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न्याय - मुंशी प्रेमचंद

07:00 PM Apr 12, 2024 IST | Reena Yadav
न्याय   मुंशी प्रेमचंद
nyaay by munshi premchand
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हजरत मुहम्मद को इलहाम हुए थोड़े ही दिन हुए थे। दस-पाँच पड़ोसियों तथा निकट संबंधियों के सिवा और कोई उनके दीन पर ईमान न लाया था, यहाँ तक कि उनकी लड़की जैनब और दामाद अबुलआस भी, जिनका विवाह इलहाम से पहले ही हो चुका था, अभी तक दीक्षित न हुए थे। जैनब कई बार अपने मैके गयी थी और अपने पूज्य पिता की ज्ञानमय वाणी सुन चुकी थी। वह दिल से इस्लाम पर ईमान ला चुकी थी, लेकिन अबुलआस धार्मिक मनोवृत्ति का आदमी न था। वह कुशल व्यापारी था। मक्के के खजूर, मेवे आदि जिसे लेकर बंदरगाहों को चालान किया करता था। बहुत ही ईमानदार, लेन-देन का खरा, मेहनती आदमी था, जिसे इहलोक से फुरसत न थी कि परलोक की फिक्र करे।

जैनब के सामने कठिन समस्या थी। आत्मा धर्म की ओर थी, हृदय पति की ओर। न धर्म को छोड़ सकती थी, न पति को । उसके घर के सभी आदमी मूर्तिपूजक थे। इस नये सम्प्रदाय से सारे नगर में हलचल मची हुई थी। जैनब सबसे अपनी लगन को छिपाती, यहाँ तक कि पति से भी न कह सकती थी। वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे, बात-बात पर खून की नदी बह जाती थी, खानदान-के खानदान मिट जाते थे। उन दिनों अरब की वीरता पारस्परिक कलह में प्रकट होती थी। राजनीतिक संगठन का जमाना न था। खून का बदला खून, धन-हानि का बदला खून, अपमान का बदला खून। मानव-रक्त ही से सभी झगड़ों का निबटारा होता था। ऐसी अवस्था में अपने धर्मानुराग को प्रकट करना अबुलआस के शक्तिशाली परिवार और मुहम्मद तथा उनके इने-गिने अनुयायियों में देवासुरों का संग्राम छेड़ना था। उधर प्रेम का बंधन पैरों को जकड़े हुए था। नये धर्म में दीक्षित होना अपने प्राणप्रिय पति से सदा के लिए बिछुड़ जाना था। कुरैश-जाति के लोग ऐसे मिश्रित विवाहों को परिवार के लिए कलंक समझते थे। माया और धर्म की दुविधा में पड़ी हुई जैनब कुढ़ती रहती थी।

धर्म का अनुराग एक दुर्बल वस्तु है, किन्तु जब उसका वेग होता है, तो हृदय के रोके नहीं रुकता। दोपहर का समय था, धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते आँखों से चिनगारियां निकलती थीं। हजरत मुहम्मद चिन्ता में डूबे हुए बैठे थे। निराशा चारों ओर अन्धकार के रूप में दिखाई देती थी। खुदैजा भी सिर झुकाए पास ही बैठी हुई एक फटा कुरता सी रही थी। धन-सम्पत्ति- सब कुछ इस लगन की भेंट हो चुकी थी। शत्रुओं का दुराग्रह दिनोंदिन बढ़ता जाता था। उनके मतानुयायियों को भांति-भांति की यंत्रणाएँ दी जा रही थी। स्वयं हजरत को घर से निकलना मुश्किल था। यह खौफ होता था कि कहीं लोग उन पर ईंट-पत्थर न फेंकने लगें। खबर आती थी, आज फलां मुस्लिम का घर लूट गया, आज फलां को लोगों ने आहत किया। हजरत ये खबरें सुन-सुनकर विकल हो जाते थे और बार-बार खुदा से धैर्य और क्षमा की याचना करते थे।

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हजरत ने फरमाया- ‘मुझे ये लोग अब यहाँ न रहने देंगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूँ लेकिन अपने दोस्तों की तकलीफ नहीं देखी जाती।'

