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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 29

08:00 PM Feb 01, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   29
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दिन गुजरने लगे। एक महीना पूरा निकल गया, लेकिन मुंशीजी न लौटे कोई खत भी न भेजा। निर्मला को अब नित्य यही चिन्ता बनी रहती कि वह लौटकर न आये तो क्या होगा? उसे चिन्ता न होती थी कि उन पर क्या बीत रही होगी, कहां-कहां मारे-मारे फिरते होंगे, स्वास्थ्य कैसा होगा? उसे केवल अपनी और उससे भी बढ़कर बच्ची की चिन्ता थी। गृहस्थी का निर्वाह कैसे होगा? ईश्वर कैसे बेड़ा पार लगाएंगे? बच्ची का क्या हाल होगा? उसने कतरब्योंत करके जो रुपये जमा कर रखे थे, उसमें कुछ-न-कुछ रोज कमी होती थी, मानो कोई उसकी देह से रक्त निकाल रहा हो। झुंझलाकर मुंशीजी को कोसती। लड़की किसी चीज के लिए रोती; तो ‘अभागिनी’ ‘कलमुंही’ कहकर झल्लाती। यही नहीं रुक्मिणी का घर में रहना उसे कष्टकर जान पड़ता था, मानो वह उसकी गर्दन पर सवार है।

जब हृदय जलता है तो वाणी भी अग्निमय हो जाती है। निर्मला बड़ी मधुरभाषिणी स्त्री थी, पर अब उसकी गणना कर्कशाओं में की जा सकती थी। दिन भर उसके मुख से जली-कटी बातें ही निकला करती थीं। भूंगी बहुत दिनों से इस घर में नौकर थी। स्वभाव की सहनशील थी। पर यह आठों पहर की बकबक उससे भी न सही गई। एक दिन उसने भी घर की राह ली। यहां तक कि जिस बच्ची को वह प्राणों से भी अधिक प्यार करती थी, उसकी सूरत से घृणा हो गई। बात-बात पर हुड़क पड़ती, कभी-कभी मार बैठती। रुक्मिणी रोती हुई बालिका को गोद में बैठा लेती और चूमकर-दुलारकर चुप कराती। उस अनाथ के लिए अब यही एक आश्रय रह गया।

निर्मला को अब अगर कुछ अच्छा लगता था, तो वह सुधा से बात-करना था। वह वहां जाने का अवसर खोजा करती थी। बच्ची को अब वह अपने साथ न ले जाना चाहती थी। पहले जब बच्ची को अपने घर सभी चीजें खाने को मिलती थी, तो वहां जाकर हंसती-खेलती थी। अब वहां जाकर उसे भूख लगती थी। निर्मला उसे घूर-घूर कर देखती, मुट्ठियां बांधकर धमकाती पर लड़की भूख की रट लगाना न छोड़ती थी। इसलिए निर्मला उसे साथ न ले जाती थी। सुधा के पास बैठकर उसे मालूम होता था कि मैं आदमी हूं। उतनी देर के लिए वह चिन्ताओं से मुक्त हो जाती थी। जैसे शराबी का शराब के नशे में सारी चिन्ताएं भूल जाती हैं उसी तरह निर्मला सुधा के घर जाकर सारी बातें भूल जाती थी। जिसने उसे उसके घर पर देखा हो, वह उसे यहां देखकर चकित रह जाता वही कर्कश कटुभाषिणी स्त्री यहां आकर हास्य विनोद और माधुर्य की पुतली बन जाती थी। यौवन काल की स्वाभाविक वृत्तियां अपने घर पर रास्ता बन्द पाकर यहां किलोलें करने लगती थीं। वहां आते वक्त वह मांगचोटी, कपड़े-लत्ते से लैस होकर जाती और यथासाध्य अपनी विपत्ति कथा को अपने मन में ही रखती थी। यहां रोने के लिए नहीं, हंसने के लिए आती है।

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पर कदाचित उसके भाग्य में यह सुख न बदा था। निर्मला मामूली तौर से दोपहर या तीसरे पहर सुधा के घर जाया करती थी। एक दिन उसका जी इतना ऊबा कि सबेरे ही जा पहुंची। सुधा नदी-स्नान करने गयी थी डॉक्टर साहब अस्पताल जाने के लिए कपड़े पहन रहे थे। महरी अपने काम धन्धे में लगी हुई थी। निर्मला अपनी सहेली के कमर में जाकर निश्चिन्त बैठ गई। उसने समझा, सुधा कोई काम कर रही होगी, अभी आती होगी। जब बैठे-बैठे दो तीन मिनट गुजर गए, तो उसने अलमारी से तस्वीरों की एक किताब उतार ली और केश खोल, पलंग पर लेटकर चित्र देखने लगी। इस बीच में डॉक्टर साहब को किसी जरूरत से निर्मला के कमरे में आना पड़ा। शायद अपनी ऐनक ढूंढ़ते फिरते थे। बेधड़क अन्दर चले आये। निर्मला द्वार की ओर केश खोले लेटी हुई थी। डाक्टर साहब को देखते ही चौंककर उठ बैठी और सिर ढांकती हुई चारपाई से उतरकर खड़ी हो गई। डॉक्टर ने लौटते हुए चिक के पास खड़े होकर कहा - क्षमा करना निर्मला मुझे मालूम न था कि तुम यहां हो। मेरी ऐनक मेरे कमरे में नहीं मिल रही है। जाने कहां उतारकर रख दी थी। मैंने समझा, शायद यहां हो।

