनों सिर का तेल नहीं मंगाया जाता। पान खाने का शौक था, कई-कई दिन तक पानदान खाली पड़ा रहता है, यहां तक कि बच्ची के लिए दूध भी नहीं आता। नन्हे से शिशु का भविष्य विराट रूप धारण करके उसके विचार क्षेत्र पर मंडराता है।

Advertisement

मुंशीजी ने अपने को सपूर्णतः निर्मला के हाथों में सौंप दिया है। उसके किसी काम में दखल नहीं देते। न जाने क्यों उससे कुछ दबे रहते हैं। वह अब बिना नागा कचहरी जाते हैं। इतनी मेहनत उन्होंने जवानी में भी न की थी। आंखें खराब हो गई हैं। डॉक्टर सिन्हा ने रात को लिखने-पढ़ने की मुमानियत कर दी है। पाचन-शक्ति पहले ही दुर्बल थी, अब और भी खराब हो गई है। दमे की शिकायत भी पैदा हो चली, पर बेचारे सवेरे से आधी रात तक काम करते हैं। काम करने को जी चाहे या न चाहे, तबीयत अच्छी हो या न हो, काम करना ही पड़ता है। निर्मला को उन पर जरा भी दया नहीं आती। यही भविष्य की भीषण चिन्ता उसके आन्तरिक सद्भावों का सर्वनाश कर रही है। किसी भिक्षुक की आवाज सुनकर झल्ला पड़ती है। वह एक कौड़ी भी खर्च करना नहीं चाहती।

एक दिन निर्मला ने सियाराम को घी लाने के लिए भेजा। भूंगी पर उसका विश्वास न था, उससे अब कोई सौदा न मंगाती थी। सियाराम में काट-कपट की आदत न थी। औने-पौने करना न जानता था। प्राय: बाजार का सारा काम उसी को करना पड़ता। निर्मला एक-एक चीज तौलती, जरा भी कोई चीज तौल में कम पड़ती उसे लौटा देती सियाराम का बहुत-सा समय इसी लौटा-फेरी में बीत जाता था। बाजार वाले उसे जल्दी कोई सौदा न देते। आज भी वही नौबत आयी। सियाराम अपने विचार से बहुत अच्छा था, कई दुकानों से देखकर लाया, पर निर्मला ने उसे सूंघते ही कहा - घी खराब है, लौटा आओ।

Advertisement

सियाराम ने झुंझलाकर कहा - इससे अच्छा घी बाजार में नहीं, मैं सारी दुकान देखकर लाया हूं।

निर्मला - तो मैं झूठ कहती हूं?

सियाराम - यह मैं नहीं कहता, लेकिन बनिया अब घी वापस न लेगा। उसने मुझसे कहा था, जिस तरह देखना चाहो, देखो, माल तुम्हारे सामने है, बोहनी-बट्टे के वक्त सौदा वापस न दूंगा। मैंने सूंघकर, चखकर लिया। अब किस मुंह से लौटाने जाऊं?

निर्मला ने दांत पीसकर कहा - घी में साफ चरबी मिली हुई है और तुम कहते हो, घी अच्छा है! मैं इसे रसोई में न ले जाऊंगी; तुम्हारा जी चाहे लौटा दो, चाहे खा जाओ।

घी की हांडी वहीं छोड़कर निर्मला घर में चली गई। सियाराम क्रोध और क्षोभ में कातर हो उठा। वह कौन मुंह लेकर लौटाने जाये? बनिया साफ कह देगा, मैं नहीं लौटाता। तब वह क्या करेगा? आस-पास के दस-पांच बनिये और सड़क पर चलने वाले आदमी खड़े हो जायेंगे। उन सबों के सामने उसे लज्जित होना पड़ेगा। बाजार में यों ही कोई बनिया उसे जल्दी सौदा नहीं देता। वह किसी दुकान पर खड़ा नहीं होने पाता। चारों ओर से उसी पर लताड़ पड़ेगी। उसने मन-ही-मन झुंझलाकर कहा - पड़ा रहे घी मैं लौटाने न जाऊंगा।

मातृहीन बालक के समान दुःखी-दीन प्राणी संसार में दूसरा नहीं होता और सारे दुःख भूल जाते हैं। बालक को माता याद आई। अम्मा होती जो क्या आज मुझे यह सब सहना पड़ता! भैया चले गए; मैं ही अकेला यह विपत्ति सहने के लिए क्यों बच रहा? सियाराम की आंखों से आंसू की झड़ी लग गई। उसके शोक-कातर कण्ठ से एक गहरे निःश्वास के साथ मिले हुए शब्द निकल आए - अम्मा! मुझे क्यों भूल गई, मुझे क्यों नहीं बुला लेती?