खुदैजा- ‘हमारे चले जाने से इन बेचारों की और भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम-से-कम तुम्हारे पास आकर रो तो लेते हैं। मुसीबत में रोने का सहारा ही बहुत होता है।'

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हजरत- ‘तो मैं अकेले थोड़े ही जाना चाहता हूँ। मैं सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूँ। अभी हम यहाँ बिखरे हुए हैं, कोई किसी की मदद को नहीं पहुँच सकता। हम सब एक ही जगह, एक कुटुम्ब की तरह रहेंगे, तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने का साहस न होगा। हम अपनी मिली हुई शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं, जिस पर चढ़ने की किसी को हिम्मत न होगी।'

सहसा जैनब घर में दाखिल हुई। उसके साथ न कोई आदमी था, न आदमजात। मालूम होता था, कहीं से भागी चली आ रही है। खुदैजा ने उसे गले लगाकर पूछा- ‘क्या हुआ जैनब, खैरियत तो है?'

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जैनब ने अपने अन्तर-संग्राम की कथा कह सुनाई और पिता से दीक्षा की याचना की।

हजरत मुहम्मद आँखों में आँसू भरकर बोले- ‘बेटी, मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की कोई बात नहीं हो सकती, लेकिन जानता हूँ तुम्हारा क्या हाल होगा।'

जैनब- ‘या हजरत! खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय कर लिया है। दुनिया के लिए अपनी नजात को नहीं खोना चाहती।'

हजरत- ‘जैनब, खुदा की राह में कांटे हैं।'

जैनब- ‘अब्बाजान, लगन को काँटों की परवाह नहीं होती।'

हजरत- ‘ससुराल से नाता टूट जाएगा।'

जैनब- ‘खुदा से तो नाता जुड़ जाएगा।'

हजरत- ‘और अबुलआस?'

जैनब की आँखों में आंसू डबडबा आए। क्षीण स्वर में बोली- ‘अब्बाजान, उन्होंने इतने दिनों मुझे बाँध रखा था, नहीं तो मैं कब की आपकी शरण आ चुकी होती। मैं जानती हूँ उनसे जुदा होकर मैं जिंदा न रहूँगी, और शायद उनसे भी मेरा वियोग न सहा जाए, पर मुझे विश्वास है कि यह किसी-न-किसी दिन जरूर खुदा पर ईमान लाएँगे और फिर मुझे उनकी सेवा का अवसर मिलेगा।'

हजरत- ‘बेटी, अबुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सत्यवक्ता है, किन्तु उसका अहंकार शायद अंत तक उसे ईश्वर से विमुख रखे। वह तकदीर को नहीं मानता, रूह को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता। कहता है, खुदा की जरूरत ही क्या है? हम उससे क्यों डरे। विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है। ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। कुफ्र को तोड़ना आसान है, लेकिन जब यह दर्शन की सूरत पकड़ लेता है, तो उस पर किसी का जोर नहीं चलता।'

जैनब ने दृढ़ होकर कहा- ‘या हजरत, आत्मा का उपकार जिसमें हो, मुझे वही चाहिए। मैं किसी इनसान को अपने और खुदा के बीच में न आने दूँगी।'

हजरत ने कहा- ‘खुदा तुझ पर दया करे बेटी! तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया।'

यह कहकर उन्होंने जैनब को गले लगा लिया।

दूसरे दिन जैनब को यथाविधि आम मस्जिद में कलमा पढ़ाया गया।

कुरैशियों ने जब यह खबर पायी, तो जल उठे। गजब खुदा का! इस्लाम ने तो बड़े-बड़े घरों पर भी हाथ साफ करना शुरू कर दिया। अगर यही हाल रहा, तो धीरे-धीरे उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाएगी कि हमारे लिए उसका सामना करना कठिन हो जाएगा। अबुलआस के घर पर एक बड़ी मजलिस हुई।

अबूसिफियान ने, जो इस्लाम के दुश्मनों में सबसे प्रतिष्ठित मनुष्य था, अबुलआस से कहा- ‘तुम्हें अपनी बीवी को तलाक देना पड़ेगा।'

अबुलआस ने कहा- ‘हरगिज नहीं।'

अबूसिफियान- ‘तो क्या तुम भी मुसलमान हो जाओगे?'