निर्मला तो चारपाई के सिरहाने वाले आले पर निगाह डाली तो ऐनक की डिबिया दिखाई दी। उसने आगे बढ़कर डिबिया उतार ली और सिर झुकाए, देह समेट, संकोच से डॉक्टर साहब की ओर हाथ बढ़ाया। डॉक्टर साहब ने निर्मला को दो-एक बार पहले भी देखा था, पर इस समय के से भाव कभी उनके मन में न आए थे। जिस ज्वाला को वह बरसों से हृदय में दबाए हुए थे, वह आज पवन का झोंका पाकर दहक उठी। उन्होंने ऐनक के लिए हाथ बढ़ाया, तो हाथ कांप रहा था। ऐनक लेकर भी वह बाहर न गये, वहीं खोए हुए-से खड़े रहे। निर्मला ने इस एकान्त से भयभीत होकर पूछा - सुधा कहीं गयी है क्या?

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डॉक्टर साहब ने सिर झुकाए हुए जवाब दिया - हां, जरा स्नान करने चली गयी। फिर भी डॉक्टर साहब बाहर न गये। वही खड़े रहे! निर्मला ने फिर पूछा - कब तक आएंगी?

डॉक्टर साहब ने सिर झुकाए हुए कहा - आती होगी।

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फिर भी वह बाहर नहीं गये। उनके मन में द्वंद्व मचा हुआ था। औचित्य का धन नहीं, भीरूता का कच्चा तागा उनकी जबान को रोके हुए था।

निर्मला ने फिर कहा - कहीं घूमने-थामने लगी होगी। मैं भी इस वक्त जाती हूं।

भीरूता का कच्चा तागा टूट गया। नदी के कगार पर पहुंचकर भागती हुई सेना में अद्भुत शक्ति आ जाती है। डॉक्टर साहब ने सिर उठाकर निर्मला को देखा और अनुराग के स्वर में बोले - नहीं निर्मला, अब आती ही होंगी। अब न जाओ। रोज सुधा की खातिर बैठती हो, आज मेरी खातिर बैठो। बताओ, क्या तक इस आग में जला करूं? सत्य कहता हूं निर्मला…

निर्मला ने कुछ और नहीं सुना। उसे ऐसा जान पड़ा, मानो सारी पृथ्वी चक्कर खा रही है, मानो उसके प्राणों पर वज्र का आघात हो रहा है। उसने जल्दी से अलगनी पर लटकती हुई चादर उतार ली और बिना मुंह से एक शब्द निकाले, कमरे से निकल गई। डॉक्टर साहब खिसियाए हुए से रोना मुंह बनाए खड़े रहे। उसको रोकने या कुछ कहने की उनकी हिम्मत न पड़ी।

निर्मला ज्यों ही द्वार पर पहुंची, उसने सुधा को तांगे से उतरते देखा। सुधा उसे देखते ही जल्दी से उतरकर उसकी ओर लपकी और कुछ पूछना चाहती थी, मगर निर्मला ने उसे अवसर न दिया, तीर की तरह झपटकर चली गई। सुधा एक क्षण तक विलय की दशा में खड़ी रही। बात क्या है, उसकी समझ में कुछ न आ सका। व्यग्र हो उठी। जल्दी अन्दर गयी। महरी से पूछा कि क्या बात हुई? उसे मालूम हुआ कि हमारी कहीं महरी व नौकर ने उसे कोई अपमानसूचक बात कह दी है। वह अपराधी का पता लगाएगी और खड़े-खड़े निकाल देगी। लपकी हुई वह अपने कमरे में आ गई। अन्दर कदम रखते ही डॉक्टर को मुंह लटकाए चारपाई पर बैठे देखा। पूछा - निर्मला यहां आयी थी?

डॉक्टर साहब ने सिर खुजलाते हुए कहा - हां, आयी तो थी।

सुधा - किसी महरी-अहरी ने उन्हें कुछ कहा तो नहीं? मुझसे बोली तक नहीं झपटकर निकल गयी।

डॉक्टर साहब की मुख-कान्ति मलिन हो गई, कहा - यहां तो उन्हें किसी ने भी कुछ नहीं कहा।

सुधा - किसी ने कुछ नहीं कहा! देखो, मैं पूछती हूं। ईश्वर जानता है, पता पा जाऊंगी तो खड़े-खड़े निकाल दूंगी।

डॉक्टर साहब सिटपिटाते हुए बोले - मैंने तो किसी को कुछ कहते नहीं सुना। तुम्हें उन्होंने देखा न होगा।

सुधा - वाह, देखा ही न होगा! उनके सामने तो मैं तांगे से उतरी हूं। उन्होंने मेरी ओर ताका भी, पर बोली कुछ नहीं। इस कमरे में आयी थी?

