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निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 30

08:00 PM Feb 03, 2024 IST | Guddu KUmar
निर्मला मुंशी प्रेमचंद भाग   30
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निर्मला दिन-भर चारपाई पर पड़ी रही। मालूम होता है, उसकी देह में प्राण नहीं है। न स्नान किया, न भोजन करने उठी। सन्ध्या समय उसे ज्वर हो गया। रात-भर देह तवे की भांति तपती रही। दूसरे दिन भी ज्वर न उतरा। हां कुछ-कुछ कम हो गया था। वह चारपाई पर लेटी हुई निश्चल नेत्रों से द्वार की ओर ताक रही थी। चारों ओर शून्य था - अन्दर भी शून्य, बाहर भी शून्य। कोई चिन्ता न थी न कोई क्षति, न कोई दुःख। मस्तिष्क में स्पन्दन की शक्ति ही न रही थी।

सहसा रुक्मिणी बच्ची को गोद में लिये हुए आकर खड़ी हो गई। निर्मला ने पूछा - क्या वह बहुत रोती थी?

रुक्मिणी - नहीं, यह तो सिसकी तक नहीं। रात-भर चुपचाप पड़ी रही। सुधा ने थोड़ा-सा दूध भेज दिया था, वही पिला दिया।

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निर्मला - अहीरन दूध न दे गई थी?

रुक्मिणी - कहती थी, पिछले पैसे दे दो, तो दूं। तुम्हारा जी अब कैसा है?

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निर्मला - मुझे कुछ नहीं हुआ है। कल जरा देह गरम हो गई थी।

रुक्मिणी - डॉक्टर साहब का तो बुरा हाल हो गया।

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निर्मला ने घबराकर कहा - क्या हुआ? कुशल है न?

रुक्मिणी - कुशल से हैं कि लाश उठाने की तैयारी हो रही है? कोई कहता है जहर खा लिया था, कोई कहता है कि दिल का चलना बन्द हो गया था। भगवान जाने क्या हुआ।

निर्मला ने ठंडी सांस ली और रुंधे हुए स्वर में बोली - हाय भगवान्! सुधा की क्या गति होगी? वह कैसे जिएगी?

यह कहते-कहते वह रो पड़ी और बड़ी देर तक सिसकती रही! तब चारपाई से उतरकर सुधा के पास जाने को तैयार हुई। पांव थर-थर कांप रहे थे, दीवार थामे खड़ी थी, पर जी न मानता था। न जाने सुधा ने यहां से जाकर पति से क्या कहा! मैंने तो उससे कुछ कहा भी नहीं। न जाने मेरी बातों का वह क्या मतलब समझी? हाय! ऐसे रूपवान ऐसे सुशील प्राणी का यह अन्त! अगर निर्मला को मालूम होता कि उसके क्रोध का यह भीषण परिणाम होगा तो जहर का घूंट पीकर भी उस बात को हंसी में उड़ा देती।

यह सोचकर कि मेरी निष्ठुरता के कारण डॉक्टर साहब का यह हाल हुआ निर्मला के हृदय के टुकड़े होने लगे। ऐसी वेदना होने लगी, मानो हृदय में शूल उठ रहा हो। डॉक्टर साहब के घर चली।

लाश उठ चुकी थी! बाहर सन्नाटा छाया हुआ था। घर में स्त्रियां जमा थी। सुधा जमीन पर बैठी रो रही थी। निर्मला को देखते ही वह जोर से चिल्लाकर रो पड़ी और आकर उसकी छाती से लिपट गई। दोनों देर तक रोती रही।

जब औरतों की भीड़ कम हुई और एकान्त हो गया, तो निर्मला ने पूछा - यह क्या हो गया बहिन, तुमने कह क्या दिया?

सुधा अपने मन को इसी प्रश्न का उत्तर आज कितनी बार दे चुकी थी। उसका मन जिस उत्तर से शान्त हो गया था, वही उसने निर्मला को दिया। बोली - चुप भी तो न रह सकती थी बहिन! क्रोध की बात पर क्रोध आता ही है।

निर्मला - मैं तो तुमसे कोई ऐसी बात न कही थी।

निर्मला - तुम कैसे कहती; कह ही नहीं सकती थी, लेकिन उन्होंने जो बात हुई थी, वह कह दी थी। उस पर मैंने जो मुंह में आया कहा। जब एक बात दिल में आ गई, तो उसे हुआ ही समझना चाहिए। अवसर और घात मिले, तो वह अवश्य ही पूरी हो। यह कहकर कोई नहीं निकल सकता कि मैंने तो हंसी की थी। एकान्त में ऐसा शब्द जबान पर लाना ही कह देता है कि नीयत बुरी थी। मैंने तुमसे कभी कहा नहीं बहिन, लेकिन मैंने उन्हें कई बार तुम्हारी और झांकते देखा। उस वक्त मैंने भी यह समझा कि शायद दुनिया ज्यादा देखी होती तो तुम्हें अपने घर न आने देती। कम-से-कम तुम पर उनकी निगाह कभी न पड़ने देती, लेकिन यह क्या जानती थी कि पुरुषों के मुंह में कुछ और मन में कुछ और होता है। ईश्वर को जो मंजूर था, वह हुआ। ऐसे सौभाग्य से मैं वैधव्य को बुरा नहीं समझती। दरिद्र प्राणी उस धनी से कहीं सुखी है, जिसे उसका धन सांप बनकर काटने दौड़े। उपवास कर लेना आसान है विषैला भोजन करना उससे कहीं मुश्किल!

इसी वक्त डॉक्टर सिन्हा के छोटे भाई और कृष्णा ने घर में प्रवेश किया। घर में कोहराम मच गया।

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