अबुलआस- ‘हरगिज नहीं।'

अबूसिफियान- ‘तो उसे मुहम्मद ही के घर रहना पड़ेगा।'

अबुलआस- ‘हरगिज नहीं! आप लोग मुझे आज्ञा दीजिए कि उसे अपने घर लाऊँ।'

अबूसिफियान- ‘हरगिज नहीं।'

अबुलआस- ‘क्या यह नहीं हो सकता कि वह मेरे घर में रहकर इच्छानुसार खुदा की बंदगी करे?'

अबूसिफियान- ‘हरगिज नहीं।'

अबुलआस- ‘मेरी कौम मेरे साथ इतनी सहानुभूति भी न करेगी?'

अबूसिफियान- ‘हरगिज नहीं।'

अबुलआस- ‘तो फिर आप लोग मुझे समाज से पतित कर दीजिए। मुझे पतित होना मंजूर है। आप लोग और जो सजा चाहें दे, वह सब मंजूर है। मगर मैं अपनी बीवी को नहीं छोड़ सकता। मैं किसी की धार्मिक स्वाधीनता का अपहरण नहीं करना चाहता, और वह भी अपनी बीवी की।'

अबूसिफियान- ‘कुरैश में क्या और लड़कियाँ नहीं हैं?'

अबुलआस- ‘जैनब की-सी कोई नहीं है।'

अबूसिफियान- ‘हम ऐसी लड़कियाँ बता सकते हैं, जो चाँद को लज्जित कर दें।'

अबुलआस- ‘मैं सौन्दर्य का उपासक नहीं।'

अबूसिफियान- ‘ऐसी लड़कियाँ दे सकता हूँ जो गृह-प्रबंध में निपुण हों, बातें ऐसी करें कि मुँह से फूल झड़े, खाना ऐसा पकाये कि बीमार को भी रुचिकर हो, सीने- पिरोने में इतनी कुशल कि पुराने कपड़े को नया कर दें।'

अबुलआस- ‘मैं इन गुणों में से किसी का भी उपासक नहीं। मैं प्रेम, और केवल प्रेम का उपासक हूँ। और मुझे विश्वास है कि जैनब का-सा प्रेम मुझे सारी दुनिया में कहीं नहीं मिल सकता।'

अबूसिफियान- ‘प्रेम होता, तो तुम्हें छोड़कर यह बेवफाई करती?'

अबुलआस- ‘मैं नहीं चाहता कि मेरे लिए वह अपने आत्म-स्वातंत्र्य का त्याग करे।'

अबूसिफियान- ‘इसका आशय यह है कि तुम समाज में समाज के विरोधी बनकर रहना चाहते हो। आँखों की कसम। समाज तुम्हें अपने ऊपर यह अत्याचार न करने देगा। मैं कहे देता हूं इसके लिए तुम रोओगे।'

अबूसिफ़ियान और उनकी टोली के लोग तो धमकियाँ देकर उधर गए इधर अबुलआस ने लकड़ी संभाली और हजरत मुहम्मद के घर पहुँचे। शाम हो गई थी। हजरत दरवाजे पर अपने मुरीदों के साथ मगरिब की नमाज पढ़ रहे थे। अबुलआस ने उन्हें सलाम किया और जब तक नमाज होती रही, गौर से देखते रहे। जमात का एक साथ उठना-बैठना और झुकना देखकर उनके मन में श्रद्धा की तरंगें उठने लगी। उन्हें मालूम न होता था कि मैं क्या कर रहा हूँ पर अज्ञात भाव से वह जमात के साथ बैठते, झुकते और खड़े हो जाते थे। वहाँ का एक- एक परमाणु इस समय ईश्वरमय हो रहा था। एक क्षण के लिए अबुलआस भी उसी अन्तर-प्रवाह में बह गए।

जब नमाज खत्म हुई और लोग सिधारे, तो अबुलआस ने हजरत के पास जाकर सलाम किया और कहा- ‘मैं जैनब को विदा कराने आया हूँ।'

हजरत ने विस्मित होकर पूछा- ‘तुम्हें मालूम नहीं कि वह खुदा और उसके रसूल पर ईमान ला चुकी है?'