डॉक्टर साहब के प्राण सूखे जा रहे थे। हिचकिचाते हुए बोले - आयी क्यों नहीं थी।

सुधा - तुम्हें यहां बैठे देखकर चली गई होगी। बस किसी महरी ने कुछ कह दिया होगा। नीच जात है न, किसी को बात करने की तमीज तो है नहीं, अरी ओ सुन्दरिया, जरा यहां तो आ!

डॉक्टर - उसे क्यों बुलाती हो? वह यहां से सीधे दरवाजे की तरफ गयी। महरिया से बात तक नहीं हुई।

सुधा - तो फिर तुम्हीं ने कुछ कह दिया होगा।

डॉक्टर साहब का कलेजा धक करने लगा - मैं भला, क्या कह देता! क्या ऐसा गंवार हूं।

सुधा - तुमने उन्हें आते देखा, तब भी बैठे रह गए?

डॉक्टर - मैं यहां था ही नहीं। बाहर बैठक में अपनी ऐनक ढूंढ़ता रहा। जब वहां न मिली, तो मैंने सोचा शायद अन्दर हो। यहां आया तो उन्हें बैठे देखा। मैं बाहर जाना चाहता था कि उन्होंने खुद पूछा - किसी चीज की जरूरत है? मैंने कहा, जरा देखना यहां मेरी ऐनक तो नहीं है। ऐनक इसी सिराहने वाले ताक पर थी। उन्होंने उठाकर दे दी। बस इतनी ही बात हुई।

सुधा - बस, तुम्हें ऐनक देते ही वह झल्लायी हुई बाहर चली गयी, क्यों?

डॉक्टर - झल्लायी हुई तो नहीं चली गयी। जाने लगी तो मैंने कहा - बैठिए, वह आती ही होगी। न बैठी तो मैं क्या करता?

सुधा ने कुछ सोचकर कहा - बात कुछ समझ में नहीं आती, मैं जरा उसके पास जाती हूं। देखूं बात क्या है!

डॉक्टर - तो चली जाना, ऐसी जल्दी क्या है? सारा दिन तो पड़ा हुआ है।

सुधा ने चादर ओढ़ते हुए कहा - मेरे पेट में खलबली मची हुई है, कहते हो जल्दी क्या है? सुधा तेजी से कदम बढ़ाती हुई निर्मला के घर की ओर पांच मिनट में जा पहुंची। देखा तो निर्मला अपने कमरे में चारपाई पर पड़ी रो रही थी और बच्ची उसके पास खड़ी पूछ रही थी - अम्मा, क्यों लोती हो?

सुधा ने लड़की को गोद में ले लिया और निर्मला से बोली - बहिन सच बताओ क्या बात है! मेरे यहां किसी ने तुम्हें कुछ कहा? मैं सब से पूछ चुकी कोई नहीं बतलाता।

निर्मला आंसू पोंछती हुई बोली - किसी ने कुछ कहा नहीं बहिन। भला, वहां मुझे कौन कुछ कहता?

सुधा - तुम यों न बतलाओगी, तो मैं कसम रखा दूंगी।

निर्मला - कसम-कसम न रखाना भाई, मुझे किसी ने कुछ नहीं कहा झूठ किसे लगा दूं?

सुधा - खाओ मेरी कसम!

निर्मला - तुम तो नाहक जिद करती हो।

सुधा - अगर तुमने न बताया निर्मला तो मैं समझूंगी, तुम्हें मुझसे जरा भी प्रेम नहीं है। बस जबानी जमा खर्च है। मैं तुमसे किसी बात का पर्दा नहीं रखती और तुम मुझे गैर समझती हो। मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा भरोसा था। अब जान गई कि कोई किसी का नहीं होता।

सुधा की आंखें सजल हो गई। उसने बच्ची को गोद से उतार दिया और द्वार की ओर चली। निर्मला ने उठकर उसका हाथ पकड़ लिया और रोती हुई बोली - सुधा, मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं मत पूछो! तुम्हें दुःख होगा और शायद मैं अपना मुंह न दिखा सकूं। मैं अभागिनी न होती, तो यह दिन क्यों देखती? अब तो ईश्वर से यही प्रार्थना है कि संसार से मुझे उठा ले। अभी यह दुर्गति हो रही है, तो आगे न जाने क्या होगा।

इन शब्दों में जो संकेत था, वह बुद्धिमती सुधा से छिपा न रह सका। वह समझ गई कि डॉक्टर साहब ने छेड़छाड़ की है। उनका हिचक-हिचककर बातें करना और उसके प्रश्नों को टालना, उनकी वह ग्लानिमय, कांतिहीन मुद्रा उसे याद आ गई। वह सिर से पांव तक कांप उठी; बिन कुछ कहे-सुने सिंहनी की भांति क्रोध से भरी हुई द्वार की ओर चली। निर्मला ने उसे रोकना चाहा, पर न पा सकी। देखते-देखते सड़क पर आ गई और घर की ओर चली! तब निर्मला वहीं भूमि पर बैठ गई और फूट-फूटकर रोने लगी।

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