सहसा निर्मला फिर कमरे की तरफ आयी। उसने समझा था, सियाराम चला गया होगा। उसे बैठे देखा, तो गुस्से से बोली - तुम अभी तक बैठे ही हो? आखिर खाना कब बनेगा?

सियाराम ने आंखें पोंछ डालीं। बोला - मुझे स्कूल जाने में देर हो जायेगी।

निर्मला - एक दिन हो जायेगी, तो कौन हरज है? यह भी तो घर का काम है।

सियाराम - रोज तो यही धन्धा लगा रहता है। कभी वक्त पर नहीं पहुंचता। घर पर भी पढ़ने का वक्त नहीं मिलता। कोई सौदा दो-चार बार लौटाए बिना नहीं लिया जाता। डांट तो मुझ पर पड़ती है, शर्मिन्दा तो मुझे होना पड़ता है, आपको क्या?

निर्मला - हां मुझे क्या? मैं तो तुम्हारी दुश्मन ठहरी, अपना होता तब तो उसे दुःख होता। मैं तो ईश्वर से मनाया करती हूं कि तुम पढ़ लिख न सको। मुझमें सारी बुराइयां-ही-बुराइयां है। तुम्हारा कसूर नहीं। विमाता का नाम ही बुरा होता है। तुम लोगों के कारण मैं मिट्टी में मिल गई! रोते-रोते उम्र कटी जाती है, मालूम ही न हुआ कि भगवान् ने किसलिए जन्म दिया था; और तुम्हारी समझ में मैं विहार कर रही हूं। तुम्हें सताने में मुझे मजा आता है! भगवान् भी नहीं पूछते कि सारी विपत्ति का अन्त हो जाता।

यह कहते-कहते निर्मला की आंखें भर आई। अन्दर चली गई। सियाराम उसको रोते देखकर सहम उठा। उसे ग्लानि तो नहीं हुई; हां यह शंका हुई कि न जाने कौन-सा दण्ड मिले। चुपके से हांडी उठा ली और घी लौटाने चला, इस तरह जैसे कोई कुत्ता किसी नए गांव में जाता है। उसी कुत्ते की भाँति उसकी मनोगत वेदना उसके एक-एक भाव से प्रकट हो रही है। उसे देखकर साधारण बुद्धि का मनुष्य भी अनुमान कर सकता है कि अनाथ है।

सियाराम ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, आने वाले संग्राम के भय से उसकी हृदयगति बढ़ती जाती थी। उसने निश्चय किया - बनिए ने घी न लौटाया तो वह घी वहीं छोड़कर चला आएगा। झक मारकर बनिया आप ही बुलाएगा। बनिए को डांटने के लिए भी उसने शब्द सोच लिए! बह कहेगा, क्यों साहजी, आंखों में धूल झोंकते हो। दिखाते हो चोखा माल और देते हो रद्दी! पर यह निश्चय करने पर भी उसने पैर आगे बहुत धीरे-धीरे उठते थे। वह न जानता था कि बनिया उसे आता हुआ देखे। वह अकस्मात ही उसके सामने पहुँच जाना चाहता था। इसलिए वह चक्कर काटकर दूसरी गली से बनिये की दुकान पर गया।

बनिये ने उसे देखते ही कहा - हमने कह दिया था कि सौदा वापस न लेंगे। बोलो, कहा था कि नहीं?

सियाराम ने बिगड़कर कहा - तुमने वह घी कहां दिया, जो दिखाया था! दिखाया था एक नंबर माल दिया दूसरा माल, लौटाओगे कैसे नहीं? क्या कुछ राहजनी है?