अबुलआस- ‘जी हां, मालूम है।'

हजरत- ‘इस्लाम ऐसे सम्बन्धों का निषेध करता है, यह भी तुम्हें मालूम है।'

अबुलआस- ‘क्या इसका मतलब यह है कि जैनब ने मुझे तलाक दे दिया?'

हजरत- ‘अगर यही मतलब हो, तो?'

अबुलआस- ‘तो कुछ नहीं। जैनब को अपने खुदा और रसूल की बंदगी मुबारक हो। मैं एक बार उससे मिलकर घर चला जाऊंगा, और फिर कभी आपको अपनी सूरत न दिखाऊंगा लेकिन उस दशा में अगर कुरैश जाति आपसे लड़ने को तैयार हो जाए, तो इसका इल्जाम मुझ पर न होगा।'

हजरत- ‘मैं कुरैश से इस वक्त नहीं लड़ना चाहता।'

अबुलआस- ‘तो जैनब को मेरे साथ जाने दीजिए। उस हालत में कुरैश के क्रोध का भाजन मैं होऊंगा। आप और आपके मुरीदों पर कोई आफत न होगी।'

हजरत- ‘तुम दबाव में आकर जैनब को खुदा की तरफ से फेरने का यत्न तो न करोगे?'

अबुलआस- ‘मैं किसी के धर्म में बाधा डालना सर्वथा अमानुषी समझता हूँ।'

हजरत- ‘तुम्हें लोग जैनब को तलाक देने पर तो मजबूर न करेंगे?'

अबुलआस- ‘मैं जैनब को तलाक देने के पहले जिंदगी को तलाक दे दूँगा।'

हजरत को अबुलआस की बातों से इत्मीनान हो गया। वह अबुलआस की इज्जत करते थे। अबुलआस को हरम में जैनब से मिलने का मौका दिया।

अबलुआस ने पूछा- ‘जैनब, मैं तुम्हें अपने साथ ले चलने आया हूँ। धर्म के बदलने से कहीं मन तो नहीं बदल गया?'

जैनब रोती हुई उनके पैरों पर गिर पड़ी और बोली- ‘धर्म बार-बार मिलता है, हृदय केवल एक बार। मैं आपकी हूँ, चाहे जहाँ रहूँ लेकिन समाज मुझे आपकी सेवा में रहने देगा?'

अबुलआस- ‘यदि समाज न रहने देगा, तो मैं समाज से ही निकल जाऊंगा। दुनिया में आराम से जीवन व्यतीत करने के लिए बहुत ही स्थान हैं। रहा मैं, तुम जानती हो, मैं धार्मिक स्वाधीनता का पक्षपाती हूँ। मैं तुम्हारे धार्मिक विषयों में कभी हस्तक्षेप न करूंगा।'

जैनब चली, तो खुदैजा ने रोते हुए उसे यमन के लालों का एक बहुमूल्य हार विदाई में दिया।

इस्लाम पर विधर्मियों के अत्याचार दिनोंदिन बढ़ने लगे। अवहेलना की दशा से निकलकर उसने भय के क्षेत्र में प्रवेश किया। शत्रुओं ने उसे समूल नाश करने की आयोजना करनी शुरू की। दूर-दूर के कबीलों से मदद माँगी जाने लगी। इस्लाम में इतनी शक्ति न थी कि शस्त्र-बल से विरोधियों को दबा सके। हजरत मुहम्मद ने मक्का छोड़कर कहीं और चले जाने का निश्चय किया। मक्का में मुस्लिमों के घर सारे शहर में बिखरे हुए थे। एक की मदद को दूसरे मुसलमान न पहुँच सकते थे। हजरत मुहम्मद किसी ऐसी जगह आबाद होना चाहते थे, जहाँ सब मिले हुए रहें, और शत्रुओं की संगठित शक्ति का प्रतिकार कर सके। अन्त में उन्होंने मदीने को पसन्द किया और अपने समस्त अनुयायियों को सूचना दे दी। भक्तजन उनके साथ हुए और एक दिन मुस्लिमों ने मक्के से मदीना को प्रस्थान कर दिया। यही हिजरत था।

मदीना पहुँचकर मुसलमानों में एक नई शक्ति, नई स्फूर्ति का उदय हुआ। वे निःशंक होकर अपने धर्म का पालन करने लगे। अब पड़ोसियों से दबने और छिपने की जरूरत न थी।

