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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 27

08:00 PM Jan 27, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   27
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मुंशीजी पांच बजे कचहरी से लौटे और अन्दर आकर चारपाई पर गिर पड़े। बुढ़ापे की देह उस पर आज सारे दिन भोजन न मिला। मुंह सूख गया था। निर्मला समझ गई, आज दिन खाली गया।

निर्मला - आज कुछ नहीं मिला?

मुंशीजी - सारा दिन दौड़ते गुजरा, पर हाथ कुछ न लगा।

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निर्मला - फौजदारी वाले मामले में क्या हुआ?

मुंशीजी - मेरे मुवक्किल को सजा हो गई।

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निर्मला - पंडित वाले मुकदमे में?

मुंशीजी - पंडित पर डिग्री हो गई।

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निर्मला - आप तो कहते थे कि दावा खारिज हो जायेगा।

मुंशीजी - कहता तो था; अब भी कहता हूं कि दावा खारिज हो जानी चाहिए था; मगर उतना सिर मगजन कौन करे?

निर्मला और सौर वाले दावे में?

मुंशीजी - उसमें भी हार हो गई।

निर्मला - तो आज आप किसी अभागे का मुंह देखकर उठे थे।

मुंशीजी से अब काम बिल्कुल न हो सकता था। एक तो उनके पास मुकदमे आते ही न थे, और जो आते भी थे, वह बिगड़ जाते थे। मगर अपनी असफलताओं को वह निर्मला से छिपाते रहते थे। जिस दिन कुछ हाथ न लगता, उस दिन किसी से दो-चार रुपये उधार लाकर निर्मला को दे देते। प्राय: सभी मित्रों से कुछ-कुछ ले चुके थे। आज वह डौल भी न लगा।

निर्मला ने चिंतापूर्ण स्वर में कहा - आमदनी का यह हाल है, तो ईश्वर ही मालिक है; उस पर बेटे का यह हाल है कि बाजार जाना मुश्किल। भूंगी ही से सब काम कराने को जी चाहता है। घी लेकर ग्यारह बजे लौटा। कितना कहकर हार गई कि लकड़ी लेते आओ पर सुना नहीं।

मुंशीजी - तो खाना नहीं पकाया?

निर्मला - ऐसी ही बातों से तो आप मुकदमे हारते हैं। ईंधन के बिना किसी ने खाना बनाया है कि मैं ही बना लेती?

मुंशीजी - तो बिना कुछ खाए ही चला गया?

निर्मला - घर में और क्या रखा था, जो खिला देती?

मुंशीजी ने डरते-डरते कहा - कुछ पैसे-वैसे न दे दिये?

निर्मला ने भौहें सिकोड़कर कहा - घर में पैसे फलते हैं न!

मुंशीजी ने कुछ जवाब न दिया! जरा देर तो प्रतीक्षा करते रहे कि शायद जलपान के लिए कुछ मिलेगा; लेकिन जब निर्मला ने पानी मंगवाया, तो बेचारे निराश होकर बाहर चले गए। सियाराम के कष्ट का अनुमान करके उनका चित्त चंचल हो उठा। सारा दिन गुजर गया, बेचारे ने अभी कुछ न खाया। कमरे में पड़ा होगा। एक बार भूंगी ही से लकड़ी मंगा ली जाती, ऐसा क्या नुकसान हो जाता? ऐसी किफायत भी किस काम की कि घर के आदमी भूखे रह जाये। अपना संदूक खोल कर टटोलने लगे कि शायद दो-चार आने पैसे मिल जायें। उसके अन्दर के सारे कागजात निकाल डाले, एक-एक खाना देखा पर कुछ न मिला। अगर निर्मला के संदूक में पैसे न फलते थे, तो इस संदूकचे में शायद इसके फूल भी न लगते हो। लेकिन संयोग ही कहिए कि कागजों को झाड़ते हुए चवन्नी गिर पड़ी। मारे हर्ष के मुंशीजी उछल पड़े। बड़ी-बड़ी रकमें इसके पहले कमा चुके थे, पर यह चवन्नी पाकर इस समय उन्हें जितना आह्लाद हुआ उतना पहले कभी न हुआ था। चवन्नी हाथ में लिए हुए सियाराम के कमरे के सामने आकर पुकारा। कोई जवाब न मिला। तब कमरे में जाकर देखा। सियाराम का कहीं पता नहीं। क्या अभी स्कूल से नहीं लौटा? मन में यह प्रश्न उठते ही मुंशीजी ने अन्दर आकर भूंगी से पूछा। मालूम हुआ, स्कूल से लौट आये।

मुंशीजी ने पूछा - कुछ पानी पिया है?