साह - इससे चोखा माल बाजार में निकल आये, तो जरीवना दूं। उठा लो हांडी और दो-चार दुकान देख आओ।

सियाराम - हमें इतनी फुर्सत नहीं है। अपना घी लौटा लो।

साह - घी न लौटेगा।

बनिये की दुकान पर एक जटाधारी साधु बैठा हुआ तमाशा देख रहा था। उठकर सियाराम के पास आया और हांडी का घी सूंघकर बोला - बच्चा, घी तो बहुत अच्छा मालूम होता है।

साह ने शह पाकर कहा - बाबाजी, हम लोग तो आप ही इनको घटिया सौदा नहीं देते। खराब माल क्या जाने-सुने ग्राहकों को दिया जाता है।

साधु - घी ले जाव बच्चा, बहुत अच्छा है।

सियाराम रो पड़ा। घी को बुरा सिद्ध करने के लिए उसके पास अब क्या प्रमाण था? बोला - वहीं तो कहती है, घी अच्छा नहीं है। लौटा आओ। मैं तो कहता था, घी अच्छा है।

साह - इनकी अम्मा कहती होगी। कोई सौदा मन में नहीं भाता। बेचारे लड़के को बार-बार दौड़ाया करती है। सौतेली मां है न! अपनी मां हो तो कुछ ख्याल भी करे।

साधु ने सियाराम को सदय नेत्रों से देखा; माने उसे ऋण देने के लिए उनका हृदय व्याकुल हो रहा है। तब करुण स्वर में बोले - तुम्हारी मां का स्वर्गवास हुए कितने दिन हुए बच्चा।

सियाराम - छठा साल है।

साधु - तब तो तुम उस वक्त बहुत छोटे रहे होगे। भगवान तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है! इस दुधमुंहे बालक को मातृप्रेम से वंचित कर दिया। बड़ा अनर्थ करते हो भगवान्! छह साल का बालक और राक्षसी विमाता के पाले पड़े! धन्य हो दयानिधि! साहजी बालक पर दया करो - घी लौटा लो, नहीं तो इसकी माता इसे घर में न रहने देगी। भगवान की इच्छा से तुम्हारा घी जल्द बिक जायेगा। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा।

साहजी ने रुपये वापस न किए। आखिर लड़के को फिर घी लेने आना ही पड़ेगा। न जाने दिन में कितनी बार चक्कर लगाना पड़े और किस जालिये से पाला पड़े। उसकी दुकान में तो घी सबसे अच्छा था, वह सियाराम को दे दिया। सियाराम दिल में सोच रहा था, बाबाजी कितने दयालु है। उन्होंने सिफारिश न की होती, जो साहजी क्या अच्छा घी देते?

सियाराम घी लेकर चला, तो बाबाजी भी उसके साथ हो लिये। रास्ते में मीठी-मीठी बातें करने करने लगे -

बच्चा मेरी माता भी मुझे तीन साल का छोड़कर परलोक सिधारी थी। तभी से मातृविहीन बालकों को देखता हूं तो मेरा हृदय फटने लगता है।

सियाराम ने पूछा - आपके पिता ने भी दूसरा विवाह कर लिया था?

साधु - हां बच्चा, नहीं तो आज साधु क्यों होता। पहले पिताजी विवाह न करते थे। मुझे बहुत प्यार करते थे। फिर न जाने क्यों मन बदल गया - विवाह कर लिया। साधु हूं कटुवचन मुंह से न निकालना चाहिए; पर मेरी विमाता जितनी सुन्दर थी उतनी कठोर भी। मुझे दिन-दिन भर खाने को न देती, रोता तो मारती, पिताजी की आँखें भी फिर गई। उन्हें मेरी सूरत से घृणा होने लगी। मेरा रोना सुनकर मुझे पीटने लगते। अंत में एक दिन घर से निकल खड़ा हुआ।

सियाराम के मन में भी घर से निकल भागने का विचार कई बार हुआ था। इस समय भी उसके मन में यही विचार उठ रहा था। बड़ी उत्सुकता से बोला - घर से निकलकर आप कहां गये?