आत्मविश्वास बढ़ा। इधर भी विधर्मियों का स्वागत करने की तैयारियाँ होने लगीं। दोनों पक्ष सेना इकट्ठी करने लगे। विधर्मियों ने संकल्प किया कि संसार से इस्लाम का नाम ही मिटा देंगे। इस्लाम ने भी उनके दाँत खट्टे करने का निश्चय किया।

एक दिन अबुलआस ने आकर पत्नी से कहा- ‘जैनब, हमारे नेताओं ने इस्लाम पर जिहाद करने की घोषणा कर दी है।'

जैनब ने घबराकर कहा- ‘अब तो वे लोग यहाँ से चले गए। फिर इस जिहाद की जरूरत?'

अबुलआस- ‘मक्के से चले गए, अरब से तो नहीं चले गए। उन लोगों की ज्यादतियाँ बढ़ती जा रही हैं। जिहाद के सिवा और कोई उपाय नहीं है। जिहाद में मेरा शरीक होना जरूरी है।'

जैनब- ‘अगर तुम्हारा दिल तुम्हें मजबूर करता है, तो शौक से जाओ। मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी।'

आस- ‘मेरे साथ?'

जैनब- ‘हाँ वहाँ आहत मुसलमानों की सेवा-शुश्रूषा करूंगी।'

आस- ‘शौक से चलो।'

घोर संग्राम हुआ। दोनों दल वालों ने खूब दिल के अरमान निकाले। भाई भाई से, बाप बेटे से लड़ा। सिद्ध हो गया कि मजहब का बंधन रक्त और वीर्य के बंधन से सुदृढ़ है।

दोनों दल वाले वीर थे। अन्तर यह था कि मुसलमानों में नया धर्मानुराग था। मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की आशा थी। दिलों में वह अटल विश्वास था, जो नवजात का लक्षण है। विधर्मियों में बलिदान का यह भाव लुप्त था।

कई दिन तक लड़ाई होती रही। मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी, पर अंत में उनके धर्मोत्साह ने मैदान मार लिया। विधर्मियों में कितने ही मारे गए, कितने ही घायल हुए और कितने ही कैद कर लिए गए। अबुलआस भी इन्हीं कैदियों में थे।

जैनब ने ज्यों ही सुना कि अबुलआस पकड़ लिये गए, उसने तुरंत हजरत मुहम्मद की सेवा में मुक्ति-धन भेजा। यह वही बहुमूल्य हार था, जो खुदैजा ने उसे दिया था। जैनब अपने पूज्य पिता को उस धर्म-संकट में एक क्षण के लिए भी न डालना चाहती थी, जो मुक्ति-धन के अभाव की दशा में उन पर पड़ता, किन्तु अबुलआस को इच्छा होते हुए भी पक्षपात भय से न छोड़ सके।

सब कैदी हजरत के सामने पेश किए गए। कितने ही तो ईमान लाये, कितनों के घरों से मुक्ति-धन आ चुका था, वे मुक्त कर दिए गए। हजरत ने अबुलआस को देखा, सबसे अलग सिर झुकाए खड़े हैं। मुख पर लज्जा का भाव झलक रहा है।

हजरत ने कहा- ‘अबुलआस, खुदा ने इस्लाम की हिमायत की, वरना उसे यह विजय न प्राप्त होती।

अबुलआस- अगर आपके कथनानुसार संसार में एक खुदा है, तो वह अपने एक बंदे को दूसरे का गला काटने में मदद नहीं दे सकता। मुसलमानों की विजय उनके रणोत्साह से हुई।

एक साहब ने पूछा- तुम्हारा फिदिया (मुक्ति-धन) कहीं है?

हजरत ने फरमाया- अबुलआस का हार निहायत बेशकीमती है, इनके बारे में आप क्या फैसला करते हैं? आपको मालूम है, यह मेरे दामाद हैं?

अबूबकर- आज तुम्हारे घर में जैनब है जिन पर ऐसे सैकड़ों हार कुर्बान किए जा सकते हैं।

अबुलआस- तो आपका मतलब क्या है कि जैनब मेरा फिदिया हो?