भूंगी ने कुछ जवाब न दिया। नाक सिकोड़कर मुंह फेरते हुए चली गई।

मुंशीजी आहिस्ता! आहिस्ता! आकर अपने कमरे में बैठ गए। आज पहली बार उन्हें निर्मला पर क्रोध आया, लेकिन एक क्षण में क्रोध का आघात अपने ऊपर होने लगा। उस अंधेरे कमरे में फर्श पर लेटे हुए वह अपने को पुत्र की ओर से इतना उदासीन हो जाने पर धिक्कारने लगे। दिन-भर के थके थे, थोड़ी देर में उन्हें नींद आ गई!

भूंगी ने आकर पुकारा - बाबूजी रसोई तैयार है। मुंशीजी चौंककर उठ बैठे। कमरे में लैम्प जल रहा था।

मुंशीजी - कै बज गया भूंगी? मुझे नींद आ गई थी।

भूंगी - कोतवाली के घंटे में तो नौ बज गए है, और हम नाहीं जानित।

मुंशीजी - सिया बाबू आये?

भूंगी- आये होंगे तो घर ही में न होंगे?

मुंशीजी ने झुंझलाकर पूछा - मैं पूछता हूं आये कि नहीं? और तू न जाने क्या-क्या जवाब देती है। आये कि नहीं?

भूंगी - मैंने तो नहीं देखा, झूठ कैसे कह दूं।

मुंशीजी फिर बोले - उसको आ जाने दे, तब चलता हूं।

आधा घंटे तक घर की ओर आंख लगाए लेटे रहे! तब वह उठकर बाहर आये और दाहिने हाथ कोई दो फलांग तक चले। तब लौटकर द्वार पर आये और पूछा - सिया बाबू आ गए?

अन्दर से आवाज आई - अभी नहीं।

मुंशीजी फिर बायीं ओर चले और गली की नुक्कड़ तक गये। सियाराम कहीं दिखाई न दिया। वहां से फिर घर आये और द्वार पर खड़े होकर पूछा - सिया बाबू आ गए?

अन्दर से आवाज मिली - नहीं।

कोतवाली के घंटे में दस बजने लगे।

मुंशीजी बड़े वेग से कम्पनी बाग की तरफ चले। सोचने लगे शायद वहां घूमने गया हो और घास पर लेटे-लेटे नींद आ गई हो। बाग में पहुंच कर उन्होंने हर एक बेंच को देखा चारों तरफ घूमे। बहुत से आदमी घास पर पड़े हुए थे, पर सियाराम का निशान न था। उन्होंने सियाराम का नाम लेकर जोर से पुकारा पर कहीं से आवाज न आई।

ख्याल आया, शायद स्कूल में कोई तमाशा हो रहा हो। स्कूल एक मील से कुछ ज्यादा ही था। स्कूल की तरफ चले, पर आधे रास्ते से ही लौट पड़े! बाजार बन्द हो गया था। स्कूल में इतनी रात तमाशा नहीं हो सकता। अबकी उन्हें आशा हो रही थीं कि सियाराम लौट आया होगा। द्वार पर आकर उन्होंने पुकारा - सिया बाबू आये? किवाड़ बन्द थे। कोई आवाज न आई। फिर जोर से पुकारा। भूंगी किवाड़ खोलकर बोली - अभी तो नहीं आये। मुंशीजी ने धीरे से भूंगी को अपने पास बुलाया और करुण स्वर में बोले - तू तो घर की सब बातें जानती है, बता आज क्या हुआ था?

भूंगी - बाबूजी झूठ न बोलूंगी- मालकिन छुड़ा देगी और क्या? दूसरे का लड़का इस तरह नहीं रखा जाता। जहां कोई काम हुआ, बस बाजार भेज दिया! दिन-भर बाजार दौड़ते बीतता था। आज लकड़ी लाने न गये, तो चूल्हा ही नहीं जला। कहो तो मुंह फुलावें। जब आप ही नहीं देखते, तो दूसरा कौन देखेगा? चलिए? भोजन कर लीजिए। बहूजी कब से बैठी है।

मुंशीजी - कह दे इस वक्त नहीं खाएंगे।

मुंशीजी फिर अपने कमरे में चले गए और एक लम्बी सांस ली। वेदना से भरे हुए ये शब्द उनके मुंह से निकल पड़े - ईश्वर क्या अभी दंड पूरा नहीं हुआ? क्या इस अंधे की लकड़ी को हाथ से छीन लोगे?

निर्मला ने आकर कहा - आज सियाराम अभी तक नहीं आये। कहती रही कि खाना बनाए देती हूं खा लो मगर न जाने कब उठकर चल दिए! न जाने कहां घूम रहे हैं! बात तो सुनते ही नहीं। अब कब तक इनकी राह देखा करूं? आप चलकर खा लीजिए, उनके लिए खाना उठाकर रख दूंगी।

मुंशीजी ने निर्मला की ओर कठोर नेत्रों से देखकर कहा - अभी कै बजे होंगे?