बाबाजी ने हंसकर - उसी दिन मेरे कष्टों का अन्त हो गया। जिस दिन घर के मोह बन्धन से छूटा और भय मन से निकला, उसी दिन मानो मेरा उद्धार हो गया। दिन-भर तो मैं पुल के नीचे बैठा रहा। संध्या समय मुझे एक महात्मा मिल गए। उनका नाम स्वामी परमानन्दजी था। वे बाल ब्रह्मचारी थे। मुझ पर उन्होंने दया की और अपने साथ रख लिया। उनके पास में देश-देशांतर में घूमने लगा। वह बड़े योगी थे। मुझे भी उन्होंने योग-विद्या सिखायी। अब तो मेरे को इतना अभ्यास हो गया है कि जब इच्छा होती है, माताजी का दर्शन कर लेता हूं। उनसे बात कर लेता हूं।

सियाराम ने विस्फारित नेत्रों से देखकर पूछा - आपकी माता का तो देहान्त हो चुका?

साधु - तो क्या हुआ बच्चा, योग-विद्या में वह शक्ति है कि जिस मृत आत्मा को चाहे बुला लो।

सियाराम - मैं योग विद्या सीख लूं तो मुझे भी माताजी के दर्शन होंगे?

साधु - अवश्य! अभ्यास से सब कुछ हो सकता है। हां, योग्य गुरु चाहिए। योग से बड़ी-बड़ी सिद्धियां प्राप्त हो सकती है। जितना धन चाहो पल-मात्र में मंगा सकते हो। कैसी ही बीमारी हो, उसकी औषधि बता सकते हो।

सियाराम - आपका स्थान कहां है?

साधु - बच्चा, मेरा स्थान कहीं नहीं है। देश-देशांतर में रमता फिरता हूं। अच्छा-बच्चा अब तुम जाओ, मैं जरा स्नान-ध्यान करने जाऊंगा।

सियाराम - चलिए, मैं भी उसी तरफ चलता हूं। आपके दर्शन से जी नहीं भरा।

साधु - नहीं बच्चा, तुम्हें पाठशाला जाने को देर हो रही है।

सियाराम - फिर आपके दर्शन कब होंगे?

साधु - कभी आ जाऊंगा बच्चा, तुम्हारा घर कहां है?

सियाराम प्रसन्न होकर बोला - चलिएगा मेरे घर, बहुत नजदीक है। आपकी बड़ी कृपा होगी।

सियाराम कदम बढ़ाकर आगे चलाने लगा। इतना प्रसन्न था, मानो सोने की गठरी लिये जाता हो। घर के सामने पहुंचकर बोला - आइए, बैठिए कुछ देर।

साधु - नहीं बच्चा, बैठूंगा नहीं। फिर कल-परसों किसी समय आ जाऊंगा। यही तुम्हारा घर है।

सियाराम - कल किस वक्त आएंगे?

साधु - आगे बढ़े, तो थोड़ी ही दूर पर उन्हें एक दूसरा साधु मिला। उसका नाम था हरिहरानन्द।

परमानन्द ने पूछा - कहां-कहां की सैर की? कोई शिकार फंसा?

हरिहरानन्द - इधर तो चारों तरफ घूम आया, कोई शिकार न मिला। एकाध मिला तो मेरी हंसी उड़ाने लगा।

परमानन्द - मुझे तो एक मिलता हुआ जान पड़ता है। फंस जाये तो जानूं।

हरिहरानन्द - तुम यों ही कहा करते हो। जो आता है, दो चार दिन के बाद निकल भागता है।

परमानन्द - अबकी न भागेगा; देख लेना। इसकी मां मर गई है। बाप ने दूसरा विवाह कर लिया है। मां भी सताया करती है। घर से ऊबा हुआ है।

हरिहरानन्द - खूब अच्छी तरह। यही तरकीब सबसे अच्छी है। पहले इसका पता लगा लेना चाहिए कि मुहल्ले में किन-किन घरों में विमाताएं है। उन्हीं घरों में फन्दा डालना चाहिए।

Advertisement
Advertisement