जैद- बेशक, हमारा यही मतलब है।

अबुलआस- उससे तो कहीं बेहतर था कि आप मुझे कत्ल कर देते।

अबूबकर- हम रसूल के दामाद को कत्ल नहीं करेंगे, चाहे वह विधर्मी ही क्यों न हो। तुम्हारी यहाँ उतनी खातिर होगी, जितनी हम कर सकते हैं।

अबुलआस के सामने विषम समस्या थी। इधर यहाँ की मेहमानी में अपमान था, उधर जैनब के वियोग की दारुण वेदना थी। उन्होंने निश्चय किया कि यह वेदना सहूंगा, किन्तु अपमान न सहूँगा। प्रेम को आत्मा के गौरव पर बलिदान कर दूँगा। बोले- मुझे आपका फैसला मंजूर है। जैनब मेरी फिदिया होगी।

मदीने में रसूल की बेटी की जितनी इज्जत होनी चाहिए, उतनी होती थी। सुख था, ऐश्वर्य था, धर्म था, पर प्रेम न था। अबुलआस के वियोग में रोया करती। तीन वर्ष तीन युगों की भांति बीते। अबुलआस के दर्शन न हुए।

उधर अबुलआस पर उसकी बिरादरी का दबाव पड़ रहा था कि विवाह कर लो, पर जैनब की मधुर स्मृतियाँ ही उसके प्रणय-वंचित हृदय को तसकीन देने को काफी थी। वह उत्तरोत्तर उत्साह के साथ अपने व्यवसाय में तल्लीन हो गया। महीनों घर न आता। धनोपार्जन ही अब उसके जीवन का मुख्य आधार था। लोगों को आश्चर्य होता था कि अब वह धन के पीछे क्यों प्राण दे रहा है। निराशा और चिन्ता बहुधा शराब के नशे से शांत होती है, प्रेम उन्माद से। अबुलआस को धनोन्माद हो गया था। धन के आवरण में ढँका हुआ यह प्रेम-नैराश्य था, माया के परदे में छिपा हुआ प्रेम वैराग्य।

एक बार वह मक्का से माल लादकर ईराक की तरफ चला। काफ़िले में और भी कितने ही सौदागर थे। रक्षकों का एक दल भी साथ था। मुसलमानों के कई काफ़िले विधर्मियों के हाथों लुट चुके थे। उन्हें ज्यों ही इस काफ़िले की खबर मिली, जैद ने कुछ चुने हुए आदमियों के साथ उन पर धावा बोल दिया। काफिले के रक्षक लड़े और मारे गए। काफिले वाले भाग निकले। अतुल धन मुसलमानों के हाथ लगा। अबुलआस फिर कैद हो गए।

दूसरे दिन हजरत मुहम्मद के सामने अबुलआस की पेशी हुई। हजरत ने एक बार उसकी तरफ करुण दृष्टि डाली और सिर झुका लिया। सहाबियों ने कहा- या हजरत, अबुलआस के बारे में आप क्या फैसला करते हैं?

मुहम्मद- इसके बारे में फैसला करना तुम्हारा काम है। यह मेरा दामाद है। सम्भव है, मैं पक्षपात का दोषी हो जाऊँ।

यह कहकर वह मकान में चले गए। जैनब रोकर पैरों पर गिर पड़ी और बोली- अब्बाजान आपने औरों को तो आजाद कर दिया। अबुलआस क्या उन सबसे गया, बीता है?

हजरत- नहीं जैनब, न्याय के पद पर बैठने वाले आदमी को पक्षपात और द्वेष से मुक्त होना चाहिए। यद्यपि यह नीति मैंने ही बनाई है, तो भी अब उसका स्वामी नहीं, दास हूँ। मुझे अबुलआस से प्रेम है। मैं न्याय को प्रेम-कलंकित नहीं कर सकता।

सहाबी हजरत की इस नीत-भक्ति पर मुग्ध हो गए। अबुलआस को सब माल-असबाब के साथ मुक्त कर दिया गया।

अबुलआस पर हजरत की न्यायपरायणता का गहरा असर पड़ा। मक्के आकर उन्होंने अपना हिसाब-किताब साफ किया, लोगों का माल लौटाया, कर्ज अदा किया और घर-बार त्यागकर हजरत मुहम्मद की सेवा में पहुँच गए। जैनब की मुराद पूरी हुई।


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