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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 26

08:00 PM Jan 25, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   26
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निर्मला ने बिगड़कर पूछा - इतनी देर कहां लगायी थी?

सियाराम ने ढिठाई से कहा - रास्ते में एक जगह सो गया था।

निर्मला - यह तो मैं नहीं कहती, पर जानते हो, कितने बज गए हैं? दस कभी के बज गए। बाजार कुछ दूर भी तो नहीं है।

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सियाराम - कुछ दूर नहीं, दरवाजे पर ही तो है।

निर्मला - सीधे से क्यों नहीं बोलते? ऐसा बिगड़ रहे हो, जैसे मेरा ही कोई काम करने गये हो।

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सियाराम - तो आप व्यर्थ की बकवास क्यों करती हैं? लिया सौदा लौटाना क्या आसान है? बनिये से घंटों हुज्जत करनी पड़ी। यह तो कहो, एक बाबाजी ने कह सुनकर फेरवा दिया, नहीं तो किसी तरह न फेरता। रास्ते में कही एक मिनट भी नहीं रुका; सीधा चला आता हूं।

निर्मला - घी के लिए गये, तो तुम ग्यारह बजे लौटे हो; लकड़ी के लिए जाओगे तो सांझ ही कर दोगे? तुम्हारे बाबूजी बिना खाए ही चले गए। तुम्हें इतनी देर लगानी थी तो पहले ही क्यों न कह दिया? जाते हो लकड़ी के लिए?

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सियाराम - अब अपने को न संभाल सका। झल्लाकर बोला - लकड़ी किसी और से मंगाइए। मुझे स्कूल जाने की देर हो रही है।

निर्मला - खाना न खाओगे?

सियाराम - न खाऊंगा।

निर्मला - मैं खाना बनाने को तैयार हूं। हां, लकड़ी लाने नहीं जा सकती।

सियाराम - भूंगी को क्यों नहीं भेजती।

निर्मला - भूंगी का लाया सौदा तुमने कभी देखा नहीं।

सियाराम - तो मैं इस वक्त न जाऊंगा।

निर्मला - मुझे दोष न देना।

सियाराम कई दिनों से स्कूल नहीं गया था। बाजार-हाट के मारे उसे किताबें देखने का समय भी न मिलता था। स्कूल जाकर झिड़कियां खाने, बेंच पर खड़े होने या ऊँचा टोपी देने के सिवा और क्या मिलता? वह घर से किताबें लेकर चलता; पर शहर जाकर किसी वृक्ष की छांह में बैठा रहता था। पलटनों की कवायद देखता। तीन बजे घर लौट आता। आज भी वह घर से चला; लेकिन उसे रोटियों के भी लाले पड़ गए। दस बजे क्या खाना न बन सकता था। माना कि बाबूजी चले गए थे। क्या मेरे लिए घर में दो-चार पैसे भी न थे? अम्मा होती तो इस तरह बिना कुछ खाए-पिए उगने नहीं देती? मेरा अब कोई नहीं रहा।

सियाराम का मन बाबाजी के दर्शन के लिए व्याकुल हो उठा। उसने सोचा इस वक्त वह कहां मिलेंगे? कहां चलकर देखूं? उनकी मनोहर वाणी, उनकी उत्साहप्रद सान्त्वना, उसके मन को खींचने लगी। उसने आतुर होकर कहा - मैं उनके साथ ही क्यों न चला गया? घर पर मेरे लिए क्या रखा था।

वह आज यहां से चला, तो घर न जाकर सीधा घी वाले साहजी की दुकान पर गया। शायद बाबाजी से वहां मुलाकात हो जाये। पर वहां बाबाजी न थे। बड़ी देर तक खड़ा-खड़ा लौट आया। घर आकर बैठा ही था कि निर्मला ने आकर कहा - आज देर कहां लगायी? सवेरे खाना नहीं बना, क्या इस वक्त भी उपवास होगा? जाकर बाजार से कोई तरकारी लाओ।

सियाराम ने झल्लाकर कहा - दिन भर का भूखा चला आता हूं। कुछ पानी पीने तक को लायी नहीं; ऊपर से बाजार जाने का हुक्म दे दिया। मैं नहीं जाता बाजार! किसी का नौकर नहीं हूं। आखिर रोटियां ही तो खिलाती हो या और कुछ? ऐसी रोटियां जहाँ मेहनत करूंगा, वहीं मिल जायेंगी। जब मजूरी ही करनी है, तो आपकी न करूंगा। जाइए मेरे लिए खाना मत बनाइएगा।