निर्मला - क्या जाने दस बजे होंगे।

मुंशीजी - जी नहीं, बारह बजे है।

निर्मला शून्य में बोली बारह बज गए! इतनी देर तो कभी नहीं करते थे। तो अब कब तक उनकी राह देखोगे? दोपहर को भी कुछ नहीं खाया था। ऐसा सैलानी लड़का मैंने नहीं देखा।

मुंशीजी - जी तुम्हें बहुत दिक करता है, क्यों?

निर्मला - देखिए न, इतनी रात गई और घर की सुध ही नहीं।

मुंशीजी - शायद यह आखिरी शरारत हो।

निर्मला - कैसी बातें मुंह से निकालते हैं। जायेंगे कहां? किसी यार दोस्त के यहां पढ़ रहे होंगे।

मुंशीजी - शायद ऐसा ही हो। ईश्वर करे, ऐसा ही हो।

निर्मला - सवेरे जरा तम्बीह कीजिएगा।

मुंशीजी - खूब अच्छी तरह करूंगा।

निर्मला - चलिए, खा लीजिए देर बहुत हुई।

मुंशीजी - सवेरे उसकी तम्बीह करके खाऊंगा। कहीं न आया, तो तुम्हें ऐसा ईमानदार नौकर कहां मिलेगा?

निर्मला ने ऐंठकर कहा - तो क्या मैंने भगा दिया?

मुंशीजी - नहीं, यह कौन कहता है! तुम उसे क्यों भगाने लगी! तुम्हारा तो काम करता था! शामत आ गई होगी!

निर्मला ने और कुछ नहीं कहा। बात बढ़ जाने का भय था। भीतर चली आई। सोने को भी न कहा। जरा देर में भूंगी ने अन्दर से किवाड़ भी बंद कर दिए।

क्या मुंशीजी को नींद आ सकती थी? तीनों लड़कों में केवल एक बच रहा था। वह भी हाथ से निकल गया, तो फिर जीवन में अंधकार के सिवाय और क्या है? कोई नाम लेने वाला भी न रहेगा। हां! कैसे-कैसे रत्न हाथ से निकल गए। मुंशीजी की आंखों से अश्रुधारा बह रही थी तो आश्चर्य है? उस सघन ग्लानि-तिमिर में आशा की एक हल्की-सी रेखा उन्हें संभाले हुए थी। जिस क्षण यह रेखा लुप्त हो जायेगी, कौन कह सकता है, उन पर क्या बीतेगी? उनकी उस वेदना की कल्पना कौन कर सकता है।

कई बार मुंशीजी की आंखें झपकी, लेकिन हर बार सियाराम की आहट के धोखे में चौंक पड़ते।

सवेरा होते ही मुंशीजी फिर सियाराम को खोजने निकले। किसी से पूछते शर्म आती थी। किस मुंह से पूछें? उन्हें किसी से सहानुभूति की आशा न थी। प्रकट न करके मन में सब यही कहेंगे - जैसा किया, वैसा भोगो। सारे दिन वह खेल के मैदानों, बाजारों और बगीचों का चक्कर लगाते रहे। दो दिन निराहार रहने पर भी उन्हें इतनी शक्ति कैसे हुई, यह वही जाने।

रात के बारह बजे मुंशीजी घर लौटे। दरवाजे पर लालटेन जल रही थी, निर्मला द्वार पर खड़ी थी। देखते ही बोली - कहा भी नहीं, न जाने कब चल दिए! कुछ पता चला?

मुंशीजी ने आग्नेय नेत्रों से ताकते हुए कहा - हट जाओ सामने से, नहीं तो बुरा होगा। मैं आपे में नहीं हूं। यह तुम्हारी करनी है। तुम्हारे ही कारण आज मेरी यह दशा हो रही है। छह साल पहले क्या इस घर की यही दशा थी? तुमने मेरा बना बनाया घर बिगाड़ दिया, तुमने लहलहाते बाग को उजाड़ डाला। केवल एक ठूंठ रह गया है। उसका निशान मिटाकर तभी तुम्हें सन्तोष होगा। मैं अपनी सर्वनाश करने के लिए तुम्हें अपने घर नहीं लाया था। सुखी जीवन को और भी सुखमय बनाना चाहता था। यह उसी का प्रायश्चित है। जो लड़के पान की तरह फेरे जाते थे, उन्हें मेरे जीते-जी तुमने चाकर समझ लिया और मैं आंखों से सब कुछ देखते हुए भी अन्धा बना बैठा रहा। जाओ, मेरे लिए थोड़ा-सा सांखिया भेज दो। बस, यही कसर रह गई, वह भी पूरी हो जाये!

निर्मला ने रोते हुए कहा - मैं तो अभागिन हूं ही, आप कहेंगे तब जानूंगी!। न जाने ईश्वर ने मुझे जन्म क्यों दिया था? मगर यह आपने कैसे समझ लिया कि सियाराम आयेंगे ही नहीं?

मुंशीजी ने अपने कमरे की ओर जाते हुए कहा - जलाओ मत, जाकर खुशियां मनाओ। तुम्हारी मनोकामना पूरी हो गई।

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