निर्मला-मुंशी प्रेमचंद भाग - 31
एक महीना और गुजर गया। सुधा अपने देवर के साथ तीसरे ही दिन चली गयी! अब निर्मला अकेली थी। पहले हंस-खेलकर ही बहला लिया करती थी। अब रोना ही एक काम रह गया। उसका स्वास्थ्य दिन-दिन बिगड़ता गया। पुराने मकान का किराया अधिक था। दूसरा मकान थोड़े किराये का लिया। यह तंग गली में था। अन्दर का कमरा था और छोटा-सा आंगन।
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न प्रकाश जाता, न वायु। दुर्गन्ध उड़ा करती थी। भोजन का यह हाल कि पैसे रहते हुए भी कभी-कभी उपवास करना पड़ता था। बाजार से लाये कौन? फिर अपना कोई मर्द नहीं, कोई लड़का नहीं, तो रोज भोजन बनाने का कष्ट कौन उठाए? औरतों के लिए रोज भोजन करने की आवश्यकता ही क्या? अगर एक वक्त खा लिया, तो दो दिन के लिए छुट्टी हो गयी। बच्ची के लिए ताजा हलुआ या रोटियां बन जाती थी। ऐसी दशा में स्वास्थ्य क्यों न बिगड़ता! चिन्ता, शोक, दुरावस्था - एक हो तो कोई कहे। यहां तो त्रयताप का धावा था। उस पर निर्मला ने दवा न खाने की कसम खा ली थी। करती ही क्या? उन थोड़े से रुपयों में दवा की गुंजाइश कहां थी? जहां भोजन का ठिकाना न था, वहां दबा का जिक्र ही क्या? दिन-दिन सूखती जा रही थी।
एक दिन रुक्मिणी ने कहा - बहू इस तरह कब तक घुला करोगी! जी ही से जहान है। चलो, किसी वैध को दिखा लाऊं।
निर्मला ने विरक्त भाव से कहा - जिसे रोने ही के लिए जीना हो, उसका मर जाना ही अच्छा।
रुक्मिणी - बुलाने से तो मौत नहीं आती।
निर्मला - मौत तो बिना बुलाए आती है, बुलाने पर क्यों न आएगी? उसके आने में बहुत दिन न लगेंगे बहिन! जै दिन चलती हूं, उतने साल समझ लीजिए?
रुक्मिणी - दिल छोटा मत करो बहू! अभी संसार का सुख ही क्या देखा?
निर्मला - अगर संसार का यही सुख है, जो इतने दिनों से देख रही हूं, तो उससे जी भर गया। सब कहती हूं बहिन, इस बच्ची से मोह मुझे बांधे हुए है, नहीं तो अब तक कभी की चली गयी होती, न जाने इस बारी के भाग्य में क्या लिखा है।
दोनों महिलाएँ रोने लगी। इधर जब से निर्मला ने चारपाई पकड़ ली है। रुक्मिणी के हृदय दया का सोता-सा खुल गया है। द्वेष का लेश भी नहीं रहा। कोई काम करती हो; निर्मला की आवाज सुनते ही दौड़ती हैं। घण्टों उसके पास बैठी कथा-पुराण सुनाया करती हैं। कोई ऐसी चीज पकाना चाहती हैं, जिसे निर्मला रुचि से खाए। निर्मला को कभी हँसते देख लेती हैं, तो निहाल हो जाती है, और बच्ची को तो अपने गले का हार बनाए रहती हैं। उसी की नींद सोती हैं, उसी की नींद जागती है। वही बालिका अब उनके जीवन का आधार है।
रुक्मिणी ने जरा देर बाद कहा - बहू तुम इतनी निराश क्यों होती हो? भगवान् चाहेंगे तो तुम दो-चार दिन में अच्छी हो जाओगी मेरे साथ आज वैद्यजी के पास चलो। बड़े सज्जन हैं।
निर्मला - दीदीजी, अब मुझे किसी वैद्य की दवा फायदा न करेगी। आप मेरी चिन्ता न करें। बच्ची को आपकी गोद में छोड़ जाती हूं। अगर जीती-जागती रहे तो किसी अच्छे कुल में विवाह कर दीजिएगा। मैं तो इसके लिए अपने जीवन में कुछ न कर सकी। केवल जन्म देने-भर की अपराधिनी हूं। चाहे क्वांरी रखिएगा। चाहे विष देकर मार डालिएगा, पर कुपात्र के गले न मढ़िएगा, इतनी ही आपसे विनती है। मैंने आपकी कुछ सेवा न की इसका बड़ा दुःख हो रहा है। मुझ अभागिन से किसी को सुख नहीं मिला। जिस पर मेरी छाया भी पड़ गई, उसका सर्वनाश हो गया। अगर स्वामीजी कभी घर आएं, तो उनसे कहिएगा कि इस करम-जली के अपराध को क्षमा कर दें।
रुक्मिणी रोती हुई बोली - बहू तुम्हारा कोई अपराध नहीं। ईश्वर से कहती हूं तुम्हारे ओर से मेरे मन में जरा भी मैल नहीं है। हां, मैंने सदैव तुम्हारे साथ कपट किया। इसका मुझे मरते दम तक दुःख रहेगा।
निर्मला ने कातर नेत्रों से देखते हुए कहा - दीदीजी, कहने की बात पर बिना रहा नहीं जाता। स्वामी जी ने हमेशा मुझे अविश्वास की दृष्टि से देखा, लेकिन मैंने उनके लिए कोई उनकी उपेक्षा नहीं की। जो होना था, वह हो चुका था। अधर्म करके अपना परलोक क्यों बिगाड़ती? पूर्व जन्म में न जाने कौन से पाप किये थे, जिसका यह प्रायश्चित करना पड़ा। इस जन्म में कांटे बोती, तो कौन गति होती?
निर्मला की सांस बड़े वेग से चलने लगी। फिर खाट पर लेट गई और बच्चे की ओर एक ऐसी दृष्टि से देखा, जो उसके जीवन की संपूर्ण विपत्ति कथा की वृहद आलोचना थी, वाणी में इतनी सामर्थ्य कहां!
तीन दिनों तक निर्मला की आँखों से आँसुओं की धारा बहती रही। वह न किसी से बोलती थी, न किसी की ओर देखती थी और न किसी की कुछ सुनती थी। बस, रोए चली जाती थी। उस वेदना का कौन अनुमान कर सकता है?
चौथे दिन संध्या समय वह विपत्ति कथा समाप्त हो गई। उसी समय जब पशु-पक्षी अपने बसेरे को लौट रहे थे, निर्मला का प्राण-पक्षी भी दिन-भर शिकारियों के निशानों, शिकारी चिड़ियों के पंजों और वायु के प्रचंड झोंकों से आहत और व्यथित अपने बसेरे की ओर उड़ गया।
मुहल्ले के लोग जमा हो गए। लाश बाहर निकल गई। कौन दाह करेगा, यह प्रश्न उठा। लोग चिन्ता में थे कि सहसा एक बूढ़ा पथिक एक बकुचा लटकाए आकर खड़ा हो गया। यह मुंशी तोताराम थे।