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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 28

08:00 PM Jan 30, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   28
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निर्मला सारी रात रोती रही, इतना कलंक! उसने जियाराम को गहने ले जाते देखने पर भी मुंह खोलने का साहस नहीं किया। इसलिए तो कि लोग समझेंगे कि यह मिथ्या दोषारोपण करके लड़के से बैर साध रही है। आज उसके मौन रहने पर उसे अपराधिन ठहराया जा रहा है। यदि वह जियाराम को उसी क्षण रोक देती और जियाराम लज्जावश कहीं भाग जाता, तो क्या उसके सिर अपराध न मढ़ा जाता?

सियाराम ही के साथ उसने कौन-सा दुर्व्यवहार किया था! वह कुछ बचत करने ही के विचार से तो सियाराम से सौदा मंगवाया करती थी। क्या वह बचत करके अपने लिए गहने गढ़वाना चाहती थी? जब आमदनी का यह हाल हो रहा था, तो पैसे-पैसे पर निगाह रखने के सिवाय कुछ जमा करने का उसके पास और साधन ही क्या था? जवानों की जिन्दगी का तो कोई भरोसा नहीं; बूढ़ों की जिन्दगी का क्या ठिकाना? बच्ची के विवाह के लिए वह किसने सामने हाथ फैलाती? बच्ची का भार कुछ उसी पर तो नहीं था। वह केवल पति की सुविधा ही के लिए कुछ बटोरने का प्रयत्न कर रही थी। पति ही की क्यों? सियाराम ही तो पिता के बाद घर का स्वामी होता। बहिन के विवाह करने का भार क्या उसके सिर पर न पड़ता? निर्मला सारी कतरब्योंत पिता और पुत्र कार संकट मोचन करने ही के लिए कर रही थी। बच्ची का विवाह इस परिस्थिति में संकट के सिवा और क्या था? पर इसके लिए भी उसके भाग्य में अपयश ही बदा था।

दोपहर हो गयी पर आज भी चूल्हा नहीं जला। खाना भी जीवन का काम है - इसकी किसी को सुध ही न थी। मुंशीजी बाहर बेजान पड़े थे और निर्मला भीतर। बच्ची कभी भीतर जाती कभी बाहर। कोई उससे बोलने वाला न था। बार-बार सियाराम के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ी होती और बैया-बैया पुकारती; बैया जवाब न देता था।

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संध्या समय मुंशीजी आकर निर्मला से बोले - तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं? निर्मला ने चौंक कर पूछा - क्या कीजिएगा?

मुंशीजी - मैं पूछता हूं उसका जवाब दो।

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निर्मला - क्या आपको नहीं मालूम है? देने वाले तो आप ही हैं।

मुंशीजी - तुम्हारे पास कुछ रुपये हैं या नहीं। अगर हो तो मुझे दे दो, न हो तो साफ जवाब दो।

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निर्मला ने अब भी साफ जवाब नहीं दिया। बोली - होंगे तो घर ही में न होंगे? और कहीं भेज दिये?

मुंशीजी बाहर चले गए। वह जानते थे कि निर्मला के पास रुपये हैं, वास्तव में थे भी। निर्मला ने भी यह नहीं कहा कि नहीं है या मैं न दूंगी; पर उसकी बातों से प्रकट हो गया कि वह देना नहीं चाहती।

नौ बजे रात को मुंशीजी ने आकर रुक्मिणी से कहा - बहिन मैं जरा बाहर जा रहा हूं। मेरा बिस्तर भूंगी से बंधक देना और ट्रंक में कुछ कपड़े रखकर बन्द कर देना।

रुक्मिणी भोजन बना रही थी। बोली - बहू तो कमरे में है, कह क्यों नहीं देते? कहां जाने का इरादा है?

मुंशीजी - मैं तुमसे कहता हूं बहू से कहना होता तो तुमसे क्यों कहता? आज तुम क्यों खाना पका रही हो।

रुक्मिणी - कौन पकाए? बहू के सिर में दर्द हो रहा है। आखिर इस वक्त कहां जा रहे हो? सवेरे चले जाना।

मुंशीजी - इस तरह टालते-टालते तो आज तीन दिन हो गए। इधर-उधर घूम-घूमकर देखूं शायद कहीं सियाराम का पता मिल जाये। कुछ लोग कहते हैं कि एक साधू के साथ बातें कर रहा था। शायद वही कहीं बहका ले गया हो।

रुक्मिणी - तो लौटोगे कब तक?

मुंशीजी - कह नहीं सकता। हफ्ता भर लग जाये; महीना भर लग जाये; क्या ठिकाना है?

रुक्मिणी - आज कौन दिन है? किसी पण्डित से पूछ लिया है, यात्रा है कि नहीं?

मुंशीजी भोजन करने बैठे। निर्मला को इस वक्त उन पर बड़ी दया आयी। उसका सारा क्रोध शांत हो गया। खुद तो न बोली, बच्ची को जगाकर चुमकारती हुई बोली - देख, तेरे बाबूजी कहां जा रहे है? पूछ तो?

बच्ची के द्वार पर झांककर पूछा - बाबू दी तहां दाते हो?

मुंशीजी - दूर जाता हूं बेटी, तुम्हारे भैया को खोजने जाता हूं।

बच्ची ने वहीं से खड़े-खड़े कहा - अम बी तलेंगे।

मुंशीजी - बड़ी दूर जाते हैं! तुम्हारे वाले चीजें लाएंगे। यहां क्यों नहीं आती?

बच्ची मुसकराकर छिप गई और एक क्षण में किवाड़ से सिर निकाल कर बोली - अम बी तलेंगे।

मुंशीजी ने उसी स्वर में कहा - तुमको नई ले तलेंगे।

बच्ची - अमको त्यों नई ले तलोगे?

मुंशीजी - तुम तो हमारे पास आती नहीं हो।

लड़की ठुमकती हुई आकर पिता की गोद में बैठ गई। थोड़ी देर के लिए मुंशीजी उसकी बाल-कीड़ा में अपनी अंतर्वेदना भूल गए।

भोजन करके मुंशीजी बाहर चले गए। निर्मला खड़ी ताकती रही। कहना चाहती थी - व्यर्थ जा रहे हो, पर कह न सकती थी। कुछ रुपये निकालकर देने का विचार करती थी, पर दे न सकती थी।

अन्त को न रहा गया रुक्मिणी से बोली - दीदीजी, जरा समझा दीजिए, कहां जा रहे है। मेरी जबान पकड़ी जायेगी, पर बिना बोले रहा नहीं जाता। बिना ठिकाने कहां खोजेंगे? व्यर्थ हैरानी होंगी।

रुक्मिणी ने करुणासूचक नेत्रों से देखा और अपने कमरे में चली गयी।

निर्मला बच्ची को गोद में लिये सोच रही थी कि शायद जाने के पहले बच्ची को देखने या मुझसे मिलने के लिए आएं, पर उसकी आशा विफल हो गई। मुंशीजी ने बिस्तर उठाया और तांगे पर जा बैठा।

उसी वक्त निर्मला का कलेजा मसोसने लगा। उसे ऐसा जान पड़ा कि अब इनसे भेंट न होगी। वह अधीर होकर द्वार पर आयी कि मुंशीजी को रोक ले, पर तांगा जा चुका था।

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