निर्मला अवाक् रह गयी। लड़के को आज यह क्या हो गया? और दिन तो चुपके से जाकर काम कर लाता था, आज क्यों त्योरियां बदल रही है? तब भी उसको यह न सूझी कि सियाराम को दो-चार पैसे कुछ खाने को दे दे। उसका स्वभाव इतना कृपण हो गया था, बोली - घर का काम करना तो मजूरी नहीं कहलाती। इसी तरह मैं भी कह दूं कि खाना नहीं पकाती; तुम्हारे पिताजी कह दे मैं कचहरी नहीं जाता, तो क्या हो, बताओ नहीं जाना चाहते हो, मत जाओ, भूंगी से मंगा दूंगी। क्या मैं जानती थी कि तुम्हें बाजार जाना बुरा लगता है, नहीं तो बला से धेले की चीज पैसे में आती, तुम्हें न भेजती। लो, आज से कान पकड़ती हूं।

सियाराम दिल में कुछ लज्जित तो हुआ, पर बाजार न गया। उसका ध्यान बाबाजी को ओर लगा हुआ था। आज सारे दुःखों का अन्त और जीवन की सारी आशाएं उसे अब बाबाजी के आशीर्वाद में मालूम होती थी। उन्हीं की शरण जाकर उसका यह आधारित जीवन सार्थक होगा। सूर्यास्त के समय वह अधीर हो गया। सारा बाजार छान मारा; लेकिन बाबाजी का कहीं पता न मिला। दिन-भर का भूखा प्यासा, वह अबोध बालक दुखते हुए दिल को हाथों से दबाए, आशा और भय की मूर्ति बना हुआ, मकानों, गलियों और मंदिरों से उस आश्रय को खोजता-फिरता था, जिसके बिना उसे अपना जीवन दुस्सह हो रहा था। एक बार एक मन्दिर के सामने उसे कोई खड़ा दिखाई दिया। उसने समझा वहीं है। हर्षोल्लास से वह फूल उठा। दौड़ा और जाकर साधु के पास खड़ा हो गया; पर वह कोई और ही महात्मा थे। निराश होकर आगे बढ़ गया।

धीरे-धीरे सड़कों पर सन्नाटा छा गया। घरों के द्वार बन्द होने लगे। सड़क की पटरियों पर और गलियों में बसखटे या बोरे बिछा-बिछाकर भारत की प्रजा सुख-निद्रा में मग्न होने लगी। लेकिन सियाराम घर न लौटा। उस घर से उसका दिल फट गया था। किसी को उससे प्रेम न था, वहां तो वह किसी पराश्रित की भांति पड़ा हुआ था - केवल इसलिए कि उसे और कहीं शरण न थी। इस वक्त भी उसके घर न जाने की किसे चिन्ता होगी? बाबूजी भोजन करके लेटे होंगे, अम्माजी भी आराम करने जा रही होगी। किसी ने मेरे कमरे की ओर झांककर देखा भी न होगा। हां, बुआजी घबरा रही होंगी। वही अभी तक मेरी राह देख रही होंगी। जब तक मैं न जाऊंगा भोजन न करेंगी।

रुक्मिणी की याद आते ही सियाराम घर की ओर चला। वह अगर और कुछ न कर सकती थी, तो कम-से-कम उसे गोद में चिपटाकर रोती तो थीं। उसके बाहर से आने पर नहीं करते, सभी सोने के कौर नहीं खाते। कितनों को पेट भर भोजन नहीं मिलता, पर घर से विरक्त वहीं होते हैं, जो मातृस्नेह से वंचित हैं।

सियाराम घर की ओर चला ही था कि सहसा बाबा परमानन्द एक गली से आते दिखाई दिए।

सियाराम ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया। परमानन्द ने चौंककर पूछा - बच्चा, तुम यहां कहां?

सियाराम ने बात बनाकर कहा - एक दोस्त से मिलने आया था। आपका स्थान यहां से कितनी दूर है?

परमानन्द - हम लोग तो यहां से जा रहे है बच्चा! हरिद्वार की यात्रा है।

सियाराम ने हतोत्साह होकर कहा - क्या आज ही चले जाइएगा?

परमानन्द - हां बच्चा, अब लौटकर आऊंगा तो दर्शन दूंगा!

सियाराम ने कातर कंठ से कहा - लौटकर!

परमानन्द - जल्द ही आऊंगा बच्चा!

सियाराम - घर के लोगों का मेरी क्या परवाह है! इससे आगे सियाराम और कुछ न कह सका। उसके अश्रुपूरित नेत्रों ने उसकी करुण गाथा उससे कहीं विस्तार के साथ सुना दी, जितनी उसकी वाणी कह सकती थी।

परमानन्द ने बालक को कंठ से लगाकर कहा - अच्छा बच्चा, तेरी इच्छा हो तो चल। साधु- संतों की संगति का भी आनन्द उठा। भगवान् की इच्छा होगी, तो तेरी इच्छा पूरी होगी। दाने पर मंडराता हुआ पक्षी अंत में दाने पर गिर पड़ा। उसके जीवन का अंत पिंजरे में होगा या व्याघ्र की छुरी के तले - यह कौन जानता है?

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